भारत के हाथों शिकस्त खाने के बाद पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने उस वक्त के राष्ट्रपति जिया उल हक को बुर्का पहने की नसीहत देकर उनका मजाक उड़ाया था.
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सियाचिन युद्ध स्मारक:ऑपरेशन मेघदूत के शहीदों को ऋृद्धांजलि |
दुनिया
का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र, सियाचिन
ग्लेशियर 12 महीने
बर्फ की चादर से ढका रहता है. यहां तापमान माइनस 60-70 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता
है यानी हड्डियों को गला देनी वाली कड़ाके की ठंड पड़ती है. 70 किलोमीटर लंबे इस ग्लेशियर के एक तरफ
है भारत का कट्टर दुश्मन पाकिस्तान जिससे भारत के चार-चार युद्ध हो चुके हैं और
लगातार प्रॉक्सी वॉर यानि छद्दम-युद्ध का सामना कर रहा है. तो दूसरी तरफ है चीन
जिसके साथ 1962 में भारत युद्ध लड़ चुका
है। सियाचिन को दुनिया क सबसे ऊंचा रणक्षेत्र तो माना जाता ही है, सबसे दुर्गम, खतरनाक और जलवायु के प्रतिकूल इलाका भी
माना जाता है. इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हमारे सैनिक दिन-रात, बारह महीने
यहां डटे रहते हैं. यहां पर तैनात सैनिकों की यूनिफार्म सफेद होती है,
विशेष प्रकार का काला चश्मा और खास सफेद रंग के ही बूट
होते हैं। इसलिए यहां तैनात सैनिकों को 'सफेद-सिपाही' या फिर 'हिम-योद्धा' भी कहा जाता है.
भारतीय
सेना ने 13 अप्रैल 2015 का दिन 'सियाचिन दिवस' के रूप में मनाया. 1984 में आज ही के दिन यानी 13 अप्रैल 1984 को भारतीय सेना ने
सियाचिन पर अपना
अधिकार जमाने के लिए सफलता पूर्वक 'ऑपरेशन
मेघदूत' लांच किया था. इस
मौके पर सियाचिन बेस कैंप स्थित वाॅर मेमोरियल में सेना के अधिकारियों और जवानों ने
ऑपरेशन मेघदूत
में शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित की. इस अवसर पर मुख्य अतिथि थे सेना की
इंफैन्ट्री डिवीजन के डीजी, लेफ्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णीं. 1984 में ऑपरेशन मेघदूत संजय कुलकर्णीं के नेतृत्व में ही लांच किया गया था। उस वक्त वे
कैप्टन के पद पर थे और कंपनी कमांडर होने के नाते सियाचिन पर सबसे पहले
पहुंचे थे.
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फतह: सियाचिन की एक चोटी पर हिम-योद्धा |
दुनिया
के सबसे लंबे चले अभियानों में से एक है ऑपरेशन मेघदूत. ये ऑपरेशन 1984 से 2002 तक चला यानी पूरे 18 साल तक भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सियाचिन के लिए एक
दूसरे के सामने डटी रहीं. आखिरकार जीत भारत की हुई. इस अभियान में भारत के
करीब 1000 हजार जवानों शहीद हो
गए थे.
इस अभियान में अगर किसी जवान की प्रतिकूल जलवायु या फिर क्रेविस (ग्लेशियर की छोटी लेकिन गहरी
खाईयों) में गिर कर मौत हो गई तो उसे भी शहीद का दर्जा दिया गया.
दरअसल,
1984 में सेना को इस बात
की खबर लगी कि पाकिस्तानी सेना सियाचिन पर कब्जा करने के लिए कूच
कर रही है--उससे पहले तक अपने ठंडे जलवायु और 12 महीने बर्फ के कारण ये ग्लेशियर वीरान
रहता था--वैसे ही भारतीय सेना ने भी इस क्षेत्र की तरफ कूच कर दिया. हालांकि, पाकिस्तानी सेना ने पहले चढ़ना शुरू कर
दिया था, लेकिन भारतीय सैनिकों ने बाजी मार
ली और दुनिया के सबसे ऊंचे दर्रों पर अपना कब्जा जमा लिया. इस अभियान को भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन मेघदूत' नाम दिया.
ऑपरेशन
मेघदूत के दौरान पाकिस्तानी सेना से भारतीय सैनिकों कई बार हिसंक झड़पें हुईं.
जिसमें पाकिस्तान को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. इन्ही एक अभियान
को सफलता पूर्वक अंजाम देने के लिए कैप्टन बाना सिंह को परमवीर चक्र से
नवाजा गया था. और इसी अभियान में भारत के हाथों परास्त होने के बाद पाकिस्तान
की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने उस वक्त के राष्ट्रपति जिया
उल हक को बुर्का पहने की नसीहत देकर उनका मजाक उड़ाया था.
