Friday, November 21, 2014

नेवी वॉर-रुम: मुंबई के 26/11 हमले की एक बड़ी सीख

    



मुंबई के 26/11 हमले की छठी बरसी से ठीक पहले भारतीय नौसेना ने समुद्री और तटीय सुरक्षा के लिए एक बड़ा और प्रभावशाली कदम उठाया है.  दिल्ली के करीब गुड़गांव में नौसेना और कोस्टगार्ड ने मिलकर स्थापित किया है अपना कमांड सेंटर. आतंकी हमले या फिर युद्ध की स्थिति में ये सेंटर करेगा वाॅर-रूम का काम. रविवार यानि 23 नवम्बर को रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर इसका उदघाटन करेंगे.

           दिल्ली के साऊथ ब्लॉक स्थित भारतीय नौसेना के हेडक्वार्टर से कुछ मील की दूरी पर बनाया गया है आईमैक (IMAC) यानि INFORMATION MANAGEMENT & ANALYSIS CENTRE जो समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में नौसेना और कोसेटगार्ड के लिए NATIONAL COMMAND CONTROL COMMUNICATION & INTELLIGENCE (NC3I) नेटवर्क  का काम करेगा.

           इस प्रोजेक्ट के जरिए भारत की 7516 किलोमीटर लंबी तटीय सीमा पर बने नौसेना और कोस्टगार्ड के सभी 51 स्टेशन जुड़े होंगे. ये सभी स्टेशन रडार, सैटेलाइट और ओपटिकल कैमरों के जरिए जुड़े होंगे. जिन्हे किसी भी (अप्रिय) स्थिति में निर्देशित किया जायेगा. यानि ये नौसेना और कोस्टगार्ड के लिए 'वाॅर-रूम' का काम भी करेगा.

            इस प्रोजेक्ट के जरिए नौसेना हिंद महासागर में घूम रहे सभी व्यवसायिक और युद्धपोत पर सीधे नजर रख सकती है. जहाजों पर लगे एआईएस सिस्टम और डब्लूआरएस (वर्ल्ड रजिस्ट्रेश्न सिस्टम) के जरिए आईमैक में बैठे अधिकारी दुनिया के हर उस समुद्री-जहाज पर नजर रख सकते हैं जो हिंद महासागर से गुजरता है और खासतौर से भारत की समुद्री-सीमाओं के पास से गुजरता है. नेवी के अधिकारी इस प्रोजेक्ट की जरिए एक साथ 30-40 हजार समुद्री जहाजों पर एक साथ नजर रख सकता है. लेकिन जरुरत पड़ने पर ये निगरानी रखे जाने वाले युद्धपोतों को फिल्टर भी कर सकता है. यानि अगर सैकड़ों की तादाद में समुद्र में घूम रहे जहाजों में से अगर भारतीय नौसेना को सिर्फ चीन या पाकिस्तान के युद्धपोत या व्यवसायिक जहाजों को देखना है तो इस प्रोजेक्ट के सोफ्टवेयर के जरिए सिर्फ उतने ही जहाजों को देखा जा सकता है.

               
          इस प्रोजेक्ट की रूपरेखा मुंबई हमले के बाद तैयार की गई थी. 26 नवम्बर 2008 को देश की व्यवसायिक राजधानी माने जाने वाली मुंबई नगरी पर (26/11)  हमला करने वाले कसाब और उसके साथी आतंकी समुद्र के रास्ते ही मुंबई में दाखिल हुए थे. जांच में पाया गया कि सभी दस आंतकवादी पाकिस्तान के कराची पोर्ट से एक बोट के जरिए भारत की समुद्री-सीमा में दाखिल हुए और गुजरात के तटीय सीमा के करीब एक बोट को हाईजैक किया और फिर समुद्र के रास्ते मुंबई पहुंच गए. ये सारा काम उन्होनें बिना किसी रोकटोक के किया.

        26/11 हमले के दौरान किस तरह से समुद्र के रास्ते घुसपैठ कर भारत की सीमा में घुसे 10 आतंकियों ने कई दिनों तक पूरे मुंबई शहर और देश को बंधक बनाए रखा उसे बताने की जरुरत नहीं है. ये भी बताने की जरुरत नहीं है कि उन्होनें किस तरह से मुंबई शहर की आन-बान और शान के प्रतीक ताज होटल, आधुनिक सोच की इबारत, ऑबरोय होटल और महाराष्ट्र के गौरवशाली इतिहास का प्रतिबिंब माने जाने वाले छत्रपति शिवाजी टर्मिनल (सीएसटी) स्टेशन पर खून की होली खेली थी. बताने की जरुरत ये भी नहीं है कि वैश्विक-कुटुंब के उदाहरण माने जाने वाले लियोपॉड कैफे और चबाड़ हाउस में कैसे निहत्थे और निर्दोष विदेशी नागरिकों का खून बहाया था.
     हालांकि, हमले के वक्त भी कोस्टगार्ड और नौसेना के पास समुद्री-सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, लेकिन वे इसे करने में नाकाम साबित हुईं. दलील दी गई कि समुद्र की सीमाओं का दायरा बहुत बड़ा है और उनकी निगरानी करना एक टेढ़ी खीर है. ऐसे में तकनीक का सहारा लिया गया. और भारत इलेक्ट्रोनिक्स लिमिटेड को इस काम का बीड़ा सौंपा गया. बीईएल को कोन्ट्रैक्ट दिया गया मार्च 2012 में और दो साल में  450 करोड़ रुपये का ये प्रोजेक्ट बनाकर तैयार हुआ. इस प्रोजेच्ट का सोफ्टवेयर ( Coastal Surveillance Software) अमेरिका से खरीदा गया है.

