हमारी सेना की नीतियां और संस्कार, जिन्हे मजबूत सैन्य न्याय-प्रणाली का आधार प्राप्त है, दुनिया में सर्वोत्तम हैं. वे हमें मार्गदर्शन के साथ-साथ सुरक्षा प्रदान करने का काम भी करेंगी
हाल ही में
जम्मू-कश्मीर की दो-तीन घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान अपनी और खींचा है.
वैसे तो जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही दुनिया के पटल पर किसी ना किसी कारण से
चर्चा (विवादों) में रहा है. चाहे वो बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान समर्थित
जेहादियों द्वारा कश्मीर पर आक्रमण हो और या फिर भारतीय सेना द्वारा कठिन
परिस्थितियों मे युद्ध लड़ना रहा हो या फिर नेहरु द्वारा युद्ध-विराम की घोषणा हो
या जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त-राष्ट्र में सुलझाना हो या फिर जनमत संग्रह,
किसी ना किसी कारण से जम्मू-कश्मीर का विवादों से चोली-दामन का साथ रहा है.
लेकिन पिछले 25-30
सालों से आतंक की मार झेल रहे कश्मीर में अब शांति की किरण नजर आने लगी थी. हाल ही
के विधानसभा चुनावों के शुरुआती दौर में बड़ी तादाद में मतदान ने इस थ्योरी को और
बल दिया कि जम्मू-कश्मीर की आवाम अब शांति चाहती है. वहां का युवा हाथों में
एके-47 लिए-लिए थक गया है.
ऐसे में पिछले महीने
यानि 3 नबम्बर को बड़गाम में सेना के जवानों द्वारा कार में जा रहे दो कश्मीरी
युवकों पर ‘गलती’ से फायरिंग करना और उनकी मौत हो जाने से एकबार
फिर घाटी में अशांति फैलने का डर पैदा हो गया. वो बात और है कि घटना के तुरंत बाद
ही सेना के नार्थन कमांड (जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य आता है) के जीओसी
लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा द्वारा गलती स्वीकार करने के चलते मामला तूल नहीं
पकड़ा. लेकिन इस घटना से एक बार फिर राज्य में लागू आर्म्ड फॉर्स स्पेशल पॉवर (आफ्सपा) एक्ट को हटाने की मांग पकड़ने लगी.
इस एनकाउंटर के बाद,
पहले तो सोशल मीडिया और फिर कुछ अखबारों में ये प्रचार होने लगा कि उरी में सेना
के कैंप पर जब हमला हुआ तो वहां तैनात जवानों ने इसलिए आतंकियों पर देर से फायरिंग
की क्योंकि वे अपने सीनियर अधिकारियों के आदेश का इतंजार कर रहे थे. उन्हे बड़गाम
घटना का डर सताने लगा था, कि बिना अधिकारियों के आदेश के वे गोलियां नहीं चलाएंगे.
हालांकि सेना ने इस तरह के दुष्प्रचार का पुरजोर विरोध किया.
ऐसे में ये एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या ये
पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा फैलाया जा रहा दुष्प्रचार तो नहीं है ? जो किसी तरह से हमारे बहादुर सैनिकों का मनोबल
गिराना चाहते हैं. क्योंकि, भारतीय सेना की रीढ़ हैं ये बहादुर जवान जिनके त्याग, बलिदान और
शहादत के किस्से ना केवल हमारे देश बल्कि दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं. यही वजह है
कि ब्रिटेन जैसा देश भी हमारे सैनिकों (जिन्होने विश्व-युद्ध में हिस्सा लिया था)
के लिए वॉर-मेमोरियल बना रहा है.
लेकिन ये भी सवाल
लाजमी है कि आखिर जनरल हुड्डा ने उस चिठ्ठी में ऐसा क्या लिखा था कि सोशल मीडिया
पर सेना के उच्च-नेतृत्व पर सवालिया निशान लगने लगे. इस पत्र का पूरा मजमून कुछ यूं है....
“ मैं ये पत्र सभी कमांडिग ऑफिसर्स को एक
महत्वपूर्ण मुद्दे पर लिख रहा हूं जो सभी अपनी-अपनी यूनिट तक पहुंचा दें. आज हम
सभी उत्तरी-कमान में ऐसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं जिनसे मुकाबला करना ही हमें ना
केवल पूरे राष्ट्र बल्कि अपनी नजरों में ये बताएगा कि हम अपने आप को किस तरह से
परखते हैं.
बड़ी ही बहादुरी और
बलिदान के बाद हम जम्मू-कश्मीर में छद्म-युद्ध पर काबू कर पाए हैं. लेकिन ये शांति
बड़ी नाजुक है. आज की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा मुश्किल है जब आतंकियों को
ज्यादा से ज्यादा संख्या में मार गिराना ही हमारे कामयाबी का मापदंड था. आज हमें आतंकी
हिंसा पर काबू पाने के साथ-साथ स्थानीय अभिलाषाओं को भी ध्यान में रखना होगा.
