Sunday, September 20, 2015

शौर्यांजलि: 1965 युद्ध के जवानों को सच्ची श्रद्धांजलि

1965 युद्ध के स्वर्ण जंयती वर्ष में जब सरकार और सेना ने इस युद्ध की विजय को धूमधाम से मनाने का फैसला किया तो ना केवल पाकिस्तान बल्कि भारत में भी हैरानी का माहौल था—कुछ लोगों ने तो भारत की खिल्ली भी उड़ाई. ऐसा इसलिए था क्योंकि पिछले 50 सालों में ना तो सरकार और ना ही सेना ने इस (1965) य़ुद्ध को कभी तव्वजों दी थी और ना ही कभी याद किया था. ऐसे में ये फैसला कि इस युद्ध की जीत को स्वर्ण जंयती वर्ष में धूमधाम से मनाया जायेगा, हर किसी के गले से नहीं उतर पा रहा था. 
 
        1962 के चीन युद्ध में पराजय और 1971 में पाकिस्तान पर (पूरी) जीत के बीच में 1965 का पाक-युद्ध हमारे देश में कहीं खोकर रह गया था. अगर इस (1965) युद्ध का लोगों को कुछ याद था तो सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जय जवान जय किसान का नारा और अब्दुल हमीद की ऐतिहासिक जीप. हां लोगों के जेहन में एक बात और कौंधती थी कि अगर 1965 के युद्ध में भारतीय फौज लाहौर तक पहुंच गई थी तो फिर वहां से (बिना कुछ राजनयिक मोल-भाव) के बैरंग वापस क्यों लौट आई थी. कहीं इसमें कुछ पेंच तो नहीं था. आखिर इस युद्ध में पाकिस्तान से हुए (युद्ध-विराम) समझौते के अगले ही दिन ताशकंद में शास्त्रीजी की संदेहास्पद मौत कैसे हुई. क्या वाकई समझौते के दौरान उनपर कोई ऐसा दवाब बनाया गया था कि उनका हार्ट-फेल हो गया ? या कहीं ऐसा तो नहीं कि ताशकंद जाकर उन्हे कोई (दिल को झकझोर देने वाली) सच्चाई पता चली कि उन्हे हार्ट-अटैक पड़ा और मौत हो गई?

             लेकिन इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश किसी ने नहीं की. ऐसे में 1965-युद्ध के शहीदों और वीर सपूतों को स्वर्ण जंयती वर्ष में 50 साल पहले जिस दौरान लड़ाई लड़ी गई थी (यानि अगस्त-सितंबर 1965 में), सच्ची ऋदांजलि देने के लिए राजधानी दिल्ली के राजपथ पर शौर्यांजलि नाम की प्रदर्शनी आयोजित की गई तो सभी को हैरानी के साथ-साथ खुशी भी हुई कि आखिर देर आए दुरुस्त आए.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शौर्यांजलि प्रदर्शनी में दाखिल होते हुए

             साल के शुरुआत में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ कर दिया कि 1965 युद्ध के इतिहास को फिर से लिखा जाए. साथ ही दुनिया को (देशवासियों के साथ-साथ) पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के हौसले और जज्बे की कहानी को बताया जाए. कहा गया कि अब्दुल हमीद और बाकी शहीदों की वीर गाथा को लोगों को एक बार नए सिर से बताया जाए—हालांकि अब्दुल हमीद की कहानी पहले से ही देश के कई इलाकों में स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा है. प्रथम विश्वयुद्ध की 100वी जंयती को मनाने के बाद से सेना के हौंसले पहले से ही बुलंद थे—काफी समय बाद शायद एक (या यूं कहें कि देश को पहला ऐसा) प्रधानमंत्री मिला है जो फौजियों के हितों और सैन्य-विरासत को प्राथमिकता देता है.

              1965 युद्ध की याद में पाकिस्तान हर साल 6 सितंबर को रक्षा दिवस के रुप में मनाता है. पाकिस्तान ये मानता था कि इस युद्ध में पाकिस्तान (जिसकी जंनसंख्या, क्षेत्रफल और सेना काफी कम थी) भारत के आक्रमण को सफलतापूर्वक निष्कृय कर दिया था—हालांकि हकीकत कुछ और थी जैसा कि हम आगे देखेंगे (पढेंगे).

