Sunday, March 8, 2015

प्रथम विश्वयुद्ध: अमेरिकी हथियार, अंग्रेज अफसर और हिंदुस्तानी जवान


कहते हैं किसी सेना में अगर अंग्रेज अफसर हो,अमेरिकी हथियार हों  और हिंदुस्तानी सैनिक हों तो उस सेना को युद्ध के मैदान में हराना नामुमिकन है.
वीरगाथा: साथी अंग्रेज अफसरों के साथ हिंदु्स्तानी जवान
 प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में भारतीय सैनिकों ने एक अहम भूमिका निभाई थी। इस 'महायुद्ध' में ब्रिटिश सेना की तरफ से कुल 15 लाख भारतीय सैनिकों ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रमुख लड़ाईयों में हिस्सा लिया था। ना केवल हिस्सा लिया बल्कि मित्र-देशों की जीत में अह्म भूमिका निभाई थी। पांच साल तक चले इस 'ग्रेट-वॉर' में करीब 75 हजार भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। 60 हजार से ज्यादा घायल हुए या अपंग हो गए थे। बड़ी तादाद में भारतीय सैनिक गायब हो गए थे। विश्वयुद्ध के सौ साल पूरे होने के मौके पर भारतीय सेना इन्ही वीर सैनिकों के बलिदान और साहस को शताब्दी समारोह के तौर पर याद करना चाहती है। क्योंकि ये सैनिक भले ही किसी दूसरे देश (ब्रिटेन) के लिए, किसी दूसरे देश (फ्रांस, बेल्जियम, ईस्ट अफ्रीका, मेसोपेटामिया, चीन) में जाकर लड़ थे, लेकिन उन्होनें एक वीर सैनिक का फर्ज पूरा किया था।

