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भारत और चीन की सेनाओं के अधिकारी एलएसी पर एक मीटिंग के दौरान |
1962 के चीन युद्ध
के बाद से ही भारत के ड्रैगन से रिश्ते बेहद संवदेनशील रहे हैं. वास्तविक नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल
यानि एलएसी) पर चीनी सेना की आए दिन घुसपैठ से इन रिश्तों में खटास और अधिक बढ़
जाती है. ऐसे में अगर रक्षा मंत्रालय का एक बड़ा फौजी अधिकारी सार्वजनिक रुप से ये
कह दे कि भारत को चीन के ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ से चौकन्ना रहना होगा तो सभी के कान खड़े हो
जाते हैं.
क्या वाकई ये ‘मोतियों की माला’ भारत
के गले में कभी भी कसने का काम कर सकती है. क्या ‘मोतियों
की लड़ी’ से वक्त पड़ने पर भारत का गला घोेंटा जाता सकता
है. आखिर
क्या है ये चीन का ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’. भारत को कैसे रहने होगा चौकन्ना. इसको समझने से पहले रक्षा मंत्रालय के उस बड़े सैन्य अधिकारी का वो पूरा बयान जान
लेते हैं जो उसने हाल ही में डिफेंस से जुड़े एक बड़े सम्मेलन में दिया
था.
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सीआईडीएस, एयर मार्शल पी पी रेड्डी |
5 जनवरी 2015 को देश
के सबसे बड़े व्यापारिक और औद्योगिक संगठनों में से एक, एसौचैम (एसोसियटड चैम्बर
ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने राजधानी दिल्ली में ‘रक्षा
क्षेत्र में आत्मनिर्भरता’ नाम के एक सम्मेलन का आयोजन किया था. रक्षा
मंत्री से लेकर रक्षा क्षेत्र की कंपनियों के बड़े-बड़े सीईओ और एमडी उसमें शामिल
हुए थे. साथ ही शामिल हुए थे रक्षा मंत्रालय के एकीकृत रक्षा स्टॉफ के चीफ (चीफ ऑफ
इंटीग्रेटड डिफेंस स्टॉफ यानि सीआईडीएस) एयर मार्शल पी पी रेड्डी. सम्मेलन के
आखिरी सत्र में पी पी रेड्डी को संबोधित करना था.
सीआईडीएस, एयर
मार्शल रेड्डी ने जैसे ही सम्मेलन में बोलना शुरु किया, हर कोई स्तब्ध रह गया. अपने
‘पॉवर प्वाइंट’ भाषण में एक-एक कर
रेड्डी ने बताया कि सामरिक और भौगोलिक (जियोस्ट्रेटैजिक) नक्शे पर भारत की स्थिति
क्या है. उन्होनें बताया कि हमारे देश के “उत्तर में चीन है और
पश्चिम में पाकिस्तान है. दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हैं.” दोनों ही
देशों से हमारे युद्ध हो चुके हैं. पाकिस्तान की चीन से नजदीकियां किसी से छिपी
नहीं रही हैं. ऐसे में अगर दोनों देशों से एक साथ युद्ध की नौबत आ गई तो हम क्या
करेंगे. यानि “दो-दो मोर्चों पर एक साथ परमाणु युद्ध के लिए
भारत को तैयार रहना होगा.”
रेड्डी ने कहा कि “...चीन का बढ़ता (क्षेत्रीय) दबदबा, आर्थिक क्षमता
और अपने उद्योग के लिए संसाधनों की बढ़ती भूख के चलते चीन हमारे पड़ोसी देशों
से राजनयिक संबध कायम कर रहा है... उन्हें (पड़ोसी देशों) लोन दे रहा है, उनके यहां
बदंरगाह बनवा रहा है, हथियारों की सप्लाई कर रहा है....चीन हमारे चारों
तरफ ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ बनाना चाहता है.”
‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ का जिक्र
आज से करीब दस साल पहले (2005 में) अमेरिकी के रक्षा मंत्रालय ने ‘एशिया में ऊर्जा का भविष्य’ नाम की एक खुफिया रिपोर्ट में किया था. पेंटागन
की इस रिपोर्ट में चीन द्वारा समुद्र में तैयार किए जा रहे ‘मोतियों’ का विस्तृत विवरण
दिया गया था. ये समुद्र में पाए जाने वाले मोती नहीं बल्कि दक्षिण चीन सागर से
लेकर मलक्का-स्ट्रैट, बंगाल की खाड़ी और अरब की खाड़ी तक (यानि पूरे हिंद महासागर
में) सामरिक ठिकाने (बंदरगाह, हवाई पट्टी, निगरानी-तंत्र इत्यादि) तैयार करना था.
हालांकि रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन ये ठिकाने अपने ऊर्जा-स्रोत और तेल
से भरे जहाजों के समुद्र में आवागमन की सुरक्षा के लिए तैयार कर रहा है. लेकिन
जरुरत पड़ने पर इन सामरिक-ठिकानों को सैन्य-जरुरतों के लिए भी इस्तेमाल कर सकता
है.
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चीन का स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स: साभार नीतिसेन्ट्रल.कॉम |
आइए जानते हैं कि
चीन के ये ‘मोती’ कहां-कहां हैं और
इनका भारत की सुरक्षा को कैसा खतरा है. इसे समझने के लिए ऊपर दिए नक्शे को गौर से
देखेंगे तो साफ हो जायेगा कि चीन की मोतियों की लड़ी आखिर किस तरह से भारत के लिए
गले का फंदा भी बन सकता है.
पेंटागन की खुफिया
रिपोर्ट में बताया गया था कि अमेरिका के दक्षिण चीन-सागर और दक्षिण-पूर्व देशों
में बढ़ते दबदबे के चलते ही चीन ने इन ‘मोतियों की लड़ी’ को पिरोना शुरु किया था. अमेरिका का ताइवान को
लेकर रुख चीन को नागवार गुजर रहा है, इसीलिए वो अमेरिका की तरह सुपर-पॉवर बनने की
जुगत में जुटा है. अमेरिका से (आधुनिक) हथियारों की होड़ में जुट गया है चीन.
लेकिन मोतियों की इस लड़ी को गौर से देखेंगे तो ये भारत के गले में भी खतरे की
घंटी दिखाई पड़ती है.
इसकी शुरुआत चीन ने
दक्षिण चीन-सागर से शुरु की. यहां मौजूद हेनान द्वीप चीन का सबसे पहला ‘मोती’ है. ये द्वीप चीन
का एक बड़ा सामरिक ठिकाना है. इस द्वीप पर एक बड़ा एयरबेस तो है ही सर्विलांस
सिस्टम भी मौजूद है. इस द्वीप से चीन पूरे साउथ चायना-सी पर नजर रखता है. वर्ष
2001 की वो घटना अमेरिका शायद ही भूल सकता है जब चीन के दो लड़ाकू विमानों ने एक
यूएस स्पाई प्लेन को क्षतिग्रस्त कर हेनान द्वीप पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया और
अमेरिकी सैनिकों को बंदी बना लिया था. बड़ी मुश्किल से अमेरिका इस संकट का टाल
पाया था. लेकिन ये शायद पहली बार था कि चीन ने इस इलाके में अपनी प्रभुता का नमूना
पेश किया था. ना केवल नमूना पेश किया बल्कि सुपरपॉवर अमेरिका के साथ-साथ पूरी
दनिया को इस इलाके से दूर रहने और ड्रैगन से पंगा ना लेने की चेतावनी भी दे डाली
थी.
इसी तरह, चीन
एशियान (एसोशियसन ऑफ साउथ-ईस्ट नेशन्स) देश कंबोडिया और थाईलैंड में अपने ठिकाने
बनाने के साथ-साथ इस इलाके में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है.