       1965 युद्ध के इतिहास को समझने से पहले उस वक्त के समसमायिक हालतों और दुनिया के भूगोलिक-राजनैतिक नक्शे को समझना बेहद जरुरी है. भारत को चीन से मिली करार हार को अभी मात्र तीन (03) साल ही हुए थे. 1962 युद्ध के बाद से पूरी तरह टूट चुके देश के पहले प्रधानमंत्री और दुनिया के कद्दावर नेता के रुप में जाने जाने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरु का हाल ही में निधन हुआ था. देश की बागडोर एक छोटे कद काठी के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने संभाली थी. वहीं पाकिस्तान में मिलेट्री-शासन की बागडोर जनरल अयूब खां के हाथों में थी. अमेरिका और उसके समर्थित खेमों, सीटो और सेंटों, में शामिल होने के चलते पाकिस्तान को इन देशों से आधुनिक हथियार और तकनीक मिल रही थी. भारत अभी भी गुटनिरपेक्ष देश था, जो हथियारों की होड़ में अभी शामिल नहीं हुआ था. 1962 युद्ध के बाद हालांकि भारत को अमेरिका से कुछ-कुछ हथियार मिलने शुरु जरुर हो गए थे. रशिया से मिग-21 जैसे लडाकू विमान मिलने शुरु हुए थे. लेकिन जैसा कि हाल ही में मौजूदा नौसेना प्रमुख, एडमिरल आर के धवन और थलसेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने 1965 युद्ध का विश्लेषण करते हुए कहा कि भारत तकनीकी रुप से सामरिक-क्षेत्र में उस वक्त पाकिस्तान से कहीं अधिक पिछड़ा हुआ था.लेकिन यही वो युद्ध था जिसने दुनिया को एक नया स्लोगन दिया, मैन बिहाइंड द मशीन यानि मशीन को चलाने वाला कोई और ना ही इंसान होता है. यानि भारतीय सेना के वीर जवानों के आगे पाकिस्तान के उन्नत मेड-इन-अमेरिका, पैटन टैंक ध्वस्त हो गए. कैसे, पढ़ते रहिए आगे.
पाकिस्तानी पैटन टैंक पर खड़े प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री
      युद्ध की शुरुआत वैसे तो अगस्त-सितंबर के महीने में हुई थी, लेकिन पाकिस्तान ने इसका ट्रायल करना बहुंत पहले से प्रारंभ करना शुरु कर दिया था. पाकिस्तान को लगा कि 1962 के चीन युद्ध के बाद भारतीय सेना का मनोबल काफी टूटा हुआ है. ऐसे में उसपर हमला बोलकर ना केवल हराया जाए बल्कि कश्मीर को भी भारत के नक्शे से अलग कर दिया जाए. लेकिन इसके लिए भारत को टेस्ट करना जरुरी था. लिहाजा पाकिस्तान ने भारत के सबसे पश्चिमी छोर गुजरात के रण ऑफ कच्छ में ऑपरेशन डेजर्ट-हॉक लांच किया. अप्रैल-मई 1965 में पाकिस्तान ने रण ऑफ कच्छ में घुसपैठ कर भारत की कई पोस्ट हथिया लीं. इस बॉर्डर पर उस वक्त सीआरपीएफ और (गुजरात) राज्य की पुलिस के जवान तैनात होते थे. जबतक भारत की फौजें वहां तक पहुंचती तबतक बहुत देर हो चुकी थी. लड़ाई की नौबत आने से पहले ही इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के दखल के चलते दोनों देशों में युद्धविराम संधि हो गई. लेकिन जैसा कि शौर्यांजलि के इंचार्ज, मेजर-जनरल ए के सापरा कहते हैं कि इस संधि में पाकिस्तान को काफी फायदा पहुंचा. लिहाजा रण ऑफ कच्छ से उत्साहित पाकिस्तान नेंफुल-स्केल (पूर्ण-कालिक) युद्ध करने का फैसला किया.