         
ब्रिटेन और दूसरेमित्र-देशों ने शताब्दी-वर्ष को पिछले साल (2014) से ही मनाना शुरू कर दिया था। लेकिन शुरूआत में भारतीय सेना और सरकार इस हिचकिचाहट में थी कि अगर भारत में इस जीत का जश्न मनाया गया तो ऐसा ना लगे कि हम अंग्रेजों की जीत को मना रहे हो। जो भारत की राष्ट्रवादी सोच के खिलाफ थी। क्योंकि जब ये महायुद्ध लड़ा गया था तो उस वक्त भारत पर अंग्रेजी-शासन था।
     लेकिन जब भारतीय सेना ने नई (मोदी) सरकार के सामने शताब्दी-वर्ष मनाने का प्रस्ताव रखा तो इसके लिए हरी झंडी मिल गई। भारतीय सेना इस युद्ध कोमित्र-देशोंकी जीत के तौर पर नहीं बल्कि भारतीय सैनिकों की इस युद्ध में अहम भूमिका के तौर पर मना रही है।
        वैसे तो प्रथम विश्वयुद्ध के कई कारण थे, जिनमें ब्रिटेन की दुनिया के एक बड़े हिस्से में हूकुमत (या साम्राज्यवाद), ब्रिटिश-नौसेना का समंदर पर दबदबा, जर्मनी की ब्रिटेन से बढ़ती जलन (दुश्मनी) शामिल थे. लेकिन युद्ध का त्वरित कारण बना आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के राजकुमार (वारिस) की सर्बिया के एक नौजवान द्वारा बोस्निया में हत्या. इस हत्या से गुस्साएं आस्ट्रिया ने सर्बिया पर हमला बोल दिया. जर्मनी ने इस य़ुद्ध में आस्ट्रिया का साथ दिया, वहीं रशिया जर्मनी के खिलाफ हो गया. जब फ्रांस ने जर्मनी का विरोध किया तो रशिया और जर्मनी एक साथ हो गए. ब्रिटेन को युद्ध में इसलिए कूदना पड़ा क्योंकि जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया था. इटली ने जर्मनी का साथ दिया.
     इस तरह से एक तरफ हो गए ब्रिटेन, फ्रांस और रशिया (ट्रिपल एनटन्टैटे यानि त्रिपक्षीय समझौता) जिन्हे मित्र-देशोंया 'सहयोगी-देशों' के नाम से जाना गया और दूसरी तरफ थे जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी और इटली, जिन्हे 'सेन्ट्रल-पॉवरर्स' (तीनों ही देश यूरोप के बीच में स्थित थे) के नाम से जाना गया. ये दोनों गठबंधन हीं सैन्य-गठजोड़ थे. युद्ध के बीच में अमेरिका ने भी मित्र-देशों का साथ दिया. अमेरिका के हथियारों ने भी खासतौर से पहली बार अपना जौहर इसी महायुद्ध में दिखाया.
      विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो जर्मनी का पलड़ा भारी दिखाई देने लगा. जर्मनी के हथियार ब्रिटेन और फ्रांस के हथियारों से बीस साबित हुए. फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा होने लगा. ब्रिटेन और फ्रांस की सेना भी कम पड़ने लगी. ये देखते हुए जल्दबाजी में ब्रिटेन ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरु कर दी. पूरे युद्ध के दौरान ब्रिटिश-सेना में कुल 15 लाख भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया. इनमें से सबसे ज्यादा पंजाब के जवान शामिल थे. भारतीय-रियासतों ने भी अपने सैनिक अंग्रेजी सेना के साथ लड़ने के लिए यूरोप भेज दिए. भारत की तरफ से कुल 12 केवलरी रेजीमेंटस और 13 इंफैंट्री रेजीमेंटस सहित कई यूनिटों ने युद्ध में अपना योगदान दिया.
यूरोप के एक शहर में मार्च-पॉस्ट करती सिख बटालियन
      एक अनुमान के मुताबिक, भारतीय वालंटियर सेना की संख्या कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के कुल सैनिकों से भी ज्यादा थी. ये सभी देश भी उस वक्त ब्रिटिश अधिराज्य थे और सभी ने अपने देश के सैनिकों को भी अंग्रेजी सेना के साथ लड़ने के लिए भेजे था. माना जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाला हर छठा सैनिक भारतीय था. 
      भारतीय सैनिकों की तैनाती सबसे पहले फ्रांस और बेल्जियम में ही की गई, जहां जर्मन-सेना ने ब्रिटिश और फ्रांस की सेना के पांव उखाड़ दिए थे. लेकिन भारतीय सैनिकों की मैदान में कूदते ही पासा पलट गया. ये सभी भारतीय सैनिक अंग्रेजी अधिकारियों के नेतृत्व में मैदान में लड़ाई लड़ रहे थे. य्प्रेस (बेल्जियम) और न्यूवे-चैपल (फ्रांस) की लड़ाई में भारतीय सैनिक सूती कपड़े की यूनिर्फाम पहने और हाथों में .303 राइफल लेकर ऐसे लड़े की दुश्मनों के दांत खट्टे हो गए. इन दोनों लड़ाईयों में दो भारतीयों की बहादुरी को देखते हुए युद्ध का सबसे बड़ा मेडल विक्टोरिया-क्रॉस दिया गया. ये दोनों बहादुर सैनिक थे गब्बर सिंह नेगी (न्यूवे चैपल की लड़ाई) और खुदादद खान (य्प्रेस की लड़ाई).
  