अगर भारत की ‘गले में स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ की बात करें तो सबसे पहले देखें की चीन ने
म्यांमार (बर्मा) में अपना रुतबा कायम करना शुरु कर दिया था. म्यांमार में लोकतंत्र
की गैर-मौजूदगी और मिलैट्री-शासन के चलते भारत ने अपने पड़ोसी देश से कभी मजबूत
राजनयिक संबध नहीं कायम किए. इस बात का फायदा चीन ने उठाया और करोड़ो रुपये की
सैन्य सहायता दे डाली. इतना ही नहीं बर्मा के सिटवे पोर्ट को भी चीन ने ही तैयार
किया, जो कोलकाता से ज्यादा दूर नहीं है. साथ ही मलक्का-स्ट्रैट के करीब बने
बर्मा के कोको-द्वीप में ना केवल हवाई-पट्टी बना ली है बल्कि इलैक्ट्रॉनिक-इंटेलिजेंस
इकठ्ठा करने की एक पूरी इकाई स्थापित करली है. ये कोको द्वीप भारत के
अंडमान-निकोबर द्वीप से मात्र पैतीस (35) किलोमीटर की दूरी पर हैं. पेंटागन की
रिपोर्ट में म्यांमार को चीन के ‘सैटेलाइट’ के तौर पर संबोधित किया गया है.
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साभार: चायना ब्रीफिंगडॉटकॉम |
चीन ने
भारत के एक दूसरे पड़ोसी देश बांग्लादेश के चित्तागोंग बंदरगाह पर अपने लिए एक
कंटनेर-पोर्ट तैयार किया है. साथ ही चीन बांग्लादेश से भी राजनयिक संबध मजबूत करने
की ताक में है.
भारत के दक्षिणी छोर
पर स्थित श्रीलंका में भी चीन ने हम्बनटोटा में बंदरगाह तैयार किया है. इस बंदरगाह
पर हाल ही में चीन की पनडुब्बियों को देखा गया है. साफ है कि भले ही चीन ये कहे कि
वो दूसरे देशों में बंदरगाह पूरी तरह से व्यापारिक दृष्टिकोण से तैयार कर रहा है.
लेकिन श्रीलंका में उसकी पनडुब्बियों की मौजूदगी ने साफ कर दिया है कि
व्यापारिक-बंदरगाहों को जरुरत पड़ने पर सैन्य-बंदरगाहों में भी तब्दील किया जा
सकता है. यहां ये बात गौरतलब है कि हम्बनटोटा बंदरगाह को विकसित करने के लिए
श्रीलंका ने सबसे पहले भारत से ही आग्रह किया था. लेकिन इससे पहले की भारत तैयार
होता, चीन ने श्रीलंका को जरुरी मदद करने की पेशकश कर डाली और भारत मुंह ताकता रह
गया. साफ है कि भारत की गलत (विदेश और सामरिक) नीतियां ही उसके लिए गले का फंदा बन
रहीं हैं.
अब बात करते हैं
भारत के चिरपरिचित दुश्मन पाकिस्तान की, जहां चीन लगातार अपने पैर पसार रहा है.
पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन ने ही तैयार किया है. कराची से करीब 250 मील
दूर बने इस पोर्ट से पाकिस्तान का समुद्री-व्यापार तो आसान हुआ ही है, सामरिक
दृष्टि से भी ये बेहद महत्वपूर्ण है. 1971 युद्ध में भारत की नौसेना ने कराची
बंदरगाह को तहस-नहस कर डाला था. ऐसे में पाकिस्तान को जररुत थी एक वैकल्पिक
पोर्ट की. जो चीन ने ग्वादर-बंदरगाह को तैयार कर पूरा कर दिया है. लेकिन ये पोर्ट
हालांकि चीन और पाकिस्तान व्यापारिक बंदरगाह की श्रेणी में रखना पसंद करते हैं.
लेकिन जानकारों की मानें तो इस बंदरगाह की गहराई से ही साफ हो जाता है कि ये
युद्धपोतों के अलावा पनडुब्बियों के लिए भी सुरक्षित पोर्ट है. ग्वादर पोर्ट से
होर्मोज-स्ट्रैट भी बेहद करीब है. इसके अलावा चीन ने कराची और ग्वादर बंदरगाहों के
बीच का हाईवे भी तैयार करने में पाकिस्तान की (आर्थिक) मदद की है.
भले ही चीन इस बात
का दावा करे कि वो ये सभी बंदरगाह अपने व्यवसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिए
तैयार कर रहा है. लेकिन इतिहास गवाह है कि चीन अपने व्यापार को मिलेट्री-सहायता
देने में गुरेज नहीं करता है—जैसा कि हर देश को करना चाहिए. 15वीं सदी के शुरुआत में जब चीन
के मिंग-राजवंश ने अपना समुद्री-काफिला व्यापार करने के लिए दुनियाभर में भेजा था
तो उसके साथ पूरे 72 युद्धपोत भेजे थे, ताकि उन्हे समुद्री-डकैतों और विरोधी देशों
की नौसेनाओं से मुकाबला किया जा सके.