         समुद्री-सीमाओं की सुरक्षा के लिए आखिरी प्रोजेक्ट नहीं है बल्कि शुरूआत है. आईमैक के बाद ही सरकार एनएमडीए को स्थापित करना का विचार कर रही है.

          एनएमडीए यानि नेशनल मेरीटाइम डोमेन अवेयरनेस का दायरा आईमैक से थोड़ा बड़ा है. एनएमडीए के जरिए भारतीय समुद्री सीमाओं में घूमने वालीं छोटी बोट (मछुआरों की नाव भी) को भी ट्रैक किया जा सके। ये प्रोजेक्ट सीसीएस यानि कैबिनट कमेटी ऑन सिक्योरिटी के क्लीयेरंस का इंतजार कर रहा है. लेकिन यहां ये बात भी दीगर है कि एनएमडीए के बनने पर भी आईमैक उसके मुख्य हिस्सा होगा.

           साथ ही रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय एक साथ मिलकर 24 देशों के साथ एक अलग प्रोजेक्ट तैयार कर रहे हैं. इस प्रोजेक्ट के जरिए भारतीय नौसेना इन सभी 24 देशों का समुद्री-डाटा इस्तेमाल कर सकती है. ये डाटा इन देशों के रडार के जरिए लिया जा सकेगा. इनमें श्रीलंका और मालद्वीप सहित अधिकतर हिंद महासागर क्षेत्र के देश शामिल हैं. ये कितना महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट है इसका पता इस बात से ही लगाया जा सकता है कि खुद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार (एनएसए) अजीत डोवाल इसके कोर्डिनेटर हैं.

Tuesday, November 18, 2014

रेज़ांगला युद्ध की अनसुनी वीरगाथा


           
    भारत में कम ही लोग हैं जो 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध को याद करना पसंद करते हैं. वजह साफ है... 1962 के युद्ध के घाव इतने गहरे हैं कि कोई भी देशवासी उसको कुरेदना नहीं चाहता. यहां तक की भारतीय सेना भी उस युद्ध के बारे में ज्यादा बात करती नहीं दिखती. लेकिन ऐसा नहीं है कि 1962 युद्ध ने सिर्फ हमें घाव ही दिए हैं. उस युद्ध ने हमें ये भी सिखाया है कि विषम परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिक बहादुरी से ना केवल लड़ना जानते हैं, अपनी जान तक देश की सीमाओं की रक्षा के लिए न्यौछावर नहीं करते हैं, बल्कि दुश्मन के दांत भी खट्टे करना जानते हैं.

     1962 युद्ध के दौरान लद्दाख के रेज़ांग-ला में भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों से जो लड़ाई लड़ी थी उसे ना केवल भारतीय फौज बल्कि चीन के साथ-साथ दुनियाभर की सेनाएं भी एक मिसाल के तौर पर देखती हैं और सीख लेना नहीं भूलती.

     चीन का तिब्बत पर हमला, फिर कब्जा और दलाई लामा के भागकर भारत में राजनैतिक शरण लेने के बाद से ही भारत और चीन के रिश्तों में बेहद खटास आ चुकी थी. ऐसे में चीन की लद्दाख में घुसपैठ और कई सीमावर्ती इलाकों में कब्जा करने के बाद भारतीय सेना ने भी इन इलाकों में अपनी फॉरवर्ड-पोस्ट बनानी शुरु कर दी थी. भारत का मानना था कि चीन इन सीमावर्ती इलाकों में अपनी पोस्ट या फिर सड़क बनाकर इसलिए अपना अधिकारी जमा रही थी क्योंकि ये इलाके खाली पड़े रहते थे. सालों-साल से वहां आदमी तो क्या परिंदा भी पर नहीं मारता था, इसी का फायदा उठाया चीन ने. जिसके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इन ठंडे रेगिस्तान और बंजर पड़े लद्दाख के सीमावर्ती इलाकों में अपनी पोस्ट बनाने की आज्ञा दी—जिसे आस्ट्रैलियाई पत्रकार एन. मैक्सवेल ने अपनी किताब इंडियाज चायना वॉरमें नेहरु की फॉरवर्ड-पोलिसी नाम देकर बदनाम करने की कोशिश की है.