युद्ध के मैदान में पहली बार जहीरीली गैस का इस्तेमाल
      पहली बार भारतीय सैनिकों ने .303 राइफल के अलावा, मशीनगन, तोप, टैंक, हैंड-ग्रैनेड जैसे हथियारों को इस्तेमाल किया तो लैंड-माइंस, कटीली तारों के युद्ध-मैदान और जहरीली-गैस से भी दो-दो हाथ किए. युद्ध के मैदान में जर्मनी ने जब जहरीली-गैस का इस्तेमाल किया तो भारतीय सैनिकों ने अपने पेशाब में ही गीले किए कपड़ों को अपने मुंह पर बांधकर लड़ाई लड़ी. पहली बार ही भारतीयों ने हवाई युद्ध में भाग लिया. युद्ध के दौरान हवाई जहाज उड़ाने का मौका मिला. हवाई युद्ध में फाईटर-पायलट के तौर पर भाग लेने वाले लेफ्टिनेंट हरदित सिंह मल्लिक, ले. इंद्रा लाल रॉय, ले. एस जी वेलिंगकर और ले. ईरोल चंद्र सेन को आज भी याद किया जाता है.
     
      भारतीय सैनिकों की तैनाती सिर्फ यूरोप में ही नहीं की गई. बेल्जियम और फ्रांस के बाद भारतीय सैनिकों ने टर्की (गैलीपोली की लड़ाई), मैसोपोटामिया (ईराक), ईरान, फिलीस्तीन, पूर्वी अफ्रीका और सुदूर-पूर्व में भी अपनी बहादुरी, निष्ठा और बलिदान का अनूठा परिचय दिया.
बलिदान: विक्टोरिया कॉस गब्बर सिंह नेगी
     भारतीय एकीकृत रक्षा मुख्यालय (सेना) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, प्रथम विश्वयुद्ध में कुल 11 भारतीय सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस मेडल से नवाजा गया था. विश्वयुद्ध में आमने-सामने की लड़ाई में शत्रु को दिखाई बहादुरी के लिए भारतीय सैनिकों को दिया जाने वाला ये सर्वोच्च सैन्य अलंकरण था. इसके अलावा पांच (05) मिलेट्री-कॉस, 973 आईओएम (यानि इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट) तथा 3130 आईडीएसएम (इंडियन डिस्टिंगुइश सर्विस मेडल) सहित कुल 9200 बहादुरी पुरस्कार अकेले भारतीय सैनिकों को दिए गए.
     इस महायुद्ध में कुल 15 लाख भारतीय सैनिकों ने भाग लिया (जो आज की भारतीय सेना के 13 लाख के आंकड़े से भी ज्यादा है). जिनमें से कुल 74,362 शहीद हो गए. मेजर-जनरल ईयान कारडोजो और ऋषि कुमार ने अपनी कॉमिक-बुक इंडिया इन वर्ल्ड वॉर-1 में लिखा है कि प्रथम विश्वयुद्ध में कुल एक लाख सैतीस हजार (1,37,000) भारतीय सैनिक घायल या फिर अपंग हो गए थे. दोनों के मुताबिक, 30 हजार से ज्यादा सैनिकों का तो युद्ध के दौरान कोई अता-पता ही नहीं चला, यानि सेना की फाईलों में वे आजतक गुमशुदा के तौर पर शामिल हैं.
     ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि भारतीय सैनिकों के इस यूरोपीय-युद्ध में लड़ने से क्या हासिल हुआ. एक अनुमान के मुताबिक, इस युद्ध में हमारे हजारों नौजवान तो शहीद हुए ही, अंग्रजों ने हमारे देश की धन-संपदा भी इस युद्ध में झोंक दी. इतिहासकार सुमित सरकार के मुताबिक, इस युद्ध से अंग्रेजों ने भारत में अपना रक्षा-खर्च 300 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था. जिसका मतलब सीधा-सीधा था कि आम भारतीय पर इस युद्ध का भारी बोझ. रोजमर्रा की वस्तुएं मंहगी हो गईं. इस युद्ध के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों पर अतिरिक्त कर और टैक्स लाद दिए. देशवासियों के खाने-पीने का सामान, अनाज और रसद तक युद्ध के मैदानों में पहुंचाया जाने लगा. आयात हुए चीजों के दामों में भारी बढ़ोतरी हो गई. किसानों पर राजस्व-टैक्स बढ़ा दिया गया.
निष्ठा: न्यूवे-चैपल में भारतीय फौज
      लेकिन इन सबमें भी भारतीयों को कहीं ना कहीं फायदा मिला. पहला तो ये कि भारतीयों ने अंग्रेजों हूकुमत की इस मुश्किल घड़ी में आजादी का अवसर ढूंढ लिया. हालांकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खुद भारतीयों को इस युद्ध में भाग लेने के लिए आहवान किया था. 1915 में भारत लौटने से पहले उन्होनें खुद दक्षिण अफ्रीका में युद्ध (बोअर-युद्ध) में घायल हुए सैनिकों के लिए एंबुलेंस चलाई थी, लेकिन भारत आने के बाद ब्रिटिश कर-व्यवस्था के खिलाफ किसानों के लिए खेड़ा और चंपारण जैसे सत्याग्रह चलाए. इन दोनों आंदोलन ने भारत में अंग्रेजी-राज खत्म करने के लिए पहली कील ठोकने का काम किया था. विश्वयुद्ध के दौरान होम-रुल और स्वराज की मांग बढ़ने लगी. जगह-जगह ब्रिटिश-राज के खिलाफ छोटे-छोटे विद्रोह होने लगे. पंजाब में गदर-मूवमेंट ने जगह बना ली. ब्रिटेन के खिलाफ विदेश में रह रहे भारतीयों ने अपनी आवाज उठानी बुलंद करनी शुरु कर दी. इस सबका परिणाम ये हुआ कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने जोर पकड़ लिया और आखिरकार 1947 में भारत को पूर्ण आजादी प्राप्त हो गई.
     सैन्य विरासत के तौर पर अगर इस विश्वयुद्ध को गौर से देखा जाए तो पता चलता है कि भारतीय सेना को प्राप्त हुई (सच्ची) निष्ठा. एक बहु-भाषी, बहु-प्रजातीय निष्ठावान सेना ने पराजय के भय के बगैर अपने फर्ज को अंजाम दिया... यह सच्चे भारतीय मूल्यों का प्रर्दशन था.
समपर्ण: यूरोप के शहरों में हिंदुस्तानी सैेनिकों का स्वागत
     ऐसे में युद्ध के वक्त अपने देश से दूर परदेश में लड़ रहे एक सैनिक द्वारा चिठ्ठी में लिखा गया था,यदि मैं यहां मारा गया तो कौन मुझे याद करेगा ?” यही वजह है कि शताब्दी-वर्ष में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले एक वीर भारतीय सैनिक के ये मनोभाव हमें उसके जीवन की अनकही गाथा सुनने, उसके बहादुरी, बलिदान एवं समर्पण को याद करने के लिए उत्सुक कर देते हैं.” वर्षों तक इन बहादुर सैनिकों की अनकही गौरव गाथा को ना तो कोई कहने वाला था और ना ही सुनने वाला. लेकिन देश में राष्ट्रवादी (मोदी) सरकार बनने के बाद कम से कम इन सैनिकों की सुध लेने वाला तो कोई है.
    