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कैप्टन बाना सिंह: ऑपरेशन मेघदूत के हीरो |
भारत
को पाकिस्तान के नापाक इरादों का पता कभी ना लग पाता अगर हमारी खुफिया एजेंसियों ने समय रहते
अलर्ट न किया होता. दरअसल, पाकिस्तान
ने यूरोप से आर्टिक क्षेत्र यानि उत्तरी-धुव्र के आस-पास
वाले इलाकों में पहने जाने वाले विशेष प्रकार के कपड़ो का एक बड़ा ऑर्डर किया था--उत्तरी-धुव्र का जलवायु भी लगभग
सियाचिन जैसा
है और शायद यही वजह है कि लेह से सियाचिन के रास्ते में एक जगह पड़ती है जिसका नाम
ही है नार्थ-पोलू (नार्थ पोल का अपभ्रंश). खैर सेना इस सूचना से चौकन्ना हो गई
और सियाचिन की तरफ कूच कर दिया. क्योंकि इससे पहले भी भारतीत सेना को
लगाताय सूचना मिल रही थी कि पाकिस्तानी सेना अपने जवानों को
पर्वतरोहियों की आड़ में गुपचुप इस इलाके में घुसपैठ की कोशिश कर रही थी.
ऑपरेशन
मेघदूत के तहत भारतीय सैनिकों को पाकिस्तानी सेना से पहले ना केवल सियाचिन की ऊंची पहाड़ियों
पर पहुंचना था बल्कि इस दुर्गम इलाके में पड़ने वाले तीनों पास यानि
दर्रों--सेला पास, बेलाफोंडला
और ग्योंगला
पास--पर भी अपना अधिकार जमाना था. वो भी ऐसी परिस्थिति में जबकि पाकिस्तान की तरफ से
सियाचिन पहुंचना काफी आसान था और भारत की तरफ से बेहद ही खड़ी और मुश्किल चढ़ाई.
लेकिन भारतीय सैनिकों ने इस असंभव से
लगने वाले ऑपरेशन
को पूरा कर दिखाया और दुनिया की सबसे ऊंची आर्मी-पोस्ट (बाना पोस्ट) यहां पर स्थापित कर दी.
पाकिस्तान सेना को इस अभियान में भारी नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन पाकिस्तान ने इस अभियान में
मारे गए अपने जवानों का आंकड़ा आजतक सार्वजनिक नहीं किया है. माना
जाता है कि ये संख्या काफी ज्यादा है जिसके चलते पाकिस्तानी सेना इस आंकड़े
को छुपाती आ रही है. वर्ष
2003 में पाकिस्तान ने
भारत से युद्धविराम संधि की जिसके बाद से ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच
अब इस इलाके में फायरिंग और गोलाबारी बंद है.
अगर
पाकिस्तानी सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया होता तो पाकिस्तान और चीन की सीमा मिल जाती.
क्योंकि सियाचिन ग्लेशियर के पूर्व में है चीन का
अक्साई-चीन क्षेत्र—1962 युद्ध के बाद चीन
ने अक्साई-चीन का इलाका भारत से छीन लिया था. अगर ऐसा होता तो चीन और पाकिस्तान का
ये गठजोड़
भविष्य में भारत के लिए कभी भी घातक साबित हो सकता था.
सियाचिन विवाद की जड़ में था 1971-72 का शिमला समझौते. इस एग्रीमेंट के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच एलओसी (नियंत्रण रेखा) तो खींच दी गई. लेकिन एनजे-9842 पोस्ट के उत्तर का हिस्सा,सियाचिन क्षेत्र में किसी तरह का कोई बंटवारा नहीं किया गया था. शायद इसीलिए पाकिस्तान लगातार इस इलाके पर कब्जा करने का सपना देखता रहता था जिसे भारतीय सेना के ऑपरेशन मेघदूत ने हमेशा हमेशा के लिए चकनाचूर कर दिया. ऑपरेशन मेघदूत के बाद से सियाचिन में भारत और पाकिस्तान के बीच एजीपीएल यानी एक्चुअल ग्राउंड पोजशिनिंग लाइन खिंच गई है
सियाचिन
में एक जवान की ड्यूटी बेहद ही कठिन और चुनौती-भरी होती है. एक यूनिट (रेजिमेंट) यहां 8-10 महीने ही तैनात रहती है और एक जवान फॉरवर्ड-पोस्ट पर 3-4 महीने
से ज्यादा तैनात नहीं होता. लेकिन इतना समय भी उसके लिए बेहद मुश्किल भरा होता है. ऑक्सीजन
की कमी सबसे बड़ी मुश्किल है. पोस्ट पर पहुंचने के लिए ही बेस कैंप से 15-20 दिन लग जाते हैं. लेह
पहुंचने पर
6 दिन का एक्लेमिटाईजेशन पीरियड (जलवायु के प्रति अपनेआप को ढालना) होता है उसके बाद बेस
कैंप पहुंचते हैं, वहां खास ट्रेनिंग दी जाती है उसके बाद ऊपर फाॅरवर्ड पोस्ट पर
भेजा जाता है.
फाॅरवर्ड
पोस्ट (20-24 हजार
फीट ऊंचाई पर) पर तैनाती से पहले हर एक जवान को सियाचिन बैटल स्कूल में
कड़ी ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है.