           लद्दाख के चुशुल इलाके में करीब 16,000 फीट की उंचाई पर रेज़ांगला दर्रे के करीब भारतीय सेना ने अपनी एक पोस्ट तैयार की थी. इस पोस्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी कुमाऊं रेजीमेंट की एक कंपनी को जिसका नेतृत्व कर रहे थे मेजर शैतान सिंह (भाटी). 123 जवानों की इस कंपनी में अधिकतर हरियाणा के रेवाड़ी इलाके के अहीर (यादव) शामिल थे. चीनी सेना की बुरी नजर चुशुल पर लगी हुई थी. वो किसी भी हालत में चुशुल को अपने कब्जे में करना चाहते थे. जिसके मद्देनजर चीनी सैनिकों ने भी इस इलाके में डेरा डाल लिया था.  
इसी क्रम में जब अक्टूबर 1962 में लद्दाख से लेकर नेफा (अरुणाचल प्रदेश) तक भारतीय सैनिकों के पांव उखड़ गए थे और चीनी सेना भारत की सीमा में घुस आई थी, तब रेज़ांग-ला में ही एक मात्र ऐसी लड़ाई लड़ी गई थी जहां भारतीय सैनिक चीन के पीएलए पर भारी पड़ी थी.

         17 नवम्बर चीनी सेना ने रेज़ांग-ला में तैनात भारतीय सैनिकों पर जबरदस्त हमला बोल दिया. चीनी सैनिकों ने एक प्लान के तहत रेज़ांग-ला में तैनात सैनिकों को दो तरफ से घेर लिया, जिसके चलते भारतीय सैनिक अपने तोपों (आर्टिलेरी) का इस्तेमाल नहीं कर पाई. लेकिन .303 (थ्री-नॉट-थ्री) और ब्रैन-पिस्टल के जरिए भी कुमाऊं रेजीमेंट के ये 123 जवान चीनी सेना की तोप, मोर्टार और ऑटोमैटिक हथियारों जिनमें मशीन-गन भी शामिल थीं, मुकाबला कर रहे थे. इन जवानों ने अपनी बहादुरी से बड़ी तादाद में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन चीनी सेना लगातार अपने सैनिकों की मदद के लिए रि-इनफोर्समेंट भेज रही थी.

         मेजर शैतान सिंह खुद कंपनी की पांचों प्लाटून पर पहुंचकर अपने जवानों की हौसला-अफजाई कर रहे थे. इस बीच कुमाऊं कंपनी के लीडर मेजर शैतान सिंह गोलियां लगने से बुरी तरह जख्मी हो गए. दो जवान जब उन्हे उठाकर सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे तो चीनी सैनिकों ने उन्हे देख लिया.
परमवीर चक्र विजेता (मरणोपरांत) मेजर शैतान सिंह
शैतान सिंह अपने जवानों की जान किसी भी कीमत पर जोखिम में नहीं डाल सकते थे. उन्होनें खुद को सुरक्षित स्थान पर ले जाना से साफ मना कर दिया. जख्मी हालत में शैतान सिंह अपने जवानों के बीच ही बने रहे. वहीं पर अपनी बंदूक को हाथ में लिए उनकी मौत हो गई.

        दो दिनो तक भारतीय सैनिक चीनी पीएलए को रोके रहे. 18 नवम्बर को 123 में से 109 जवान जिनमें कंपनी कमांडर मेजर शैतान सिंह भी शामिल थे देश की रक्षा करते मौत को गले लगा चुके थे. लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि भारतीय सैनिकों की गोलियां तक खत्म हो गईं. बावजूद इसके बचे हुए जवानों ने चीन के सामने घुटने नहीं टेकें.
        भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनेलिसेस विंग) के पूर्व अधिकारी आर के यादव ने अपनी किताब मिशन आर एंड डब्लू में रेज़ांगला की लड़ाई का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन बचे हुए जवानों में से एक सिंहराम ने बिना किसी हथियार और गोलियों के चीनी सैनिकों को पकड़-पकड़कर मारना शुरु कर दिया. मल्ल-युद्ध में माहिर कुश्तीबाज सिंहराम ने एक-एक चीनी सैनिक को बाल से पकड़ा और पहाड़ी से टकरा-टकराकर मौत के घाट उतार दिया. इस तरह से उसने दस चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. 

गीतकार प्रदीप द्वारा लिखा गया देशप्रेम से ओतप्रोत गाना जिसे लता मंगेशकर ने गाकर अमर कर दिया था दरअसल वो रेज़ागला युद्ध को ध्यान में ही रखकर शायद रचा गया था.