             लेकिन पाकिस्तान के युद्ध शुरु करने से पहले भारत ने पाकिस्तान को एक करारी मात दी. करगिल में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कब्जे वाली सबसे उंची चोटी 13620 पर अपना कब्जा जमा लिया. हालांकि संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद भारत ने ये चोटी पाकिस्तान को इस शर्त पर वापस कर दी कि अब पाकिस्तान इस चोटी से भारत के हाईवे नंबर 1ए, जो श्रीनगर को लेह से जोड़ता था, उसपर फायरिंग नहीं करेगा. पिछले करीब एक साल से पाकिस्तानी फौजें इस राजमार्ग पर गुजरने वाले काफिले पर लगातार फायरिंग कर रहीं थी, जिसके चलते ही भारतीय सेना ने करगिल की इस चोटी पर आक्रमण कर अपना कब्जा जमाया था—1971 युद्ध में भारत ने एक बार फिर से 13620 चोटी पर अपना कब्जा जमाया और तभी से करगिल की ये चोटी भारतीय सेना के कब्जे में है.

       करगिल का विवाद अभी खत्म ही हुआ था कि पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्रालटर लांच कर दिया. इसके तहत पाकिस्तानी सेना ने जम्मू-कश्मीर में विद्रोह कराने के मकसद से 25-30 हजार मुजाहिदों (रजाकरों या कबीलाईंयों) को एलओसी (उस वक्त सीएफएल यानि सीजफायर लाइन) पार कराकर भारत में घुसा दिया. ये सभी मुजाहिद पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के रहने वाले थे. पाकिस्तानी सेना ने इन कबीलाईंयों को गुरिल्ला-युद्ध की थोड़ी-बहुत ट्रैनिंग देकर भारत के कश्मीर में भेजा था. जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर की शुरुआत जनवरी के महीने से ही शुरु कर दी थी (1965). इससे साफ हो जाता है कि पाकिस्तान भारत पर हमला करने का प्लान कितने पहले से शुरु कर चुका था. इस ऑपरेशन के तहत 20-25 लोगों की टोली बनाकर जिसका नेतृत्व पाकिस्तानी सेना के अधिकारी करते थे कश्मीर में लांच कर दिया गया. इन रज़ाकरों ने कश्मीर में घुसकर तोड़-फोड़ और बम-धमाके करने शुरु कर दिए. लेकिन जम्मू-कश्मीर के लोगों ने इन विद्रोहियों का साथ नहीं दिया. उसके ऊपर भारतीय सेना ने इन रज़ाकरों को चुन-चुन कर मारना शुरु कर दिया. लिहाजा, पाकिस्तान का जिब्राल्टर वॉर भी खाली चला गया.

      ऑपरेशन जिब्राल्टर भले ही फेल हो गया हो, लेकिन भारतीय सेना ने इन रज़ाकरों को सबक सिखाने और इनके भारत (जम्मू-कश्मीर) में घुसन के रास्ते को पूरी तरह से नेस्तानबूत करने की ठान ली थी. मेजर रंजीत सिंह दयाल के नेतृत्व में भारतीय सेना ने ऑपरेशन बख्शी लांच किया गया—ब्रिगेड कमांडर ब्रिगेडियर बख्शी के नाम पर इस ऑपरेशन को लांच किया गया था. जिसके तहत पाकिस्तान के हाजीपीर दर्रे पर भारतीय सेना को कब्जा करना था. भारत के उरी और पुंछ सेक्टर के बीच में पड़ने वाला ये दर्रा सामरिक दृष्टि से पाकिस्तान के लिए बेहद महत्वपूर्ण था. महज तीन-चार दिनों में (25-28 अगस्त 1965) को भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को मात देकर वहां पर तिरंगा लहराया दिया.
        हाजीपीर में खाई हार से बौखलाए पाकिस्तान ने अपने पूरी इंफेंट्री और टैंकों की मदद से जम्मू के छंब-जोरियांन सेक्टर में हमला बोला. पाकिस्तानी फौज ने छंब में कब्जा जमा लिया. मकसद था अखनूर पर कब्जा कर पूरे जम्मू-कश्मीर को देश के बाकी हिस्से से अलग कर देना. लेकिन पाकिस्तान इसमें कामयाब ना हो सका. लेकिन छंब का बदला भारत ने पंजाब सेक्टर के बॉर्डर को खोल कर किया. पाकिस्तान ने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत अंतरराष्ट्रीय-सीमा का उल्लंघन कर पाकिस्तान में दाखिल हो जायेगा. लेकिन ये पाकिस्तान को पाकिस्तान की भाषा में जवाब देने जैसा था.  अगले 22 दिनों में पंजाब-लाहौर सेक्टर में सबसे भीषण लड़ाई लड़ी गई.
प्रदर्शनी में पाकिस्तान से जीता हुआ पैटन टैंक

         दितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार टैकों की इतनी बड़ी जंग देखी गई. एक ऐसी जंग जिसमें भारतीय सेना ने पाकिस्तान के टैंकों की कब्रगाह तैयार कर दी. दरअसल, 1965 में पाकिस्तान के पास अमेरिका के पैटन टैकों की बड़ी जमात थी. पैटन टैंकों को उस वक्त दुनिया के सबसे आधुनिकतम टैंक में से एक माना जाता था. इसके अलावा पाकिस्तान की आर्मड-ब्रिगेड में अमेरिका के शरमन और शेफी टैंक भी थे. भारत के एमएक्स और (कुछ) शरमन टैंक ही थे. लेकिन इस युद्ध ने दिखा दिया कि जंग हथियारों से नहीं बल्कि इंसानों से जीती जाती है—मैन बिहाइंड द मशीन. ये लड़ाईयां कई अलग-अलग जगह पर लड़ी गई. पंजाब के असल-उत्तर, खेमकरन, चाविंडा, भिकीविंड में भारतीय फौजों ने पाकिस्तानी टैंक और सेना को बुरी तरह मात दी. पाकिस्तानी सैनिक अपने टैंक छोड़ कर भाग खड़े हुए. बताते हैं कि कुछ पाकिस्तानी टैंक तो भारतीय सेना को ऑन स्थिति में मिले. यानि पाकिस्तानी सैनिकों ने भागने से पहले उन्हे बंद तक नहीं किया था—यो यूं कहें कि भारतीय फौज ने उन्हे भागते हुए इतना मौका भी नहीं दिया था.

         असल-उत्तर की लड़ाई की बात हो और हवलदार अब्दुल हमीद (और उनकी ऐतिहासिक जीप) का जिक्र ना हो भला ऐसा हो सकता है. असल-उत्तर में पाकिस्तानी टैंकों ने भारत पर जबरदस्त हमला किया. भारतीय सेना की 4-ग्रेनेडियर का हिस्सा, अब्दुल हमीद अपनी एंटी-टैक आरसीएल गन के साथ अपनी जीप पर तैनात थे. ये गन उनकी जीप पर फिट थी. इसी आरसीएल (रिकोइल-लैस) गन से अब्दुल हमीद ने एक बाद एक तीन पाकिस्तानी टैंकों को धवस्त किया था. लेकिन इस आरसीएल गन की एक खांमी थी. वो ये कि बम दागने के बाद इसमें पीछे से एक बहुत तेज आग-नुमा बड़ी चिंगारी निकलती थी. जिसके चलते दुश्मन को इसकी पोजशन का जल्द पता लग जाता था. लेकिन अब्दुल हमीद एक गोला दागने के बाद तुरंत अपने ड्राइवर की मदद से अपनी जीप की पोजिशन तुरंत बदल देते. जिसके चलते वे दुश्मन के रडार पर जल्दी से नहीं आ पाए. लेकिन चौथे टैंक क उड़ाते वक्त एक गोला उनकी जीप पर आकर गिरा, जिसके चलते वो शहीद हो गए. लेकिन मरते-मरते भी उन्होनें चौथे टैंक पर गोला दागा और नष्ट कर दिया.
परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की जीप

