...किले में बैलगाड़ियों और ऊंटों
का कारवां दिन-रात दाखिल हो रहा था. मुख्यद्वार पर तैनात राजस्व
अधिकारी चावल से लदीं बैलगाड़ी और उन ऊंटों की गिनती करते और फिर कर (टैक्स) लगाकर उन्हें
अंदर जाने की इजाजत दे देते. लेकिन एक चुंगी-पोस्ट से अब बात नहीं बन रही थी. गेट
पर लंबी कतारों को ध्यान में रखते हुए किले के सिपहसलारों ने फैसला लिया
कि किले में चार और खिड़कियां खोली जाएें ताकी मुख्य द्वार पर आवाजाही कम हो
सके. साथ ही व्यापारियों को भी कम असुविधा हो. कच्छ इलाके में बड़ी तादाद में हो
रही चावल की खेती ने यहां के किसानों और व्यापारियों की पौ-बारह कर दी थी. गुजरात
का चावल सिंध और दूसरे इलाके में इसी किले से ही भेजा जाता था. कच्छ के बेहतरीन
किस्म के चावल के अलावा भी दूसरे प्रांतों से व्यापारी अपना सामान किले में लाकर
बेचना चाहते थे.
सौराष्ट्र इलाके से बड़ी तादाद में कपास और सूती कपड़े भी किले
में पहुंचते थे. ये कपास और कपड़े भी ऊंट या फिर बैलगाड़ी में कच्छ के रास्ते यहां
पहुंचते और फिर अरब और पश्चिम देशों में भेजे जाते.
लखपत किला
भारतवर्ष के सबसे पश्चिमी मुहाने पर अरब सागर के उस किनारे पर बना था जहां प्राचीन
सिंधु नदी हिमालय से निकलकर कश्मीर, लद्दाख, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से गुजरती हुई
समुद्र के मुंह में समाती थी. अरब सागर में समाने से पहले खुद उसका मुंह इतना
विशाल था कि बड़े-बड़े जहाज तक उसमें डेरा डाल देते थे. यही वजह थी कि ना जाने
कितने वर्षों से ये किला उसी बंदरगाह पर बना दिया गया था. लोथल बंदरगाह को बंद हुए एक अर्सा बीत चुका था. लेकिन गुर्जर-प्रदेश में नौका-निर्माण और समुंद्री-व्यापार की पंरपंरा अभी भी जारी थी. प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े बंदरगाह, भरुच की चर्चाएं भी सात समंदर पार तक हो रहीं थी.
लखपत किले की दीवार कुल सात
किलोमीटर लंबी थी. किला बंदरगाह बनने के बाद बनवाया गया था. अब किले के अंदर ही सभी
प्रशासनिक दफ्तर (एक ही जगह) बना दिए गए थे. साथ ही व्यापारियों की बस्ती भी किले
के अंदर आबाद हो गई थी. प्रशासनिक अधिकारी भी इसी किले में सुरक्षित अपने परिवारों
के साथ रहते थे. जिसके चलते ये बंदरगाह भरुच के साथ-साथ हिंदुस्तान का दूसरा सबसे
बड़ा और व्यस्त बंदरगाह बन गया था.
गुर्जर जाति का कच्छ और
आस-पास के इलाकों में खासा दबदबा थे. घूमंतू प्रवृत्ति के गुर्जर अपने पूरे परिवार
के साथ एक जगह से दूसरे जगह घूमते रहते थे. यही वजह है कि कच्छ के बड़े
श्रेष्ठियों (बड़े व्यापारी) ने इन्ही गुर्जरों को अपना सामान लखपत तक पहुंचाने के
लिए लगा रखा था. ये गुर्जर काफिलों के काफिले में 'कोट- लखपत' पहुंचते थे. प्रदेश
के व्यापारियों का चावल और दूसरा सामान फिर लखपत से आगे समुद्र के रास्ते विदेशों
तक पहुंचाया जाता था. साथ ही हिंद महासागर के कई इलाकों में भी इसी बंदरगाह का
चावल निर्यात किया जा रहा था.
किले में कच्छ की
तरफ वाली मुख्य द्वार पर भारतीय सैनिक तैनात रहते थे. वो किले की सुरक्षा के
साथ-साथ इस बात का भी खास ध्यान रखते थे कि कोई भी व्यापारी बिना कर दिए किले में
दाखिल ना हो जाए. समुद्र की तरफ किले और बंदरगाह की सुरक्षा गुजराती सैनिकों
के साथ-साथ अरबी सैनिकों के पास थी.
अरबी सैनिकों की एक टुकड़ी इसलिए तैनात की गई
थी कि अरब से आने वाले व्यापारियों को लखपत आने पर किसी दिक्कत का सामना ना हो. ये
सैनिक गुजराती भाषा में भी दक्ष थे और अपने देश के व्यापारियों के लिए अनुवादक का
काम भी कर लेते थे.
लेकिन लखपत किले के
कस्टम अधिकारियों को दिक्कत तब आती थी जब यवन देश का कोई व्यापारी अपना सामान लेकर
यहां पहुंचता था. उसके साथ लेन-देन करना मुश्किल होता था. यवनों को अरबी
व्यापारियों से अलग करना मुश्किल नहीं होता था. अरबी व्यापारी देखने में भारत के
ही लोगों जैसे ही होते थे. फर्क सिर्फ इतना होता था कि उनका पहनावा और बोली अलग
होती थी. लेकिन यवन एकदम काले होते थे. उनके बाल बहुत छोटे होते थे. या ता उनके
बाल गर्मी के चलते उड़ जाते थे या फिर गर्मी के कारण वे अपने बाल छोटे ही रखते थे.
यवन व्यापारियों से बातचीत करने के लिए कच्छ के ही किसी श्रेष्ठी को ही बुलाना
पड़ता था जो अपना सामान जहाज में लेकर कभी यवन देश गया था.