राष्ट्र-सर्वोपरि:इंडिया गेट पर शहीदों को श्रृदांजलि अर्पित करते पीएम मोदी
यहां ये बात दीगर है कि राजधानी दिल्ली स्थित इंडिया-गेट अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में वॉर-मेमोरियल के तौर पर सन् 1931 में बनवाया था. इसके अलावा दिल्ली के लुटियन जोन में स्थित
तीन-मूर्ति भी विश्वयुद्ध में तीन भारतीय रियासतों, हैदराबाद, मैसूर और जोधपुर के योगदान के तौर पर बनवाई गईं थी. इसी तरह के युद्ध-स्मारक भारतीय सैनिकों की याद में फ्रांस के न्यूवे-चैपल और बेल्जियम के य्प्रेस में आज भी मौजूद हैं.
    
     प्रथम विश्वयुद्ध के सौ साल पूरे होने के मौके पर भारतीय सेना शहीद सैनिकों की याद में इस साल (2015) को शताब्दी-वर्ष के तौर पर मना रही है। इसके लिए 9-13 मार्च तक राजधानी दिल्ली में कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।जिसमे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से लेकर करीब डेढ़ दर्जन देशों के गणमान्य व्यक्ति और राजनयिक शिरकत कर रहे हैं। फ्रांस के सेना प्रमुख खुद इस समारोह में शिरकत करने वाले हैं. इंडिया गेट स्थितअमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रृदांजलि अर्पित की जायेगी. दिल्ली कैंट स्थित मानेकशॉ सेंटर में बनाया गया है विश्वयुद्ध का म्यूजियम, जिसका उद्घाटन खुद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी करेंगे, जो सशस्त्र सेनाओं के सुप्रीम कमांडर भी हैं. इस संग्राहलय में ग्रेट-वॉर से जुड़े हथियार, यूनिफॉर्म और वॉर-ट्रॉफी रखी गई हैं. युद्ध के मैदान की रेप्लिका, जिसमें ट्रैंच यानि खाई, सैनिकों की युद्ध-शैली, संचार माध्यम, जीवनशैली को हूबहू इस म्यूजियम में तैयार किया गया है.
फुट नोट्स:
1. जनरल ईआन कारडोजो और ऋषि कुमार की  'इंडिया इन वर्ल्ड वॉर-वन  मेजर' 
2. एकीकृत रक्षा मुख्यालय (सेना) की 'शताब्दी-100 ईयर्स':  
3. बिपन चंद्रा की 'भारत का स्वतंत्रता संग्राम
4. सुमित सरकार की 'मार्डन इंडिया 1885-1947' 


Tuesday, February 17, 2015

डिजिटल-आर्मी




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सत्ता संभालने के बाद डिजिटल-इंडिया का जोरदार नारा दिया था. इसका उद्देश्य है पूरे देश को आईटी से जोड़ने और इंफोर्मेशन-टेक्नोलॉजी का लाभ दूर-दराज में रहने वाले हर भारतवासी तक पहुंच सके. डिजिटल-इंडिया से  ही जुड़ा हुआ है पीएम मोदी का डिजिटल-आर्मी का विचार. आखिर क्या है डिजिटल-आर्मी और किस तरह से सेना इसे लागू करने के लिए युद्धस्तर पर काम कर रही है उससे पहले दो-तीन घटनाओं को जानना बेहद जरुरी है.

    सबसे पहली हुई 15 फरवरी को. सेना की आंख-कान समझे जाने वाले सिग्नल-कोर ने इस दिन (यानि 15 फरवरी) को अपना 105वां स्थापना दिवस मनाया. किसी भी संस्था के लिए एक शताब्दी से भी ज्यादा का सफर अपने-आप में कई मायने रखता है. दूरसंचार, रेडिया और सैटेलाइट फोन या फिर सेक्योर-लाइन के जरिए 13 लाख की सेना को एक सूत्र में बांधने का काम करता है सिग्नल-कोर. साथ ही दुश्मन को हमारी खुफिया जानकारी हाथ ना लगने पाए, इसकी जिम्मेदारी भी सिग्नल कोर की ही होती है.

       दूसरी घटना अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की हाल ही में गणतंत्र-दिवस परेड में मुख्य-अतिथि के दौर पर भारत यात्रा से जुड़ी है. ओबामा के भारत दौरे पर आने पर उनका खास तरह का मोबाइल फोन खासा चर्चा में रहा था. जो जानकारी मिल पाई थी उसके मुताबिक, उनका फोन अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी यानि एनएसए ने इस तरह तैयार किया था कि कोई भी ना तो इस फोन को टैप कर सकता था और ना ही उसे हैक कर सकता था. ये खास फोन एनएसए ने इसलिए तैयार किया था क्योंकि, दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स किससे और क्या बातचीत करता है इसका दुश्मन को कतई पता नहीं चलना चाहिए.