चीन लगातार अपना
प्रभाव अफ्रीकी देशों में भी दिनोदिन बढ़ा रहा है. सूडान, कांगो और अंगोला जैसे
देशों से चीन लगातार अपने सबंध कायम कर रहा है. ये वे देश हैं जिनसे ना तो पश्चिम
की विकसित देश तो दूर विकासशील देश भी राजनयिक संबध कायम करने में कतराते हैं. चीन
इन अफ्रीकी देशों से तेल के साथ-साथ बड़े व्यापारिक समझौते कर रहा है. वर्ष 2008 में स्ट्रैटजिक-एनैलेसिस में
छपी रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के 25 अफ्रीकी-देशों के साथ मिलैट्री-राजनयिक संबध थे.
जबकि भारत के इस दौरान सिर्फ चार डिप्लोमेट नौ अफ्रीकी देशों को (राजनयिक तौर पर)
संभालते हैं. इसी तरह बीजिंग में 18 अफ्रीकी देशों के मिलेट्री-अटैचे थे जबकि
दिल्ली में मात्र सात.
बस यही डर सीआईडीएस
पी पी रेड्डी को सता रहा है. और इसी के लिए वे भारत की फौज और रक्षा उपक्रमों को
भविष्य में तैयार रहने के लिए आगाह कर रहे है. एयर मार्शल रेड्डी ने अपने भाषण में
कहा कि “...हमारी अर्थव्यवस्था और रक्षा उपक्रम हमें चीन से
स्पर्धा करने से रोक देते हैं. हमारे पड़ोसी देश हमारी तरफ ताक रहे हैं (लोन,
हथियार और दूसरे सामरिक जरुरतों के लिए) लेकिन हम उनकी जरुरतें पूरी नहीं कर पाते
हैं.”
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साभार: विशफुलथिंकिंग.वर्ल्डप्रेस.कॉम |
दरअसल, एयर मार्शल
रेड्डी की चिंता वही है जो पूरे देश के सैन्य-तंत्र की है. और वे ये कि भारत
दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के आयात करने वाले देशों में से एक है. मोदी सरकार की ‘मेड इन
इंडिया’ पॉलिसी से पहले शायद ही हमारी सरकारों ने देश को
रक्षा के क्षेत्र में स्वावलंबन बनाने की दिशा में इतना बड़ा कदम उठाया है. ना ही
हमारी किसी सरकार ने निजी कंपनियों को रक्षा क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए
उत्साहित किया है. मोदी सरकार ने दिल्ली में राजकाज संभालने के तुरंत बाद ही रक्षा
क्षेत्र में प्रत्यक्ष रुप से 49 फीसदी (26 प्रतिशित से बढ़ाकर) विदेशी निवेश को
हरी झंडी दे दी. इन दोनों नीतियों का सीधा-सीधा मतलब ये था कि देश को रक्षा
क्षेत्र में आत्मनिर्भर करना है. ना केवल आत्मनिर्भर बनना बल्कि जरुरत पड़ने पर
अपने पड़ोसी (मित्र) देशों को सामरिक मदद करना. और इस की शुरुआत एक तरह से हो भी
चुकी है.
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मॉरीशस को निर्यात किए जाने वाला देश में निर्मित पहला ऑफशोर-पैट्रोल शिप |
भारत ने हाल ही में
मॉरिशस को देश में ही निर्मित एक पैट्रोलिंग शिप दिया है. ये पहली बार है कि
भारत ने किसी देश को स्वेदशी युद्धपोत निर्यात किया है. इसी तरह से एशियान देश
वियतनाम को भी ऐसे ही युद्धपोत देने के प्रकिया शुरु हो गई है. खबर तो यहां तक है
कि भारत जल्द ही वियतनाम को दुनिया की सबसे खतरनाक बह्मोस मिसाइल देने वाला है.
वियतनाम से भारत के सामरिक संबंध चीन के ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ की काट में खासी मदद कर सकते हैं.