ये अरबी व्यापारी
कच्छ का चावल खरीदकर अपने देश में आयात करते थे. लेकिन वे अपने देश से खाली हाथ
नहीं आते थे. बल्कि अपने साथ अरब का इत्र, खजूर, नाईलोन, राजसी पत्थर इत्यादि लेकर
आते थे. गुर्जर-प्रदेश और कच्छ के बाजारों में बेचने से पहले इन अरबी व्यापारियों
को लखपत किले में कर अदा करना पड़ता था.
“आज अपने (देश के)
व्यापारियों से कितना कर प्राप्त हुआ है?”, शाम को राजस्व विभाग
के दफ्तर को बंद करने के समय मुख्य कर-अधिकारी ने अपने मातहत कर्मचारी से पूछा.
श्रीमान, आज का पूरा
हिसाब देखा जाए तो अपने देश के चावल से कर के रुप में कुल मिलाकर 80 हजार कौड़ियां
जमा हुईं हैं”,
कर-इंस्पेकटर ने
मुख्य अधिकारी को जानकारी दी.
“ठीक है....और विदेशी
माल से कितना कर प्राप्त हुआ है ?”, मुख्य कर-अधिकारी ने इंस्पेक्टर से एक बार फिर सवाल किया.
श्रीमान, विदेश से जो आज माल हमारे बंदरगाह पहुंचा है उससे कुल 20 हजार
कौड़ियां प्राप्त हुईं हैं, इंस्पेक्टर ने तपाक से जवाब दिया.
“बहुत खूब ! ये आंकड़ा किसी कीमत
पर कम नहीं होना चाहिए. हमें हर कीमत पर अपने किले का नाम सार्थक रखना है.... ‘लखपत’...यानि रोज एक लाख
का कर”, हल्की सी मुस्कान
के साथ
मुख्य-कर अधिकारी ने
अपने मातहत अधिकारी को आदेश दिया.
किले में बने कस्टम
हाउस के अधिकारी समुद्र के रास्ते आने वाले व्यापारी, जो कि तरह-तरह के सामान लाते
थे उनसे टैक्स वसूलते थे. टैक्स देने के बाद ही व्यापारी अपने माल को कच्छ इलाके
में ले जाकर बेच सकते थे. रोजाना कस्टम विभाग एक लाख कौड़ी (मुद्रा) राजस्व इकठ्ठा करता था. जिसके चलते ही
इस बंदरगाह का नाम शायद ‘लखपत’ पड़ा था.

कस्टम विभाग का दफ्तर
किले के अंदर ही बना था. लेकिन वो इतना बड़ा था कि गुर्जर और उनके सेठ यानि
श्रेष्ठी सीधे अपने ऊंटों को कस्टम के दफ्तर तक ले आते थे. कस्टम विभाग दूर-दराज
के इलाकों से कई दिनों का सफर करने के बाद आने वाले कांरवा और काफिलों का खास
ध्यान रखता था. दफ्तर में श्रेष्ठियों के ही आराम करने के व्यवस्था नहीं थे जहां
उनके भोजन-पानी की उत्तम व्यवस्था थी. किले में ही बनी धर्मशाला में व्यापारी अपनी
रात गुजार सकते थे. यहां तक की उनके ऊंटों और बैलगाड़ियों की भी उचित व्यवस्था थी.
कस्टम विभाग के दफ्तर में ही दो खिड़कियां बनाई गईं थीं. ये खिड़कियां इतनी उंचाई
पर बनाई गई थीं कि ऊंट खड़े होकर ही इन खिड़कियों में रखे चारे को आराम से खा सकते
थे. कस्टम विभाग के दफ्तर के ठीक पीछे ही एक बड़ा सा आहता था, जहां व्यापारी अपना
सारा सामान वहीं उतार देते थे. कुछ व्यापारी अपना सामान कस्टम विभाग के दफ्तर के
ठीक सामने बने बाजार में बेच देते थे. बाजार एक चौराहे पर बना था.
लेकिन कभी-कभी
सौदागरों और बाजार के दुकानदारों में लेन-देन के विवाद भी पैदा हो जाते थे. ऐसे में बाजार के दायें तरफ बने
‘भाटिया-परिवार’ की इमारत में सारे झगड़े सुलझाए जाते थे. भाटिया परिवार की इमारत
बाकी घरों से थोड़ी ऊंची थी जो लकड़ी और ईंट पत्थर की बनी थी. इमारत में लकड़ी
इसलिए ज्यादा इस्तेमाल की गई थी क्योंकि कच्छ में भूकंप का खतरा हमेशा बना रहता
था. अरब सागर के किनारे बने होने के चलते चक्रवाती तूफान का खतरा भी बना रहता था.
लखपत किले में ऐसे ही कई
साल बीत गए और फिर एक दिन लखपत में कौतूहल का विषय बना एक अजीब सा दिखने वाला
यात्री. वो यात्री ना तो अरब देश से आया था और ना ही यवन-देश से. कद में बेहद छोटा
लेकिन वर्ण एकदम गोरा था. उसकी नाक थोड़ी चपटी और आंखे बेंहद छोटी थीं, जिसके चलते
वो सबसे अलग लगता था. लोगों ने बताया कि वो हिमालय से परे किसी देश से बौद्ध-धर्म
का ज्ञान लेने के उद्देश्य से यहां आया है. कच्छ के बुद्धजीवियों ने बताया कि वो
यात्री मंगोल-प्रजाति का है. इस प्रजाति के कुछ कबीले भारतवर्ष के उत्तर-पूर्वी
इलाकों में रहतें हैं. महाभारत काव्य में इसका जिक्र आता है कि इन कबीलों में से
एक की बेटी से अर्जुन ने शादी की थी.
“बाबा, सुना है
हिमालय-पर्वत की दूसरी तरफ से एक अजीब सा दिखने वाला यात्री यहां घूमने आया है”, एक व्यापारी ने साधु
से पूछा.