     गीत के बोल कुछ यूं हैं, "....थी खून से लथपथ काया, फिर भी बंदूक उठाके दस-दस को एक एक ने मारा, फिर गिर गये होश गंवा के. जब अंत समय आया तो कह गये के अब मरते हैं खुश रहना देश के प्यारों अब हम तो सफर करते हैं. क्या लोग थे वो दीवाने क्या लोग थे वे अभिमानी जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी...."

        बताते है कि चीन ने इस लड़ाई में पांच भारतीय जवानों को युद्धबंदी बना लिया था जबकि नौ जवान बुरी तरह घायल हो हुए थे.

        भारतीय सैनिकों की बहादुरी से हारकर चीनी सैनिकों ने अब पहाड़ से नीचे उतरने का साहस नहीं दिखाया. और चीन कभी भी चुशुल में कब्जा नहीं कर पाया. हरियाणा के रेवाड़ी स्थित इन अहीर जवानों की याद में बनाए गए स्मारक पर लिखा है कि चीन के 1700 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था. हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है कोई नहीं जानता. क्योंकि इन लड़ाईयों में वीरगति को प्राप्त हुए जवानों की वीरगाथा सुनाने वाला कोई नहीं है. और चीन कभी भी अपने सेना को हुए नुकसान के बारे में नहीं बतायेगा. लेकिन इतना जरुर है कि चीनी सेना को रेज़ांगला में भारी नुकसान उठाना पड़ा.

        वीरगति को प्राप्त हुए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत देश के सबसे बड़े पदक परमवीर चक्र से नवाजा गया. मेजर शैतान सिंह और उनके वीर अहीर जवानों की याद में चुशुल के करीब रेज़ांगला में एक युद्ध-स्मारक बनवाया गया. हर साल 18 नवम्बर को इन वीर सिपाहियों को पूरा देश और सेना याद करना नहीं भूलती है. क्योंकि शहीदों की चितांओं पर लगेंगे हर बरस मेले...देश में मर-मिटने वालों का बस यही एक निशां होगा...” 
    

Monday, November 17, 2014

तैयार हैं भारतीय यूएवी ड्रोन

अमेरिकी फौजों ने जब अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबानी आतंकियों और उनके ठिकानों को अपने ड्रोन से चुन-चुनकर निशाना बनाया, तो हर कोई हैरान था कि आखिर ये ड्रोन नाम की बला है तो है क्या. अमेरिकी ड्रोन ने पाकिस्तान में तालिबानी आतंकियों पर इतने हमले किए कि खुद पाकिस्तानी सरकार को अमेरिका से मिन्नत करनी पड़ी कि वो ड्रोन से किये जा रहे हमले बंद कर दे. दुनिया को पहली बार पता चला कि अमेरिका ने ड्रोन नाम का ऐसा घातक हथियार तैयार किया है जिसका सैन्य-दुनिया में कोई सानी नहीं है. दुनिया को पहली बार पता चला कि ड्रोन दरअसल एक तरह का मिलेट्री-एयरक्राफ्ट है जो बिना पायलट के चलता है. यानि अनमैन्ड एरियल व्हीकल या यूएवी.
अमेरिकी ड्रोन: निशाने पर दुश्मन

               सवाल ये था कि अगर ये विमान पायलट-रहित है तो फिर मिसाइल और बमों से इतने सटीक निशाने कैसे लगाता है. यकीनन, यूएवी का पायलट तो होता है, लेकिन वो विमान के अंदर बैठकर उसे नहीं उड़ता है. वो जमीन पर रहकर कम्पयूटर और रिमोट के जरिए उसे अपनी दिशा-निर्देश के अनुसार उड़ाता है. जमीन पर बने कंट्रोल-रुम से पायलट यूएवी से ली जा रहीं तस्वीरें देखता रहता है. यूएवी की खासयित ये है कि इस तरह के विमान खास तरह के सर्विलांस टेक्नॉलोजी से लैस होते है. इसमें खास तरह के लंबी दूरी के कैमरे, रडार और सेंसर लगे होते हैं. इन उपकरणों के मदद से ये जिस भी क्षेत्र के ऊपर उड़ता है उस इलाके की एक-एक तस्वीर अपने कैमरों में कैद कर लेता है.