हालांकि सिद्धांत में इस को भली-भांति समझते हैं लेकिन हकीकत में इस को और अधिक
समझने की जरुरत है. हम जो ऑपरेशन्स करते हैं उन्हे आज के माहौल के अनुरुप ढालने की
जरुरत है. बिडवंना ये है कि हमारे काम का ढंग माहौल के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा
है. मेरी सभी कमांडिग-ऑफिसर्स से दरख्सात है कि वे अधिकारियों और जवानों की ट्रैनिंग
की तरफ ज्यादा से ज्यादा ध्यान दें और समझाएं कि हम किस तरह के वातावरण में काम कर
रहे हैं और हमारी आंचर-संहिता (कॉड-ऑफ-कंडक्ट) क्या हैं.
प्रिंट, इलैक्ट्रोनिक
या फिर सोशल मीडिया, ये सभी ऐसे महत्वपूर्ण औजार हैं जो ना केवल जनमानस के विचारों
को प्रभावित करते हैं बल्कि हमारे अधिकारियों और जवानों की भावनाओं को भी प्रभावित
कर सकते हैं. लेकिन हमें इनका शिकार नहीं बनना हैं. हम इनका मुकाबला अपने बहादुरी से और इससे कर सकते हैं
कि हम जो कर रहे हैं वो पेशेवर तरीके से उचित है और सम्मानजनक है. सेना जम्मू-कश्मीर
में एक काम करने आई है और वो हम बेहतर तरीके से करेंगे. गलतियां हो जाती हैं. मैं
आपको विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मुझे पता है कि आप विषम परिस्थितियों में काम कर
रहे हैं लेकिन किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा. ये संदेश सभी यूनिट्स तक पहुंचना
चाहिए.
हमारी सेना की
नीतियां और संस्कार, जिन्हे मजबूत सैन्य न्याय-प्रणाली का आधार प्राप्त है, दुनिया
में सर्वोत्तम हैं. वे हमें मार्गदर्शन का और बचाने का काम भी करेंगी. आप और आपके
सैनिक एक बेहतरीन काम कर रहे हैं और आप सबका ख्याल मेरे ध्यान में सर्वोपरि है.”
जनरल हुड्डा की इस
चिठ्ठी से दो-तीन बातें साफ हो जाती है. पहला तो ये कि जिस तरह से 90 के दशक में
सेना आंतकियों को चुनचुनकर मारती थी-जैसा कि हाल ही में रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘हैदर’ में दर्शाया गया
था-वो प्रणाली खत्म हो गई है.
दूसरा कश्मीर घाटी
में हालत तेजी से बदल रहे हैं. यानि
अब वहां के लोग अमन-चैन चाहते हैं. ऐसे में
जबतक जरुरत ना हो वहां के लोगों पर गोलियां ना बरसाईं जाएं. लेकिन इसका अर्थ ये
कदापि नहीं हैं कि आतंकियों की गोलियां का जवाब ना दिया जाये. अपनी देश के
स्वाभिमान और अपनी रक्षा से ऊपर कुछ नहीं है.
तीसरा ये कि मीडिया
में (खासतौर से सोशल मीडिया) प्रचारित (दुष्)प्रचार की तरफ ज्यादा ध्यान देने की
जरुरत नहीं है. अपना काम यानि देश की सीमाओं और स्वाभिमान के साथ-साथ जो काम दिया
गया है (जम्मू-कश्मीर में शांति-बहाली) उसे पेशेवर तरीके से पूरा करें.
तीसरा ये कि हमारी
सेना की नीतियां और न्याय-प्रणाली किसी भी जवान के साथ अन्याय नहीं होने देगी.
लेकिन उरी के घटना के बाद सेना को एक नई चुनौती का सामना जरुर करना पड़ रहा है और
वो है सोशल मीडिया. माना जाता है कि भारतीय सेना का प्रचार-तंत्र बहुत मजबूत है.
यहां तक की अमेरिकी सेना की तर्ज पर ही भारतीय सेना में भी एमआई यानि
मिलैट्री-इंटेलीजेंस के अंतर्गत ‘इंर्फोमेशन-वॉरफेयर’ की एक अलग यूनिट काम करती है. कभी
साईकोलोजिकल-ऑपरेशन्स (‘साई-ऑप्स’) के नाम से जाने
वाली ‘आईडब्लू’ यूनिट दुश्मन-देश
और उनकी सेनाओं के साथ-साथ आंतकी संगठनों के मीडिया में दुष्प्रचार को रोकने और
जवाब देने में अहम भूमिका निभाती है. लेकिन अब आईडब्लू यूनिट को सोशल-मीडिया से
दो-दो हाथ करने के लिए भी कमर कसनी होगी.
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