“हां...वो मंगोलियाई यात्री
चीन-देश से आया है. ह्वेन त्सांग (ह्वेनसांग) नाम का वो यात्री बौद्ध-धर्म के जनक महात्मा बुद्ध
से जुड़े स्थानों का भ्रमण करके आया है. उन तीर्थ-स्थलों से जुड़े साहित्य को जुटा
रहा है, साथ-साथ वो हिंदुस्तान के कोने-कोने में बने मठों की यात्रा भी कर रहा है”, साधु ने जवाब दिया.
लखपत-किले में आधिकारिक-प्रतिष्ठानों और बाजार से दूर एक साधु कई
सालों से अपनी धुनी लगाएं रहता था. लोग कहते थे कि वो पूरा भारतवर्ष घूमकर
आया है. बेहद ज्ञानी और कई धर्मों की जानकारी थी उस बाबा को. शाम के समय सभी
दुकानदार, व्यापारी, सौदागर, सरकारी अधिकारी और सैनिक खाली समय काटने के लिए उसी
साधु-बाबा की धुनी के पास आकर बैठ जाते और चिलम के एक-दो कश लगाकर अपनी थकान
मिटाते. थकान मिटाने के साथ-साथ वहां सभी एक दूसरे से विचार-विर्मश भी करते. दूसरे
देशों से आए सौदागर नई-नई बातें वहां आकर साझा करते. इस तरह साधु-बाबा की वो धुनी
बौद्धिक-विकास का अड्डा भी बन गई थी.
“सुना है वो
उत्तर-देश के प्रतापी राजा हर्षवर्द्धन के दरबार में भी काफी समय बीताकर आया है”, एक दुकानदार ने
साधु-महाराज से उत्तरनुमा प्रश्न किया.
साधु ने हामीं भरी, “हां, वो कई साल महाराजा हर्ष के दरबार में भी रहकर आया है.”
महाराज, लोग कहते हैं कि उस चीनी यात्री ने हर्षवर्द्धन का धर्म बदलवा
दिया है. जैसा सुनते हैं कि चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने आखिरी समय में किया था ! अब हर्षवर्द्धन
बौद्ध धर्म के अनुयायि हो गए हैं ?, दूसरे सैनिक ने
पूछा.
नहीं... ऐसा नहीं है. महाराजा हर्ष अभी भी सनातन-धर्म के अनुयायि हैं, लेकिन
वे बौद्ध-धर्म के भी प्रशंसक हैं, इसीलिए लोग उन्हे कभी-कभी बौद्ध धर्म को मानने
वाला समझ लेतें हैं, साधु ने जवाब दिया.
बाबा, सुना है वो कई दिनतक कोटेश्वर में भी रहा है, एक ने कहा.
हां, बाबा ने अनुमोदन किया.
लखपत-किले से करीब 20 मील की दुरी पर था भगवान
शिव का कोटेश्वर मंदिर. कोटेश्वर के आस-पास बौद्धों के कई मठ थे. उन मठों में रहने
वाले लामाओं से उस मंगोलियाई यात्री ने कई दिनों तक मुलाकात की थी. वो कोटेश्वर के
आस-पास बने बंदरगाहों जिनमें लखपत भी शामिल था, घूमकर गया था.
लोग चर्चा करते थे
कि वो विदेशी यात्री जिसका नाम ह्वेनसांग था,
हमेशा अपने साथ कलम और पत्ते रखता था. जो भी कोई नई चीज वो वहां देखता, तुरंत उसे
कलम के जरिए अपने झोले में रखे पत्तों पर लिखने बैठ जाता. जैसे ही लिखने का काम
पूरा होता, वो उन पत्तों को एक बार फिर झोले में बड़े करीने से रख लेता.

कोटेश्वर मंदिर के बारे में कई
किवदिंतयां मशहूर थी. कहते हैं कि एक बार लंका के राजा रावण ने भगवान शिव की
हिमालय में जाकर इतनी भक्ति की कि भगवान ने उससे प्रसन्न होकर मनचाही मुराद मांगने
के लिए कहा. रावण ने कहा कि वो चाहता कि वो भगवान शिव का सबसे बड़ा भक्त कहलाये और
हमेशा भगवान शिव की पूजा-अर्चना में लीन रहे. भगवान शिव ने कहा कि ऐसा ही होगा और
उसे भेंट स्वरुप एक शिवलिंग भी दे दिया. भोले-शंकर ने कहा कि इस शिवलिंग को जहां
तुम्हारा वास है वहां स्थापित कर लेना और मेरी पूजा करना. लेकिन शर्त ये है कि
तुम्हे हिमालय से लेकर लंका तक इस शिवलिंग को बीच रास्ते में कहीं पर भी धरती पर
नहीं रखना. अगर ऐसा किया तो ये शिवलिंग वहीं स्थापित हो जायेगा.
कहते हैं कि
रावण हिमालय से राजमार्ग के रास्ते लखपत बंदरगाह पहुंचा और यहीं से समुद्र के
रास्ते लंका जाने पर विचार करने लगा. लेकिन स्वर्ग में बैठें देवता ये कदापि नहीं
चाहते थे कि राक्षस भगवान शिव का सबसे बड़ा भक्त कहलाया जाये. सो उन्होनें छल से
रावण का शिवलिंग धरती पर रखने की योजना तैयार की. योजना के तहत एक गाय को लखपत के
करीब समुद्री के किनारे दलदल में फंसा दिया. गाय दलदल से बाहर आने के लिए छटपटा
रही थी, लेकिन उसकी सारी कोशिशे बेकार साबित हो रही थी.
गाय जितना उस दलदल से बाहर आने की कोशिश कर रही थी, वो उतना ही अंदर
धंसती जा रही थी. जैसे ही रावण ने देखा कि गाय दलदल में फंसी हुई है उसे दया आ गई.