     तीसरी घटना थोड़ी पुरानी है. लेकिन इतनी भी पुरानी नहीं है कि आमजन उसे भूल गए हों. वैसे इस घटना ने जितना नुकसान भारतीय सेना का किया था उतना तो शायद चीन से हार के बाद भी नहीं हुआ था. वो था, तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह का उम्र-विवाद. ये विवाद जनरल और सेना के दस्तावेजों में हेरफेर के चलते हुआ था. इन दस्तावेजों में कैसे गलती हुई या किसकी वजह से गलती हुई, अब इस पर विचार करने से कोई फायदा नहीं है. इस (उम्र) विवाद और जनरल को एक अतिरिक्त साल नौकरी करने के मुद्दे से भारतीय सेना की साख पर बट्टा जरुर लग गया. लेकिन अब इसे सुधारने का तो नहीं, लेकिन इससे सीख लेना का समय जरुर आ गया है. कैसे, आईये हम जान लेते हैं. और फिर ऊपर की तीनों घटनाओं के समन्वय करने की कोशिश करेंगे, जो पीएम मोदी के डिजिटल-इंडिया या फिर फिर डिजिटल-आर्म्ड फोर्सेज के नारे को स्वरुप देने में कारगर सिद्ध होता दिखाई देता है.
एकीकृत कमांडर कांफ्रेस को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी


     देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सत्ता संभालने के बाद जब पहली बार तीनों सेनाओं के साझा सम्मेलन को संबोधित किया, तो उन्होनें सेनाओं को डिजिटिल-आर्मड फोर्सेजबनाने पर जोर दिया था. डिजिटिल-सेना का मतलब ये है कि सेनाएं ज्यादा से ज्यादा काम कम्पयूटर के जरिए करें, ताकि गलती की गुजाइंश कम हो जाए. साथ ही काम भी कम समय में पूरा कर लिया जाए.
     लेकिन डिजिटल-आर्मी का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है. इसका मतलब ये है कि सेना के शीर्ष नेतृत्व से लेकर सबसे नीचे काम करने वाले जवान तक इसका सीधा-सीधा असर या फिर प्रभाव दिखाई देना चाहिए. इसके लिए सेना ने रेजीमेंटल सेंटर से लेकर फॉरमेशन-लेवल पर सीटीएल यानि कम्प्यूटर ट्रैनिंग लैब को स्थापित किया है. ताकि सेना के सभी जवानों को यहां कम्पयूटर की बेसिक शिक्षा जरुर दी जाये-चाहे वो पहले से जानता है या नहीं.

     वैसे, डिजिटल-आर्मी का काम सिर्फ इतना नहीं है कि हरेक जवान को कम्प्यूटर चलाना आता हो. बल्कि इससे कहीं ज्यादा है. इसका अर्थ ये है कि उसकी जिंदगी—निजी और सरकारी—में उसका उपयोग भी होना चाहिए. इसके लिए सेना ने सबसे पहला काम ये किया है कि ऊपर से लेकर नीचे तक सभी अधिकारियों और जवानों के शैक्षिक और सरकारी दस्तावेजों को डिजिटाईज्ड करना शुरु कर दिया है. यानि अब किसी भी जवान को अपने दस्तावेजों को एक जगह से दूसरी जगह लेकर घूमने की जरुरत नहीं पड़ेगी. वो अब एक ही जगह यानि अपने रेजीमेंटल सेंटर में दस्तावेजों को डिजिटली-स्टोर करवा सकता है. यहां रखवाने के बाद वो अपना रिकॉर्ड-सर्टिफिकेट प्राप्त कर सकता है और जहां भी उसकी पोस्टिंग हो उसे साथ लेकर जा सकता है. इससे एक तो उसके मूल दस्तावेज खोने का डर खत्म हो जायेगा. दूसरा ये कि कहीं पर भी उसके दस्तावेजों को लेकर कोई परेशानी खड़ी नहीं होगी—जैसा कि जनरल वी के सिंह के समय आई थी.