       अब्दुल हमीद की बहादुरी और शहादत से प्रेरणा लेकर पूरी ग्रेनेडियर ने पाकिस्तानी टैंकों पर हमला बोल दिया. नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तानी के करीब 100 टैंक नष्ट हो गए और करीब 300 टैंक पाकिस्तानी सैनिक छोड़ कर भाग गये. जहां पर पाकिस्तानी अपने टैंक छोड़ कर गए. वहां ऐसा लगा कि मानों टैंकों का कब्रिस्तान हो. उस जगह को युद्ध के बाद से पैटन-नगर के नाम से जाना जाने लगा. खुद लाल बहादुर शास्त्री युद्ध-मैदान में पहुंचे और पाकिस्तानी टैंकों के देखकर बोले कि मैने अपनी जिंदगी मे इतनी टूटीं हुई बैलगाड़ियां नहीं देखी जितने (पाकिस्तानी) टैंक यहां देख रहा हूं. उनकी उस फोटो को कौन भूल सकता है जो उन्होने युद्ध-मैदान में पाकिस्तानी पैटन टैंक पर भारतीय सैनिकों के साथ खड़े होकर खिंचवाई थी.

      देश की रक्षा के लिए हंसते-हंसते अपने जान न्यौछावर करने और बहादुरी से दुश्मन के दांत खट्टे करने के लिए अब्दुल हमीद को मरणोपंरात देश के सबसे बड़े वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र से नवाजा गया.

           अब्दुल हमीद की वो ऐतिहासिक जीप और पाकिस्तानी पैटन टैंकों को राजपथ पर आयोजित शौर्यांजलि प्रदर्शनी में रखा गया है. प्रदर्शनी में आने वाले वीवीआईपी और सामान्य जनता के लिए ये दोनों ही आकर्षण का मुख्य केन्द्र है.
         
    
अब्दुल हमीद की बूढ़ी विधवा रसूल बी के साथ पीएम नरेन्द्र मोदी
अब्दुल हमीद पर देश को इतना नाज है इस बात का अंदाजा लगया जा सकता है कि जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शौर्यांजलि प्रद्रर्शनी में पहुंचे तो वे ठीक उसी सोफे पर बैठे जिसपर उस वीर सैनिक (अब्दुल हमीद) की बूढ़ी विधवा रसूल बी बैठी थी. दोनों ने एक साथ एक सोफे पर बैठकर 1965 युद्ध पर भारतीय सेना द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंटरी देखी. प्रदर्शनी में
वॉर-ट्रॉफी (युद्ध विजय-चिन्ह) के रुप में पाकिस्तानी पैटन टैंकों का दिखाया गया है जिनकी नाल आज तक नीचे है और उनपर पाकिस्तानी झंडा भी उल्टा लगाया हुआ है (जो हार की निशानी होती है).