वो गाय को बाहर निकालने की कोशिश करने लगा. लेकिन हाथ में शिवलिंग होने के चलते वो
गाय को बाहर नहीं निकाल पाया. रावण राक्षस जाति का होने के बावजूद गौ-हत्या का पाप
अपने सिर पर नहीं लेना चाहता था. सो उसने उसी दलदल में ही भगवान शिव का दिया हुआ
अनमोल शिवलिंग वहां रख दिया और गाय को किसी तरह से बाहर निकला दिया. गौ-माता को
बचाने के बाद उसने जैसे ही शिवलिंग को उठाने की कोशिश की, वो नहीं उठा पाया.
क्योंकि शिवलिंग अब समुद्र के किनारे उसी दलदल में स्थापित हो गया था. देवता अपनी
चाल में कामयाब हो चुके थे. उसी दिन से उसी शिवलिंग की पूजा होने लगी. पास में ही
कोट यानि किला होने के चलते इस मंदिर को नाम दिया गया ‘कोटेश्वर मंदिर.’
जब से रावण ने भगवान शिव का भेंट दिया शिवलिंग कोटेश्वर में स्थापित
किया था, तब से शैव-मत के अनुयायि बड़ी तादाद में तीर्थ-यात्रा के लिए यहां आने
लगे. कुछ शैव अनुयायियों ने तो अपना स्थायी डेरा यहां बना लिया था. धीरे-धीरे
कोटेश्वर की पहचान एक बड़े शहर के तौर पर होने लगी.
कोटेश्वर मंदिर के करीब ही पवित्र सरस्वती नदी बहती
थी. समुद्र में मिलने से पहले ही कोटेश्वर मंदिर के करीब ही सरस्वती नदी का पवित्र
जल एक सरोवर में इकठ्ठा किया जाता था. लेकिन जब सरस्वती नदी सूख गई तो सरोवर का जल
भी सूख गया. लेकिन ना जाने क्यों इस सरोवर का नाम नारायण-सरोवर रख दिया गया. जानकारों का मानना था कि जब शैव और वैष्णव
धर्मों को मिलन हुआ था, तबसे कोटेश्वर मंदिर के करीब ही बने सरोवर का नाम
नारायण-सरोवर रख दिया गया. ये शायद भगवान शिव और विष्णु की निकटता दर्शाने के लिए
किया गया था. पुराणों में तो ये तक कहा गया है कि जिस तरह भगवान शिव के साथ
मानसरोवर झील का महत्व है और पुष्कर-सरोवर का भगवान ब्रह्मा से ठीक वैसे ही
नारायण-सरोवर का भगवान विष्णु से.
ह्वेनसांग नाम
के उस चीनी यात्री ने कोटेश्वर मंदिर के भी दर्शन किए और उसकी कहानी भी अपने किताब
में लिख ली. मंदिर के करीब बने बंदरगाहों के बारे में भी वहां नियुक्त अधिकारियों,
सिपहसलारों और ग्रामीणों से लंबी बातचीत की. इन चर्चाओं के दौरान उसे पता चला कि
लखपत दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा बंदरगाह है.
लेकिन लखपत, कच्छ और
गुर्जर-प्रदेश की शानो-शौकत, व्यापारियों के साथ-साथ अरब में हाल ही में स्थापित
हुई इस्लामिक सत्ता के कलीफाओं के कान में भी पड़ रही थी. ऐसे में जब एक दिन एक सिंध
प्रांत का व्यापारी किले में पहुंचा तो वो बेहद घबराया हुआ था. कस्टम विभाग में
अपना कर अदा कर वो सीधे बाजार से धुनी रमाये साधु की मंडली के पास जा
पहुंचा. हमेशा की तरह साधु के पास पहले से ही कई दुकानदार, व्यापारी और कस्टम
विभाग के कुछ अधिकारी और सैनिक बैठे थे. शाम के वक्त सभी अपनी थकान साधु की चिलम
से खत्म करने की कोशिश कर रहे थे. सो सिंध का वो सौदागर भी उनके महफिल में शामिल
हो गया.
साधु ने सिंध के उस सौदागर
की बैचेनी को भांपते हुए उससे सवाल किया, “मान्यवर इतना परेशान
क्यों दिख रहे हैं?” उसने जो कुछ बताया उससे साधु के साथ-साथ वहां मौजूद दूसरे व्यापारी
और दुकानदार भी भौचके रहे गए.
“हिंदुकुश पर्वत की पश्चिम
दिशा से एक आक्रमणकारी आया है. उसने सिंध प्रांत के राजा दाहिर को हराकर अपना
कब्जा जमा लिया है. राजा उस आक्रमण को विफल करने के प्रयास में मौत के मुंह में समा गए हैं. ”, सिंध के उस बड़े
सौदागर ने वार्तालाप कर रहे लोगों को बताया.
“अरे भाई तो इसमें
इतना परेशान होने की क्या बात है?”, वहां मौजूद एक सैनिक ने अलसाई आवाज में कहा, “राजाओं का तो काम ही
है युद्ध करना और आक्रमणकारियों को मुंह तोड़ जवाब देना या फिर हार का सामना करना.”
सिंध से आए उस बड़े व्यापारी ने समझाते हुए अपनी बात जारी रखी, “...लेकिन ये पहली
बार ऐसा हुआ है कि कोई आक्रमणकारी हिंदुकुश पर्वत श्रेंखला को पार करके आया
हिंदुस्तान आया है. दूसरा ये कि सुनने में आया है कि हिंदुकुश के पश्चिम में जो
अरब-देश नाम का एक बड़ा सा मरुस्थल है वहां एक नए धर्म का जन्म हुआ है. उस धर्म को
मानने वाले तलवार की नोंक पर जबरदस्ती धर्मातांरण कराते हैं. अगर कोई करने से मना
करता है तो उसका धड़ सर से अलग कर दिया जाता है. और ये आक्रमणकारी उसी धर्म का
अनुयायी है.”