     दरअसल, जनरल वी के सिंह का दावा था कि उनके सरकारी (सेना के) दस्तावेजों में उनकी उम्र एक साल बढ़ा दी गई थी. जबकि उनके स्कूल-सर्टिफिकेट में उम्र कुछ और दी हुई थी. लेकिन इस गड़बड़ी को समय रहते सुधारा नहीं गया, जिसके चलते इतना बड़ा बवाल खड़ा हो गया कि एक साल नौकरी बढ़वाने के लिए सेना प्रमुख ने सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा दिया था. खैर, जनरल वी के सिंह मनमसोस कर रह गए थे. लेकिन इस घटना से सबक लेते हुए सेना ने अपने सभी रैंक एंड फाइल के दस्तावेज डिजीटाईज्ड करने शुरु कर दिए. ताकि समय-समय पर कोई भी अधिकारी अपने दस्तावेज सेना के दस्तावेज से मेल करा सकता है और गड़बड़ी पाने पर समय रहते सुधार करा सकता है.

     अभी तक सेना के सभी अधिकारियों और जवानों का रिकॉर्ड दिल्ली में सेना मुख्यालय स्थित एमएस यानि मिलेट्री-सैकेटरी ब्रांच में होता था. लेकिन देश के दूर-दराज और बॉर्डर इलाकों में ड्यूटी होने के चलते अधिकारियों के लिए एमएस ब्रांच से संपर्क करने में खासी दिक्कत आती थी. लेकिन अब ये रिकॉर्ड-रुम हर रेजीमेंटल सेंटर में स्थापित किए जाएंगे. ताकि अपनी उम्र और द्स्तावेजों या फिर सर्विस-रिकॉर्ड को लेकर किसी के मन में कोई दुविधा या गलतफहमी पैदा ना हो.

     ये सभी रेजीमेंटल-रिकॉर्ड-रुम सेना मुख्यालय से भी जुड़े होंगे. इसके लिए भारतीय सेना ने दिल्ली में एवॉल यानि आर्मी वाइड एरिया नेटवर्क, लॉकल एरिया नेटवर्क और कैंपस वाइड नेटवर्क स्थापित किया है.

   साथ ही सेना के सभी छोटे-बड़े सेटंर्स पर एटीएम-बूथ की तर्ज पर इंफो-कियोस्क स्थापित किए जाएंगे. ताकि कोई भी जवान इन कियोस्क से सेना से जुड़ी जानकारी, कोर्स, नए पाठ्यक्रम इत्यादि किसी भी वक्त ले सकता है. आईएमए, एनडीए और वॉर-कॉलेज जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों में नेशनल नॉलेज नेटवर्क स्थापित किए जाएंगे, जो कि ई-लाईब्रेरी की तरह काम करेंगे.

    इसके अलावा छुट्टी पर जाने वाले जवानों को अब यात्रा में इस्तेमाल होने वाले वारंट भी इलेक्ट्रोनिकली दिए जाएंगे. अभी तक इन वारंटस को लेने के लिए जवान को रेलवे स्टेशन पर एमसीओ दफ्तर में लंबी लाइन में लगना पड़ता था. लेकिन अब ये ई-वारंट उसे छुट्टी पर जाने से पहले ही मुहैया करा दिए जाएंगे.

     यानि सेना में क्लॉउड-कम्प्यूटिंग का कार्य युद्ध-स्तर पर जारी है. ताकि कोई भी डाटा वर्चूयली कही भी उपलब्ध किया जा सके.