इसी तरह भारत ने
पिछले कई दशकों के बाद म्यांमार के साथ संबंध सुधारने की पहल की है.
एशियान की बैठक
में प्रधानमंत्री मोदी के पहुंचने से पहले ही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां
पहुंच गई थीं. साफ है कि भारत अब वहां की मिलेट्री-जुंटा सरकार से सबंध बनाने में
गुरेज नहीं करता है. इसी तरह से (मोदी) सरकार के बनने के बाद ही विदेश मंत्री की
बांग्लादेश यात्रा बताती है कि भारत के लिए उसके (अब तक उपेक्षित पड़े) पड़ोसी देश
कितने जरुरी हैं. यहां तक की भारत ने कई वर्ग-किलोमीटर विवादित जमीन बांग्लादेश को
दे दी है. जो इस और इशारा करता है कि भारत अपने सभी पड़ोसी देशों से प्रगाढ़
रिश्तों की तरफ अग्रसर है.
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पीएम मोदी नेपाल के प्रधानमंत्री को 'गिफ्ट' देते ध्रुव-हेलीकॉप्टर |
खुद पीएम मोदी इसी
नीति पर चलते हैं कि अपने सभी पड़ोसी देशों (नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान) को नकारकर
भारत दुनिया की बड़ी ताकत नहीं बन सकता है. नेपाल को स्वेदशी ध्रुव हेलीकॉप्टर
गिफ्ट करना पीएम मोदी की इसी विदेश-नीति का सूचक है. और प्रधानमंत्री बनने के बाद
सबसे पहली विदेश यात्रा पर भूटान जाना भी यही दर्शाता है. यहां ये बात दीगर है कि
भारतीय थलसेना के प्रमुख, नेपाल की सेना के होनोररी-प्रमुख भी होते हैं. और भूटान
की रॉयल-सेना का प्रशिक्षण भी भारतीय सेना ही करती है. इस साल इंडियन मिलेट्री
एकेडमी में अफगानिस्तान के करीब एक दर्जन कैडेट भारतीय कैडेट्स के साथ ही पास होकर
अपने देश (अफगानिस्तान) की सेना में नियुक्त हुए हैं. अगर चीन के श्रीलंका से गूढ़
संबध स्थापित हो रहे हैं तो भारत के चीन के कभी सबसे कट्टर दुश्मन रहे मंगोलिया से
सामरिक संबध किसी से छिपे नहीं हैं.
शीत-युद्ध के बाद
दुनिया में एक मात्र सुपर-पॉवर अमेरिका से चीन अगर होड़ करना चाहता है तो वो ये
भूल जाता है कि एशिया में उसके दो सबसे ‘भरोसेमंद’ दोस्त भारत और जापान मौजूद हैं. अमेरिकी नौसेना ‘मालाबार-युद्धभ्यास’ भारत और जापान के साथ ही मिलकर करती है.
अगर चीन ने म्यांमार
में सैन्य-पांव पसार दिए हैं तो भारत भी अब वहां (म्यांमार) के सिटवे पोर्ट पर
अपना व्यापारिक-बंदरगाह तैयार करने लगा है. ये बंदरगाह कालडन नदी के जरिए भारत के
मिजोरम से जुड़ जायेगा ताकि वहां से कार्गो-जहाज आवागमन कर सके. इसी तरह अगर चीन
पाकिस्तान के ग्वादर में पोर्ट बना रहा है तो भारत भी ईरान के चाहबर-पोर्ट बनाने
में जुट गया है. अगर पाकिस्तान परमाणु शक्ति है तो ईरान भी न्यूकिलर-पॉवर बनने की
और अग्रसित है. यानि भारत भी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स बनाना जानता है.
फुटनोट्स
1. चायना बिल्ड्स अप
स्ट्रैटजिक लाईंस, वाशिंगटन टाइम्स...17 जनवरी 2005
2. स्ट्रिंग ऑफ
पर्ल्स: मीटिंग द चैलेंज ऑफ चायनाज राईजिंग पॉवर
(स्ट्रैटजिक स्टीडज इंस्टीटयूट, जुलाई 2006)
3. चायनाज स्ट्रिंग
ऑफ पर्ल्स इन इंडियन ओशियन: स्ट्रैटजिक एनैलैसिस फरवरी 2008