क्या नाम है उस आक्रंती का, वहां मौजूद एक व्यापारी ने पूछा ?
“मोहम्मद बिन कासिम नाम है उस
आक्रमणकारी का”, सिंध से आये उस
व्यापारी ने खुलासा किया.
ऐसे में साधु ने कहा, “हिंदुस्तान में कभी किसी धर्म ने जबरन परिवर्तन
पर जोर नहीं दिया है. आज से करीब एक हजार साल पहले जब महात्मा बुद्ध ने सनातन-धर्म
का विरोध किया था तो वो बेहद ही शांति और न्याय-संगत तरीके से किया था जिसके बाद
ही बौद्ध-धर्म की स्थापना हुई थी. आज, बौद्ध-धर्म हिंदुस्तान से हजारों
मील दूर तक फैल गया है.”
“बिल्कुल ठीक कहा
मित्रवर, यहां तक की जैन और चारवक जैसों धर्मों
ने भी बेहद ही अंहिसक तरीके से अपने धर्मों का विस्तार किया”, वहां मौजूद एक
सरकारी अधिकारी ने अपना मत व्यक्त किया.
तो बंधुवर क्या कासिम ने सिंध प्रांत के सभी लोगों का धर्म-परिवर्तन
कर दिया है?,
भीड़ में मौजूद किसी
ने कहा.
नहीं, सौदागर ने जवाब दिया.
तो फिर परेशानी की क्या बात है, एक दुकानदार ने फिर पूछा.
“मुश्किल ये है कि
कासिम ने आदेश दिया है कि अगर कोई इस्लाम धर्म कबूल नहीं करता है तो उसे जजिया
देना पड़ेगा,” सौदागर बोलता जा
रहा था.
जजिया...ये क्या बला है, एक दुकानदार ने पूछा.
“भईया, ये बला ही है.
जजिया एक तरह का भारी टैक्स है जो गैर-इस्लाम धर्म के मानने वालों को राजा को देना
पड़ता है. नहीं दिया तो सर धड़ से अलग...और जो इस्लाम धर्म
कबूल कर लेता है उसे 'मुसलमान' या 'मुस्लिम' बुलाया जाता है”, सौदागर ने खुलासा
किया.
अच्छा, भीड़ से एक साथ आवाज आईं.
“बंधुवर, और भी कर्ईं
परेशानी हैं. अबतक माना जाता था कि हिंदुकुश पर्वेतों को कोई पार करके नहीं आ सकता
है, तो दूसरे आक्रमणकारियों के लिए वो रास्ता खुल गया है. दूसरा ये कि इस्लाम में
धर्म-गुरु ही राजा होता है, जिसे ‘कलीफा’ के नाम से जाना जाता है, सिंध से आया
सौदागर लगातार मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से उपजी समस्याएं गिनाने में लगा था. वहां बैठे सभी लोग लगातार उत्सुकता-पूर्वक सौदागर की बातें सुन रहे
थे.
“ये कैसा धर्म है भाई, जिसमें राजा ही धर्म का मुखिया है. सनातन-धर्म
हो या फिर बौद्ध या फिर जैन, राजा कभी भी धर्म-कर्म में दखल नहीं देता है. हां ये
बात जरुर है कि रामायण से लेकर महाभारत और सम्राट अशोक के समय में भी राजा के दरबार में
धर्म-गुरु जरुर मौजूद रहते थे, जो राजा को धर्म के बारे में सलाह-मशविरा जरुर देते
थे. लेकिन राजकाज और प्रजा के लालन-पालन में राजा द्वारा धर्म का दखल ना के बराबर
होता था. उसके लिए उसकी प्रजा चाहे किसी भी धर्म, वर्ण और स्थान की हो, भेदभाव
नहीं करता है”,
साधु ने एकबार फिर
वार्तालाप में हिस्सा लेते हुए कहा.
“हां लेकिन सुनते हैं
कि अशोक के वंशजों के बाद जब आर्यव्रत में मिहिरकुल राजा बना था तो उसने जरुर
बौद्ध अनुयायियों का नरसंहार कराया था. वो हिंदु-धर्म को मानने वाला था. लेकिन
उसने भी कभी धर्म का मुखिया बनने की कोशिश नहीं की थी,” एक और शख्स ने चर्चा
में हिस्सा लेना शुरु कर दिया.
मोहम्मद बिन कासिम, आक्रमण, सिंध प्रांत के संकट और इस्लाम पर चर्चा
बढ़ती ही जा रही थी.
“इस्लाम...ये कौन सा
धर्म है...इसमें क्या है जो हमारे देश के धर्मों में नहीं है...यै कैसे अलग है”, एक व्यापारी ने
पूछा.
“इस्लाम धर्म,
मूर्ति-पूजा के खिलाफ है”, सिंध से आए सौदागर ने कहा.
साधु ने बीच में ही काटते हुए बोला, “तो काबा का क्या हुआ ? क्या वो सही-सलामत
है?”
“महाराज ये काबा क्या
है”, किसी ने पूछा.
“काबा अरब-वासियों का
एक पवित्र स्थल है. काले रंगे के उस आयातकार इमारत में मूर्तियां रखीं हुई हैं
जिसकी सभी कबीलाई पूजा करते हैं”, साधु ने बताया.
“बाबा, उसके बारे में
कोई जानकारी नहीं मिली है. लेकिन बताते है कि काबा के शहर मक्का में ही इस्लाम
धर्म की उत्पत्ति हुई है और उसके जनक मुहम्मद पैगंबर उसी शहर के रहने वाले हैं”, सौदागर लगातार
इस्लाम-धर्म के बारे में ज्ञानर्जन देने में लगा था.
“तो इसमें अलग क्या
है, बौद्ध-धर्म में भी मूर्ति पूजा की शुरुआत में मनाही थी. खुद महात्मा बुद्ध ने
मूर्ति-पूजा का विरोध किया था. लेकिन बाद में खुद बौद्ध-धर्म के अनुयायी महात्मा
बुद्ध की मूर्ति बनाकर पूजा करने लगे,” एक दुकानदार ने कहा.