     असल-उत्तर और खेमकरन की लड़ाई के बाद बुलंद हौसलों के साथ भारतीय सेना पाकिस्तानी सीमा में दाखिल हुई और फिर इच्छोगन-कैनाल (नहर) को पार कर लाहौर के बर्की, डोगराई और फिल्लौरा तक पहुंच गई. लाहौर मात्रा 13 किलोमीटर दूर था. लेकिन इससे पहले की भारतीय सैनिक लाहौर तक पहुंचते, पाकिस्तान युद्ध-विराम के लिए तैयार हो गया. 22 सितंबर 1965 को युद्ध समाप्त हो गया. पिछले 50 सालों से ये सवाल सभी के जेहन में कौंधता है कि जब भारत की सेना लाहौर तक पहुंचने वाली थी, तो भारत युद्धविराम के लिए क्यों तैयार हो गया. इसका जवाब, हाल ही में 1965 युद्ध पर हुए एक सेमिनार में उपराष्ट्रपति, हामिद अंसारी ने दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पर लिखी गई एक किताब का जिक्र करते हुए हामिद अंसारी ने कहा कि युद्ध के वक्त शास्त्रीजी ने तीनों सेनाओं के प्रमुखों को हिदायत दी थी, कि पाकिस्तान की उतनी ही जमीन पर कब्जा किया जाए जितनी हमें जरुरत हो (युद्धविराम समझौते के दौरान) , क्योंकि अगर लड़ाई का फैसला संतोषजनक हुआ तो हम उनकी (पाकिस्तान) जमीन वापस कर देंगे. शास्त्रीजी अपनी सैन्य-विरासत को ही आगे बढ़ा रहे थे, वो विरासत जिसमें भारत के किसी भी शासक ने बिना कारणों से ना तो दूसरे देश पर हमला किया और ना ही दूसरे देश की जमीन पर कब्जा किया. शास्त्रीजी के इस हिदायत से साफ हो जाता है कि भारत का मकसद पाकिस्तान पर ना तो हमला करने का था और ना ही कब्जा करने का. भारत सिर्फ पाकिस्तान को दिखाना चाहता था कि अगर नहीं सुधरे तो उसके साथ कुछ भी हो सकता है. अपना मकसद कामयाब (पाकिस्तान की हार) होने पर भारत ने लाहौर इलाके से अपनी फौजें वापस बुला ली.

      
लाहौर के बर्की थाने का मॉडन
इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान का करीब 1920 वर्ग किलोमीटर का इलाका जीत लिया था. जबकि पाकिस्तानी फौजें महज 450 वर्ग किलोमीटर के इलाके में ही कब्जा कर पाई. भारत ने पाकिस्तान के 400-450 टैंकों को नष्ट कर दिया (या जीत लिए) जबकि पाकिस्तान भारत के महज 97 टैंक ही नष्ट कर पाया. साफ है कि पाकिस्तान को नुकसान ज्यादा हुआ. सैन्य-परिदृश्य में उसी देश को विजय माना जाता है जो ज्यादा क्षेत्र पर कब्जा करता है. ऐसे में किसी को इस बात पर संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान का हरा कर जीत हासिल की थी. इस युद्ध में भारत के करीब ढाई हजार (2500) वीर सिपाहियों ने अपने जान देश पर कुर्बान की. लेकिन पाकिस्तान ने कभी अपना आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया (जैसा कि उसने हरेक युद्ध में किया है).

      यहां भारतीय वायुसेना के इस युद्ध में योगदान को कदापि नहीं नकारा जा सकता है. हालांकि पाकिस्तानी वायुसेना ने युद्ध के शुरूआत में भारत के कई एयर फोर्स बेस (हलवारा, आदमपुर, अंबाला इत्यादि) पर बमबारी कर तहस-नहस कर दिया था, लेकिन शुरुआती झटकों से भारतीय वायुसेना ना केवल तुरंत ऊबर गई बल्कि पाकिस्तान के अत्याधुनिक फाइटर-प्लेन्स का जबरदस्त धूल चटाई. इस युद्ध में नौसेना का ज्यादा काम नहीं था. हालांकि युद्ध के शुरुआत में पाकिस्तानी नौसेना ने एक रात चुपचाप आकर गुजरात के द्वारका में हमला जरुर बोला था. लेकिन उस हमले में भारत की एक गाय और रड़ार को नुकसान पहुंचने के अलावा कोई ज्यादा क्षति नहीं हुई थी. लेकिन इस युद्ध से भारतीय नौसेना ने एक बड़ी सीख ली और 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को ऐसा छटी का दूध पिलाया जो पाकिस्तान आजतक याद रखता है.

     शौर्याजंलि प्रदर्शनी के बहाने 1965 युद्ध के स्वर्ण जंयती वर्ष में उन वीर सैनिकों को याद करने के अलावा तत्कालीन राजनैतिक-नेतृत्व (शास्त्रीजी, तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्ण, तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई बी चव्हाण और गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा) के सराहना करने की जरुरत है जो राजनैतिक कारणों से कभी देश में सुर्खियां नहीं बटोर पाए.

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