    
ऐसा नहीं है कि सेना में कम्प्यूटरीकरण की शुरुआत नई सरकार बनने के बाद हुई है. सेना पहले से ही अधिकारियों के कैरियर मैनेजमेंट, सर्विस-रिकॉर्ड, वेतन-भत्ता और हथियारों (और मशीनों) के रखरखाव का पूरा डाटा ऑनलाइन अपडेट करती रही है. साथ ही सेना का मैसेज सिस्टम यानि (सामरिक) संदेश भेजने की पूरी प्रणाली डिजिटल माध्यम से बेहद ही गोपनीय तरीके से की जाती रही है. सेना की मिसाइल से लेकर परमाणु हथियारों तक के ऑपरेशन पूरी तरह कम्प्यूटराइजड है.

     अब फर्क ये आया है कि ज्यादा से ज्यादा काम ऑनलाइन किया जाने लगा है. और इसकी उपयोगिता को हर सिपाही और जवान तक पहुंचाये जाने की कोशिश तेज हो गई है.

    डिजिटल-आर्मी का दूसरा सबसे बड़ा पड़ाव है पूरी सेना को सेक्योर-लाइन के जरिए जोड़ना. इसका अर्थ ये है कि अभी तक सेना के सिर्फ सीनियर अधिकारी ही ऐसे फोन इस्तेमाल करते थे, जो पूरी तरह से सेक्योर यानि सुरक्षित थे. यानि की ना तो इन फोन-कॉल्स को कोई डिकोड कर सकता है और ना ही आसानी से हैक कर सकता है. पिछले 15 सालों से सेना का शीर्ष-नेतृत्व इस तरह के संचार माध्यमों को इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन डिजिटल-सेना के तहत इस सेक्यूर-लाइन को सभी अधिकारियों के साथ-साथ सभी जवानों तक पहुंचाने का है. इसके लिए सेना की सिग्नल-कोर ने अपनी अलग फोन-लाइन स्थापित की है. जो कि प्राईवेट या फिर दूसरी सरकारी संचार सेवाओं से कहीं ज्यादा सुरक्षित है.

     सेक्योर-लाइन से जुड़ा हुआ है एमसीसीएस सिस्टम यानि मोबाइल सेल्युलर कम्यूनिकेशनस सिस्टम. इस सिस्टम के तहत सेना के लिए सार्वजिनक कंपनी बीईएल (भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड) ने एक खास मोबाइल फोन डिजाइन किया है, जो ना तो हैक किया जा सकता है और ना ही टैप किया जा सकता है.
इस हैंडसेट से जवान सिर्फ सेना के लोगों से ही फोन पर बातचीत (मैसेज या फिर एमएमएस भेज) सकते हैं. ये फोन ठीक वैसा ही जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस्तेमाल करते हैं. सेना की दो कोर यानि लेह स्थित 14 कोर और श्रीनगर स्थित 15 कोर यहीं फोन इस्तेमाल कर रही है. एक कोर के लिए इस फोन को मुहैया कराने का खर्चा करीब-करीब 250 करोड़ रुपये है. जल्द ही सामरिक-दृष्टि से महत्वपूर्ण तीन और कोर में ये (ओबामा जैसे) खास फोन सभी अधिकारिओं और जवानों के हाथों में होंगे. इन हैंडसेट और सेक्यूर लाइन से किसी दूसरी कंपनी के फोन या फिर सर्विस-प्रोवाइर से बात नहीं की जा सकती है.
  
    सेना के डिजिटल-आर्मी प्रोजेक्ट का जिम्मा डीजीआईएस यानि डायेरेक्टरेट-जनरल ऑफ इंर्फोमेशन सिस्टम के जिम्मे है. लेकिन इतने बड़े और अहम प्रोजेक्ट को कार्यंवित करने के लिए मूलभूत ढांचा तैयार किया है सिग्नलस कोर ने. वही सिग्नल कोर जिसे सेना का आंख और कान कहा जाता है और जिसने अपनी स्थापना के सौ स्वर्णिम साल पूरे कर लिए हैं.