“ फर्क ये है कि
इस्लाम में ना केवल मूर्ति-पूजा का विरोध होता है, मूर्तियों को पत्थर मारे जाते
है, मूर्तियों को तोड़ा जाता हैं”, सिंध प्रांत के सौदागर ने लखपत किले में मौजूद लोगों के उस झुंड को
समझाया.
बाजार की चर्चा अब उत्सकता
से ज्यादा गंभीर होती जा रही थी. थोड़ी देर में सभी चुप हो गए थे. “चलो कोई बात नहीं
देखते हैं लखपत तक कब पहुंचता है वो आक्रमणकारी मोहम्मद-बिन-कासिम और उसका धर्म.
निबटना अच्छे से आता है हमें इन आक्रमणकारियों से,” साधु ने चर्चा को खत्म करते-करते कहा और
वहां से निकल गया. अंधेरा अब अधिक घेरा गया था सो धीरे-धीरे कर सभी लोग अपने-अपने
घर की तरफ निकलने लगे. तभी एक दुकानदार ने सिंध से आए सौदागर से पहुंचा कि वो रात
कहां बिताएगा. सौदागर इससे पहले कुछ बोलता तो दुकानदार ने उसे अपने घर में रात
बिताने का न्यौता दे डाला. सौदागर ने धीरे से हां कहा और उस अंजान दुकानदार के घर
रात बिताने को तैयार हो गया.

कलीफा का हाकिम मोहम्मद
बिन कासिम, सिंध पर आक्रमण करने पहुंच गया था. लेकिन सिंध के हिंदु राजाओं ने उसके
हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया था. बावजूद इसके मक्का-मदीना की सीमाएं अब कबीलाई
अफगान प्रदेश को पार करती हुई हिंदुस्तान तक पहुंच रही थी. यहां तक की कासिम की
सेना की एक टुकड़ी समुद्र के रास्ते देवल-बंदरगाह के रास्ते भी दाहिर से लड़ने
ब्रह्मानाबाद तक पहुंची थी. ब्रह्मनाबाद में ही कासिम और दाहिर की सेनाओं के बीच
निर्णायक युद्ध लड़ा गया था, जिसमें दाहिर की मौत हो गई थी. उसके बाद कासिम ने
दाहिर की राजधानी अहोर में हमला किया और उसके बेटे को मौत के घाट उतारकर दिया.
हजारों सैनिकों की मौत हुई. कासिम ने दाहिर की पत्नी से जबरन अपनी पत्नी बना लिया.
सिंध प्रांत के शहरों में अब अरबी सैनिक आसानी
से देखे जा सकते थे. वे अरबी सैनिक जो कभी लखपत में अरबी व्यापारियों की सुरक्षा
के लिए आते थे, अब वे सिंध के शहरों में कब्जा करने के फिराक में रुक के गए थे.
लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी हिंदु राजाओं का ही बोलबाला था.
अरबी सौदागार और व्यापारी
भी इस प्रदेश की किस्से-कहानियां अपने मरु-देश में जाकर लोगों को सुनाते थे. बताते
थे कि हिंदुओं के मंदिर में बड़े-बड़े खजाने होते हैं, जिनकी रक्षा खुद भगवान करते
हैं. उनके भगवान मूर्ति बनकर खुद मंदिरों की रक्षा करतें हैं.
....तीन सौ साल तक कोट-लखपत में, सिंध से आए व्यापारी मुस्लिम-आक्रंताओं के असफल हमलों के किस्से-कहानियां आकर सुनाते.
और फिर एक दिन वही हुआ
जिसका सभी को डर था. सुनने में आया कि कच्छ से सटे काठियावाड़ प्रदेश में अरब सागर
के किनारे बने भगवान शिव के मंदिर सोमनाथ पर एक क्रूर आक्रमणकारी महमूद गजनी ने
हमला बोल दिया है. सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया. सोमनाथ मंदिर को
ध्वस्त कर दिया गया. शिवलिंग को खंडित कर दिया गया. मंदिर का खजाना लूट लिया गया.
हमले से घबराये बड़ी तादाद में ऐसे हिंदु लखपत पहुंचे जिन्होनें गाज़ी की तलवार से
डरकर अपना धर्म बदल लिया था.
“बाबा, आपने सुना
क्या, एक आक्रमणकारी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला बोल दिया है. पचास हजार लोगों को मौत
के घाट उतार दिया है, पूरा खजाना लूट कर ले गया है” एक व्यापारी ने चुपचाप बैठे लोगों की
चुप्पी तोड़ी.
दूसरे व्यापारी ने महमूद गजनी के आक्रमण की कहानी आगे बढ़ाई, “शिवलिंग को खंडित कर
दिया है. लोग तो यहां तक कह रहें हैं कि वो उस शिवलिंग को अपने साथ अफगान-देश ले
जा रहा है.”
“बाबा आप कुछ बोलते
क्यों नहीं...वो खजाना तो लूट कर ले गया ये तो समझ में आता है लेकिन वो शिवलिंग अपने
साथ क्यों ले गया है,” एक व्यापारी ने बाबा की चुप्पी तोड़ने के लिए एक बार फिर पूछा.
“वो हमलावर के
साथ-साथ एक गाज़ी भी है”, अभी तक चुप बैठे साधु महाराज ने चिलम की एक कश धीरे से लेते हुए कहा.
“गाजी...ये गाजी क्या
होता है”, मंडली में बैंठे
किसी ने पूछा.
“इस्लाम धर्म में
गाज़ी उसे कहा जाता है जो गैर-मुसलमानों को जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन कराता है. ना
करने वाले को मौत के घाट उतार देता है या फिर उन्हे जज़िया-टैक्स देने पर मजबूर
करता है. ऐसे गाज़ी को इस्लाम में इज्जत की निगाहों से देखा जाता है”, बाबा ने समझाया.