पहाड़ पर सीधी खड़ी चढ़ाई, घायल साथी को पीठ पर लेकर पहाड़ पर चढ़ना
और उतरना, शव को लेकर पहाड़ से नीचे
उतरना सिखाया जाता है. क्रैविस में गिरने से बचने के तरीके बताए जाते है. क्रैविस में जवान
गिर जाते हैं उनका सालों-साल तक कोई पता नहीं चल पाता. एक जवान का शव 18
साल बाद मिला था। उसकी पहचान उसकी जेब में रखे आई-कार्ड से
हुई. इतनी
कड़ाके की ठंड में पोस्ट में रहने के लिए सर्ववाइल स्किल सिखाए जाते हैं. भारी बर्फबारी में पोस्ट दब ना जाए, उसके लिए क्या करना है, वो भी सिखाया जाता है. हेलीकाॅप्टर से जब फूड-ड्रॉपिंग
होगी तो क्या क्या
सावधानी बरतनी
चाहिए वो सब भी सिखाया जाता है. फाॅरवर्ड पोस्ट की लाइफ लाइन हैं हेलीकाॅप्टर. सेना और
एयर फोर्स के ये हेलीकाॅप्टर दिन-रात फाॅरवर्ड पोस्ट की हर जरूरत का सामान पहुंचाते हैं.
सबसे नजदीकी एयर स्ट्रिप , थौऐस और बेस कैंप स्थित हेलीपैड से ये हेलीकाॅप्टर ऑपरेट
करते हैं.
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रणकौशल की सीख: सियाचिन बैटल स्कूल |
इतनी
कठिन जिंदगी होने के बावजूद भी यहां सैनिकों के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं होती. बल्कि यहां
पोस्टिंग होने पर गर्व महसूस करते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दीपावली
पर सियाचिन दौरे के बाद से तो सैनिकों का उत्साह कई गुना बढ़ गया
है.
लेकिन इन विषम परिस्थितियों में भी ये जवान, अगर पहाड़ से लगाव, कर्तव्य और मातृभूमि पर जान न्यौछावर करने के लिए यहां बार-बार आने की मिन्नत करते हैं तो, उन्हें इन मुश्किल दिनों से बचाते हैं ओपी बाबा. यहां रहने की शक्ति देते है ओपी बाबा.
सियाचिन
में अगर कोई भी जवान पोस्टिंग के लिए आता है तो वो सबसे पहले ‘ओपी बाबा’ के मंदिर में रिपोर्ट करता है.
फाॅरवर्ड पोस्ट पर जाने से पहले भी रिपोर्ट करता है और नीचे आने
के बाद भी. सियाचिन बेस कैंप में ओपी बाबा का मंदिर है. सेना के
जनरल-कर्नल भी ओपी बाबा की महिमा से अछूते नहीं है. हर कोई यहां आकर उनका आशीर्वाद
लेता है.
सिपाही
ओपी बाबा के बारे में बताया जाता है कि 80 के दशक में वो एक फाॅरवर्ड पोस्ट पर तैनात थे और
वहीं पर रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई थी तब से वे ग्लेशियर
में तैनात भारतीय जवानों की मदद करते हैं। अगर कोई जवान ग्लेशियर में रास्ता
खो जाता है तो ओपी बाबा उसकी मदद करते हैं. जवानों को क्रैविस में गिरने
से आगाह करते है. जवान तो यहां तक मानते हैं कि अगर बर्फीला तूफान (एवलांश)
आने वाला हो तो वे किसी जवान के सपने में आकर पहले ही चौकस कर देते
हैं. इसीलिए सियाचिन में आने वाला हर जवान बिना ओपी बाबा की जय किये बगैर ना
ऊपर जाता है और ना नीचे आते हैं.
सियाचिन
ग्लेशियर में सेना की तैनाती को लेकर पर्यावरणविद् लगातार सवाल खड़े करते आए हैं. उनका
मानना है कि सेना कि तैनाती से वहां का पर्यावरण दूषित हो रहा है. इसलिए सेना
ने सियाचिन में एक साॅलवेज पार्क जहां पर ग्लेशियर में इकठ्ठा हुआ मलबा
हेलीकाॅप्टर या फिर जवान कंधे पर ढोकर लाते हैं. यहां से मलबा अलग अलग कर
लेह भेज
दिया जाता है जो यहां से 203 किलोमीटर दूर है. लेह से सियाचिन का रास्ता दुनिया के सबसे ऊंचे
मोटरमार्ग, खरदूंगला-दर्रे से होकर गुजरता है जिसकी ऊंचाई 18,380
फीट है. रास्ते में पड़ती हैं दो बेहद
ही खूबसूरत घाटी, श्योक और नूब्रा वैली.
अद्भुत रिपोर्ट । जवानो का अदम्य साहसिक कार्य एक ईश्वरीय कार्य । त्वदीयाय कार्याय बद्ध्हा कटीयम, शुभामह सि संदेह तत्पूर्तये ।
ReplyDeleteतस्वीरें भी बहुत अच्छी हैं। कुलमिलाकर सहेजने लायक रिपोर्ट है।
ReplyDeleteतस्वीरें भी बहुत अच्छी हैं। कुलमिलाकर सहेजने लायक रिपोर्ट है।
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