           इन तस्वीरों के माध्यम से पायलट जमीन पर बने कंट्रोल-रुम से पता लगा लेता है कि दुश्मन का ठिकाना कितनी दूरी पर है और कहां पर है. बस इसके जरिए वो यूएवी को आसमान में उड़ाता है और उसका टारगेट फिक्स कर मिसाइल और बमों की बौछार कर देता है. दुश्मन को संभालने तक का मौका नहीं मिलता. यहां तक की यूएवी की मिसाइलों तक में जीपीआरएस जैसी तकनीक लगी होती है. यानि पायलट चाहे तो हवा में उड़ती मिसाइल को किसी भी दिशा में मोड़ सकता है. ये तकनीक चलते (या दौड़ते) हुए दुश्मनों के टैंक के लिए काफी प्रभावी होती है.
    जानकारों की मानें तो, मिलेट्री-एयरक्राफ्ट के मुकाबले यूएवी के कई फायदे हैं. पहला तो ये कि इससे पायलट और दूसरे सैन्य-अधिकारियों की जान को कोई खतरा नहीं होता है. दरअसल, अगर लड़ाकू-विमान दुश्मन की रडार की पकड़ में आने से उसपर दुश्मन अपनी मिसाइलों से हमला बोल सकता है. ऐसी स्थिति में एयरक्राफ्ट, पायलट और उसमें बैठे दूसरे अधिकारियों की जान जोखिम में पड़ सकती है. लेकिन यूएवी क्योंकि पायलट-रहित एयरक्राफ्ट है इसके पायलट की जान को कोई खतरा नहीं होता. जो कि किसी भी युद्ध में बेहद जरुरी है. साथ ही लड़ाकू-विमान की तुलना में यूएवी बहुत छोटा होता है. इसलिए दुश्मन की नजर से दूर रहता है. साथ ही इसकी कीमत भी मिलेट्री-एयरक्राफ्ट से काफी कम होती है. इसलिए अगर इस पर हमला हो भी जाये तो नुकसान बेहद कम होता है.
अमेरिकी ड्रोन उड़ने के लिए तैयार

            अमेरिकी ड्रोन की तर्ज पर अब लगभग हर बड़ा देश इस तरह के यूएवी तैयार कर रहा है. भारत ने भी अपने कई यूएवी तैयार किए हैं. इनमें प्रमुख हैं निशांत, रुस्तम,  लक्ष्य और अभय. भारत की सबसे बड़ी सैन्य-सरकारी संस्था, डीआरडीओ ने इन सभी यूएवी को तैयार किया है. साथ ही कुछ प्राईवेट कंपनियां भी अब भारत में इस तरह की यूएवी तैयार कर रहीं हैं.

निशांत--इस मानव-रहित टोही विमान यानि यूएवी का मुख्य काम है किसी भी इलाके की निगरानी और सर्वेक्षण करना यानि सर्विलिएंस और रिकोनिसेशंस.
निशांत
भारतीय सेना निशांत का फिलहाल उपयोग बॉर्डर इलाकों में करती है. इसके जरिए बॉर्डर पर नजर रखी जाती है कि कही दुश्मन हमारी सीमा में घुसपैठ तो नहीं कर रहा है. या दुश्मन को कोई विमान हमारी एयर-स्पेस में तो नहीं घुस आया है. 
  करीब साढ़े चार मीटर लंबा और 180 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से उड़ने वाला निशांत चार घंटे से ज्यादा तक हवा में उड़ सकता है. ये 10 से 12 किलोमीटर तक की किसी भी इमारत का पता लगा सकता है. साथ ही 4-5 किलोमीटर दूर जा रहे ट्रक या टैंक को भी आसानी से कैच कर लेता है. इसके जरिए हमारी सेना की तोपें किसी भी निशाने पर आसानी से टार्गेट कर सकती हैं.

 रुस्तमरुस्तम निशांत का एडवांस वर्जन है. डीआरडीओ ने रुस्तम के भी दो वर्जन तैयार किए है. रुस्तम-I और रुत्मस-II. रुस्तम-II ज्यादा एडवांस है.
रुस्तम-
अगर इसमें एरियल-टारगेट फिट कर दिया जाये तो ये अमेरिकी ड्रोन की तर्ज पर काम करने लगेगा. फिलहाल डीआरडीओ ने इस विकल्प को खुला रखा है.

अभय—अभय नाम का यूएवी सही मायने में अमेरिकी ड्रोन की तरह काम करता है. इस यूएवी में मिसाइल फिट होती हैं. इससे जमीन या फिर समुद्री-जहाज से भी लांच किया जा सकता है. 

लक्ष्य—लक्ष्य अपने नाम की तरह ही अपने लक्ष्य को टार्गेट करता है. ये एक तरह से अभय का एडवांस वर्जन है जिसमें मिसाइल फिट होती हैं.
लक्ष्य
जमीन पर बैठा इसका पायलट लक्ष्य लेकर लक्ष्य को कहीं भी लांच कर सकता है. भारतीय सेना, एयरफोर्स और नेवी लक्ष्य का इस्तेमाल कर रहीं हैं. ये 5 से 9 किलोमीटर तक का टार्गेट कर सकती है.