एक सैनिक ने सवाल किया, “लेकिन चालुक्य नरेश भूदेव कहां थे...उनके वीर-पुत्र
भीमदेव कहां थे जब ये हमला हुआ...क्या उन्होनें उस गाज़ी को रोकने की कोशिश नहीं
की.”
“राजा तो क्या भगवान
भी ऐसे लोगों की मदद नहीं कर सकते जो कर्म की बजाय पांखड पर विश्वास करते हों. जो
गाज़ी के तलवार का मुकाबला करने के बजाय भगवान शिव की मूर्ति के सामने नतमस्तक
होकर अपनी जान की रक्षा करने के लिए गिड़गिड़ाएं. क्या भगवान शिव कैलाश-पर्वत से
उतरकर उनकी रक्षा करेंगे”, आगबबूला साधु ने कहा.
एक व्यापारी ने बड़े धीमें से कहा, “लेकिन बाबा, प्रजा की रक्षा करने का
दायित्व तो राजा का होता है. जब राजा ही अपनी प्रजा की रक्षा नहीं कर सके तो
बेचारे आमजन के पास भगवान के आगे गिड़गिडाने के अलावा और दूसरा चारा क्या है.
“कदापि नहीं...हर
इंसान को अपनी रक्षा खुद करनी होगी”, साधु ने एकबार फिर
उग्र आवाज में सभी को चेतावनी दी.
“लेकिन बाबा, भगवान
सोमनाथ की चमत्कारिक शक्तियां भी क्या गजनी के खिलाफ कुछ नहीं कर सकीं. लोग तो कहते
थे कि भगवान की मूर्ति चमत्कार के कारण ही हमेशा हवा में लटकी रहती थी”, भीड़ में बैठे एक
दूसरे व्यापारी ने उत्सकुताभरा सवाल किया.
हां-हां...चमत्कार क्यों नहीं हुआ, भीड़ में बैठे सभी लोग फुसफुसाने
लगे.
“अरे मूर्खो, वो कोई
चमत्कार नहीं था, विज्ञान का कमाल था, जिसके चलते मूर्ति हमेशा हवा में लटकी रहती
थी,” साधु ने चिल्लाते
हुए समझाया.
लेकिन बाबा, अब हम क्या करें....सुना है गाज़ी महमूद सोमनाथ को लूटने
के बाद कच्छ और सिंध के रास्ते अपनी देश गज़नी जा रहा है...हमने उसकी तलवार के आगे
अपना धर्म तो बदल लिया है लेकिन हम इस्लाम धर्म की किसी रीति-रिवाज को नहीं मानते” काठियावाड़ से
गाज़ी के डर से भागकर आए एक परिवर्तित-मुस्लिम युवक ने बाबा से पूछा.
करना क्या है अपनी तलवार की
धार तेज करलो. सिर्फ सैनिक या प्रहरी ही नहीं...कच्छ-प्रदेश के सभी लोग चाहे सैनिक
हो या व्यापारी, दुकानदार हो या किसान...सभी को महमूद के हमले का मुंहतोड़ जवाब
देना होगा. ऐसा जवाब कि वो गाज़ी तो याद रखें हीं उसकी आने वाली नस्लें भी याद
रखें. जो लोग तलवार के डर से परिवर्तित हो गए हैं, उनका सनातन धर्म में वापस लौटना
नामुमकिन है, लेकिन वे भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल दें और उस छठी का दूध याद दिला
दें.
ऐसा ही होगा....हम तैयार हैं...हम उस गाज़ी को नहीं छोड़ेंगे...उसने
हमारा धर्म भ्रष्ट किया है...हमारे शंकर भगवान के शिवलिंग को खंडित किया है....हम
नहीं छोड़ेंगे....साधु के पास बैठे सभी लोग एक साथ बोल उठे.
कुछ दिन बाद ही महमूद
गजनी अपनी फौज के साथ कच्छ पहुंच गया. लेकिन इस बार कच्छ के स्थानीय शासकों,
कबीलों और आम लोगों ने महमूद गजनी को नाकों चने चबा दिए. महमूद की फौजों को भारी
नुकसान पहुंचाया. खुद महमूद भी कच्छ के रण में बुरी तरह घायल हो गया. कच्छ में
इतना बड़ा युद्ध हुआ कि समुद्र से सटे इलाकों को कच्छ के ‘रण’ के नाम से पुकारा
जाने लगा. महमूद किसी तरह से जान बचाकर लखपत से सिंध और वहां से गज़नी पहुंच पाया.
फिर खबर आई कि उसने सोमनाथ के मंदिर से लूटे शिवलिंग को खंडित कर गज़नी में तैयार
कराई एक मस्जिद की सीढ़ियों में लगवा दिया है. करीब चार साल बाद अफगान-प्रदेश से
आए एक व्यापारी ने बताया कि गाज़ी महमूद की मौत हो गई है.

महमूद के सोमनाथ पर हमले के
बाद बड़ी तादाद में मुस्लिम अब लखपत पहुंचने लगे. इनमें मुस्लिम सौदागर भी थे, जो
अरबी घोड़ों को यहां बेचने के लिए आते थे. मुस्लिम सौदागरों के साथ-साथ एक दिन
वहां एक चोगा-नुमा कंबल ओढ़े एक फकीर भी आ गया. किसी ने बताया कि वो अरब देश से
आया है. किसी ने सवाल किया कि क्या वो मुस्लिम है ? तो फकीर ने जवाब दिया कि वो ‘सूफी’ है ! किले में ही बाजार
और दफ्तरों से दूर जिस जगह साधु अपनी धुनी लगाए बैठा रहता था, उससे कुछ ही दूरी पर
उस सूफी ने भी वहां अपना डेरा जमा लिया. फिर एक दिन वहां चमत्कार हुआ. जिस जगह
सूफी का डेरा था वहीं एक दिन जमीन से पानी निकलने लगा. समुद्र होने के कारण किले
में पानी कहीं भी निकल आता था. लेकिन ये पानी बाकी पानी से अलग था. ये मीठा पानी
था. जबकि बाकी जगह से समुद्र का खारा पानी ही निकलता था. उस दिन के बाद से ही सूफी
का रुतबा पूरे किले में बढ़ गया. मुसलिमों के साथ-साथ हिंदु परिवार भी अब उसे अदब
से दिखने लगे थे. किले के लोगों ने मिलकर सूफी के डेरे के ठीक सामने पानी के उस
स्रोत की जगह एक कुआं बनवा दिया.