एयरोस्टेट सिस्टम—ये एक तरह का बहुत बड़ा गुब्बारा होता है. करीब डेढ़ किलोमीटर की उंचाई से ये गुबारा, जिसे एयरोस्टेट कहा जाता है, 150 किलोमीटर के दायरे तक की निगरानी कर सकता है. इसमें लगे खास तरह के कैमरे दुश्मन के यूएवी और मिसाइल को टारगेट पर पहुंचने से पहले ही डिटेक्ट करने की क्षमता है.

नेत्रा—जैसा की इस यूएवी का नाम है, ठीक वैसे ही ये आंखों की तरह काम करती है. ये बेहद ही छोटा उपकरण है.
नेत्रा
जैसा कि थ्री इडियट्स नाम की फिल्म में दिखाया गया था. चार-पांच पंखुड़ी वाला एक छोटा सा उपकरण जिसमें एक कैमरा फिट रहता है. करीब आधा-किलोमीटर की उंचाई से ये 4-5 किलोमीटर तक की निगरानी रख सकता है और तस्वीरें खीच कर जमीन पर बने कंट्रोल सिस्टम में कैद करता रहता है. इस यूएवी को भारत की पैरा-मिलेट्री फोर्स बड़ी तादाद में नकस्ली-प्रभावित इलाकों में इस्तेमाल कर रही हैं.

एक्यूलोन—भारत की प्राईवेट कंपनी, टाटा-नोवा ने इस यूएवी को तैयार किया है. ये भी निशांत और रुस्तम की तरह ही निगरानी और सर्वेक्षण का काम करती है. लेकिन इसकी उड़ने की क्षमता निशांत और रुस्तम से कहीं कम है.

               साफ है कि भारत भी अब दूसरे बड़े देशों की तरह यूएवी के क्षेत्र में अपने कदम जमाने की स्थिति में पहुंच गया है.

चीन की भारत में आधिकारिक 'घुसपैठ' हैंड-इन-हैंड


पुणे में भारत और चीन की सेना के बीच दस दिन तक चलने वाला साझा युद्धभ्यास शुरू हो गया है. 'हैड-इन-हैंड' नाम का ये युद्भ्यास ऐसे समय में हो रहा है जब खबर आ रही है कि चीनी सेना सीमा के करीब पाकिस्तानी सेना को ट्रैनिंग दी रही है.

गौरतलब है कि भारतीय सेना पहले इस युद्धभ्यास को पाकिस्तानी सीमा के करीब भटिंडा में कराना चाहती थी, लेकिन चीन ने ये कहकर साफ मना कर दिया था कि वो पाकिस्तानी सीमा से दूर इस युद्धभ्यास को करना चाहता है. इसके बाद पुणे के औंद्ध मिलेट्री स्टेशन का चयन किया गया जिसके बाद ही चीन इस युद्धभ्यास के लिए तैयार हुआ.

इस युद्धभ्यास का मकसद anti inaurgency और counter terrorism ऑपरेशन में दोनों देशों की साझा सेनाओं की क्षमता आंकना है ताकि जरूरत पड़ने पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच समन्वय बना रहे. साथ ही दोनों सेनाएं एक दूसरे की युद्धकला से सीख ले सकें.

चीनी सेना की भारतीय सीमा में घुसपैठ की खबर तो लगातार आती रहती हैं. कभी चीनी सैनिक लद्दाख के दौलत-बेग-ओल्डी (डीबीओ) को अपनी जमीं बताकर वहां अपने टैंट गाड़कर बैठ जाते हैं तो कभी डेमचोक और चुमार में भारतीय सीमा में सड़क बनाने की जिद लेकर तंबू गाड़ लेतें हैं. सीमा पर भारतीय सैनिकों से नोंक-झोंक तो मानों रोजाना की बात हो गई है. ऐसे में अगर दोनों देशों की सेनाएं युद्धभ्यास के लिए तैयार हो जाती हैं तो बेहद हैरानी होती है.

दरअसल, दोनों देशों का मानने है कि अगर भारत और चीन की सेनाएं एक दूसरे के साथ इस तरह के युद्धभ्यास करेंगी तो दोनों के बीच ठीक समन्वय बैठाया जा सकता है. इससे सीमा पर होने वाली टकराव की स्थिति कम हो सकती है. लेकिन जानकारों की मानें तो जबतक दोनों देशों के बीच सीमा-विवाद नहीं सुलझ जाता है तबतक दोनों सेनाओं के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहेगी.
 
हैंड-इन-हैंड एक्सरसाइज में दोनों सेनाओं की एक-एक कंपनी हिस्सा लेंगी जिन्हे बटालियन-हेडक्वार्टर कंट्रोल करेगा. पहली बार इस युद्धभ्यास में भारतीय वायुसेना के हेलीकाॅप्टर भी हिस्सा लेंगे.
16 नंबम्बर को शुरु हुए इस युद्धभ्यास में 17नबम्बर को दोनों देशों के सीनियर सैन्य अधिकारी opening ceremony में हिस्सा लेंगे. 25 नबम्बर को मीडिया को साझा  युद्धभ्यास की कवरेज का मौका दिया जायेगा, लेकिन चीनी सेना के अधिकारी मीडिया से मुखातिब (इंटरव्यू/बाइट इत्यादी) नहीं होंगे. चीनी सेना का मानना है कि भारतीय मीडिया नाहक ही छिटपुट टकराव (सीमा-विवाद से जुड़ी खबरें) को सनसनीखेज खबरों में तब्दील कर देता है, जिसके चलते दोनों देशों के बीच संबध ठीक नहीं हो पातें हैं. चीन का मानना है कि भारतीय मीडिया में ये सनसनीखेज खबरें बनानी की शुरुआत 1962 के युद्ध के ठीक पहले से शुरु हो गई थी.

'हैंड-इन-हैंड 2014' दोनों देशों के बीच चौथा युद्धभ्यास है. इससे पहले 2013 में ये मिलेट्री एक्सरसाइज चीन में हुई थी। इस साझा युद्धभ्यास की  शुरूआत 2007 में हुई थी जब ये चीन में आयोजित की गई थी-वर्ष 2008 में बेलगाम में हुई थी.
 

पंजाब में नशे के कारोबार से सेना चिंतित


         भारतीय सेना ने हाल में अपनी भर्ती प्रक्रिया को लेकर एक स्टडी की जिसमें कई चौकाने वाले तथ्य और आंकड़े सामने आए. सबसे पहला चौकाने वाला तथ्य ये था कि पंजाब जैसे राज्य में, जहां से एक समय में सेना में सबसे ज्यादा जवान भर्ती होते थे, वहां के नौजवान भर्ती प्रक्रिया के लिए जरुरी 1600 मीटर की दौड़ भी पूरी नहीं कर पाते हैं. पंजाब के नौजवानों में इस दौड़ को तयशुदा समय में पूरा करने का अनुपात 10-15 प्रतिशत है. यानि पंजाब के 90 प्रतिशत युवा इस दौड़ को पूरा करने में नाकाम हैं. जबकि दूसरे उत्तरी राज्यों में 25 प्रतिशत युवा इस दौड़ का पूरा करने में सक्षम हैं. 

         सेना की इस स्टडी से साफ है कि पंजाब में नशे का जाल इस कदर फैल चुका है कि बड़ी तादाद में नौजवान इसकी चपेट में आ चुके हैं. लेकिन माना जा रहा है कि ये जहर धीरे-धीरे पड़ोसी राज्य में फैल सकता है. अगर ऐसा हुआ तो स्थिति विकट हो सकती है.
    पंजाब के युवा-वर्ग में ड्रग्स के बढ़ते चलने के चलते ही सेना ने अपनी रिक्रूटमेंट रैलियों में ड्रग्स-किट अनिवार्य कर दी है. 250 रुपये की इस किट के जरिए सेना के अधिकारी भर्ती के लिए आए उम्मीदवारों का ड्रग्स टेस्ट स्क्रीनिंग के वक्त ही कर लेते हैं और उसका रिजल्ट भी तुरंत पता चल जाता है. 
           हालांकि स्टडी में ये भी कहा गया है कि भले ही पंजाब के नौजवान भर्ती प्रक्रिया में बड़ी तादाद में फेल हो रहें हों, लेकिन सेना में शामिल होने के जोशो-खरोश में कोई कमी नहीं आई है. अभी भी सेना की भर्ती-रैलियों में पंजाब नंबर वन है. पंजाब के किसी भी इलाके में कोई भी रैली हो उसमें 12 से 15 हजार तक नौजवान आसानी से पहुंच जाते हैं. यानि पंजाब अभी भी हाई-रैसपोंस एरिया के तौर पर जाना जाता है.

              दरअसल, सेना में हर साल 60-70 हजार जवानों की भर्ती की जाती है. इन जवानों की भर्ती सेना रिक्रूटमेंट-रैली के जरिए करती है. इन रैलियों के लिए सेना ने पूरे देश को 11 जोन में बांट रखा है. बड़े राज्य जैसे यूपी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, मध्य-प्रदेश इत्यादि में एक से ज्यादा जोन हैं. लेकिन उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों के लिए एक ही रिक्रूटमेंट-जोन है. ऐसे ही जम्मू-कश्मीर और हिमाचल जैसे छोटे राज्यों के लिए एक-एक रिक्रूटमेंट-जोन है. ये जोन इस आधार पर भी तय किए गए हैं कि किस राज्य से कितने नौजवान भर्ती के लिए आते हैं. अभी भी यूपी, बिहार, पंजाब जैसे राज्यों से बड़ी तादाद में युवा सेना में भर्ती के लिए इन रैलियों में इकठ्ठा होते हैं. हाल ही में मध्य-प्रदेश के ग्वालियर में इतने नौजवान इकठ्ठा गए और सभी को रैली में शामिल होने का मौका ना मिलने की स्थिति में हंगामा हो गया. सेना में शामिल होने आए लोगों ने जमकर तोड़-फोड़ की और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया. सेना के मुताबिक, ग्वालियर की रैली में 10-12 हजार नौजवान इकठ्ठा हुए थे. गोवा जैसे लो-रिस्पॉन्स एरिया में भी 6-7 हजार की करीब की भीड़ जुट जाती है.