अरब और सिंध प्रांत से आए मुसलिम सौदागरों में से एक था ‘मेमन सौदागर’ का परिवार. मेमन
परिवार ‘अकबनी-महल’ में रहता था.
बाजार के बेहद करीब और कस्टम विभाग के ठीक सामने
बना था अकबनी महल. लखपत किले में सबसे बड़ा घर था मेमन कुनबे का. कभी सिंध से यहां
व्यापार करने आए मेमन यहीं बस गए थे. सबसे अमीर परिवारों में से एक था मेमन कुनबा.
लेकिन जितना बड़ा महल था मेमन परिवार का उतना ही बड़ा दिल भी था. लोगों की बीच
मेमन कुनबे की शानो-शौकत की चर्चा हमेशा बनी रहती थी. और इतनी ही चर्चा में रहता
था अकबनी-महल. कहते थे कि जब मेमन परिवार ने अकबनी महल बनवाना शुरु किया तो उसकी
नींव में सोने के सिक्के रखवाये गए थे. कई दर्जन कमरे थे उस अकबनी महल में.

कभी-कभी अरब और यवन से आने वाले व्यापारी
अपना समुद्री तूफान में अपना सारा सामान गंवा बैठते थे. या फिर इस लायक भी नहीं
रहते थे कि वो कस्टम विभाग को कर भी अदा कर सकें. ऐसे में सबकुछ लूटा चुके उस
व्यापारी को सहारा रहता था ‘अकबनी महल’ का. यहीं वजह थी कि जब भी कभी
कच्छ में सूखा पड़ता या फिर कोई प्राकृतिक आपदा आती, तो अकबनी महल के दरवाजे
गरीबों और पीड़ित परिवारों के लिए खोल दिए जाते थे. ठीक वैसे ही समुद्री तूफान से
कंगले हुए सौदागर और व्यापारी भी अकबनी-महल में शरण लेते थे. यही वजह थी कि सात
समुद्र पास से भी अगर कोई सौदागर व्यापार करने लखपत आता था, तो उसे कोई चिंता नहीं
रहती थी, वो जानता था कि ‘या तो अल्लाहजो आसरा या तो अकबनीजो’.
करीब चार सौ साल ऐसे ही बीत गए जब एक दिन लखपत
में खबर आई कि गुरु नानक देव जी किले में पधारें हैं. वे लखपत बंदरगाह से
मक्का-मदीना जा रहे थे. किले में मौजूद कुछ लंपट फकीरों को जैसे ही ये पता चला कि
गुरु नानक वहां आएं उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा.
गुरु नानक देशभर में घूम-घूमकर
हिंदु और मुसलमानों के बीच पैदा हुई नफरत की खाई को पाटने का काम कर रहे थे.
उन्होनें हिंदु और मुसलिम धर्म की जितनी भी अच्छी-अच्छी शिक्षाएं थी उनको एक जगह
कलमबंद करना शुरु कर दिया था, जिसे
‘गुरु-ग्रन्थ’ के नाम से जाना
जाने लगा था.
लंपट फकीरों ने गुरु
नानक का बड़े ही भक्ति-भाव से आदर सत्कार किया. जाने से पहले उन्होनें गुरु नानक
से प्रार्थना की वे अपनी खड़ाऊं उनकी पास छोड़ जायें ताकि भविष्य में वे उनकी
निशानी के तौर पर अरदास कर सकें. गुरु नानक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और
शांति का पाठ पढ़ाने के लिए अरब-देश की तरफ निकल पड़े जहां पर कभी धर्म के नाम पर
तो कभी सत्ता के लिए कत्ले-आम हो रहा था.
फिर तो कई सूफी फकीर इस
लखपत किले में आकर बस गए. लेकिन 19 वी सदी में कच्छ में एक इतना जबदरस्त भूकंप आया
कि सिंधु नदी तक ने अपना रास्ता बदल लिया. सिंधु नदी अब लखपत किले से कई मील दूर
पश्चिम में बहनी लगी. नतीजा ये हुआ कि लखपत बंदरगाह अब सूख गया था. उसके कई कोस
दूर तक की जमीन जहां कभी सिंधु नदी बहती थी, दलदल और कीचड़ में तब्दील हो गई. अब
कोई जहाज या नौका इस बंदरगाह तक नहीं पहुंच पाती थी.
धीरे-धीरे लखपत किला भी उजाड़
होने लगा. यहां के व्यापारी, दुकानदार और सौदागर अपना सबकुछ बेच-बाच कर यहां से
काठियावाड़ और सिंध प्रांत में जाकर बस गए. सिंधु नदी के बहाव बदलने के कारण कच्छ
इलाका भी बंजर में तब्दील होने लगा. अब वहां चावल की खेती के लिए पर्याप्त जल नहीं
प्राप्त होता था. अब वहां चावल के बजाय कटीलेदार बबूल के पेड़ होने लगे.
व्यापारियों ने भी लखपत के बजाय भरुच बंदरगाह की तरह मुंह कर लिया था. लखपत में
कुछ बचा था तो सिर्फ वो सात किलोमीटर लंबी दीवार और ऊजाड़ हो गए घर, दफ्तर और
हवेलियां.