       सेना ने इन 11 रिक्रूटमेंट-जोन को 71 रिक्रूटमेंट ऑफिस (आर्मी रिक्रूटमेंट ऑफिस या एआरओ) में बांट रखा है. हर आर्मी रिक्रूटमेंट ऑफिस की जिम्मेदारी है कि वो साल में दो से तीन रैलियों को आयोजित करे. इस तरह से सालभर में करीब 140-160 रैलियों आयोजित की जातीं हैं. एक अनुमान के मुताबिक, हर साल इन रैलियों में 30-34 लाख नौजवान सेना में भर्ती के लिए अपनी किस्मत आजमाने पहुंचते हैं. लेकिन मौका मिलता है सिर्फ 60-70 हजार सफल उम्मीदवारों को सेना के जरिए देश के लिए सेवा करने का.

   हरेक एआरओ में एक कर्नल, एक मेडिकल ऑफिसर और चार दूसरे रैंक के अधिकारी होते हैं. साथ में होते हैं कुछ जवान. लेकिन सवाल उठता है कि इतने कम अधिकारी 10-12 हजार लोगों की रैली कैसे आयोजित कर लेतें हैं और इतनी बड़ी भीड़ को संभालते कैसे हैं. दरअसल, एआरओ के अधिकारी सिर्फ उम्मीदवारों के चयन का काम करते हैं. बाकी भीड़ संभालने से लेकर कानून-व्यवस्था संभालने का काम स्थानीय (जिला) प्रशासन करता है.
  
  किसी भी भर्ती-रैली से पहले सेना स्थानीय अखबार में विज्ञापन निकालती है कि फंला तारीख को फंला शहर के ग्राउंड, कैंट या फिर स्टेडियम में रिक्रूटमेंट की जायेगी. इसके लिए एआरओ के अधिकारी जिले के डीएम और एसपी से लगातार संपर्क बनाए रखते हैं. ताकि जिला प्रशासन रैली में आने वाले उम्मीदवारों के खाने-पीने और जरुरत पड़े तो रहने का इंतजाम भी कर ले. क्योंकि इन रैलियों का मकसद केवल सेना में भर्ती ही नहीं है बल्कि स्थानीय नौजवानों को रोजगार देना भी है.
      
  रैली की शुरुआत सुबह 6.30 बजे हो जाती है. स्टेडियम के बाहर दो चक्र होते हैं-इनर मार्शल एरिया और ऑउटर मार्शल एरिया. यहां पर पुलिसबल किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहता है. ऑउटर मार्शल एरिया से पुलिसकर्मी 100-200 उम्मीदवारों के दस्ते को अंदर भेजते हैं. इनर मार्शल एरिया में सेना के अधिकारी और जवान उनकी मार्कशीट और सर्टिफिकेट इत्यादि चैक करने के बाद स्टेडियम में दाखिल करने की अनुमति देते हैं.

          स्टेडियम में सबसे पहले सभी उम्मीदवारों को 400 मीटर दौड़ के चार चक्कर (राउंड) लगाने होते हैं. यानि हरेक उम्मीदवार को 1600 मीटर की दौड़ लगानी पड़ती है. और इस 1600 मीटर की दौड़ को छह मिनट में पूरा करना होता है. जो उम्मीदवार इस दौड़ को तयशुदा समय में पूरा कर लेते हैं उन्हे अगला टेस्ट पार करना होता है. जो इस दौड़ को पूरा नहीं कर पाते हैं उन्हे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. एक अनुमान के मुताबिक, अधिकतर रैलियों में 25 प्रतिशत उम्मीदवार इस दौड़ को पूरा कर लेते हैं.
       
इस 1600 मीटर की दौड़ के बाद सभी उम्मीदवारों की शारीरक नाप-तोल की जाती है. अगर वे सेना के मापदंडों को पूरा कर लेते हैं तो उन्हे इंडियन आर्मी में शामिल कर लिया जाया जाता है. हाथ में बंदूक लेकर देश की सीमाओं पर सीमाओं की रक्षा करने का दायित्व संभालना पड़ता है. सीमाओं के साथ-साथ देश के किसी भी हिस्से में अगर पुलिस-प्रशासन कानून-व्यवस्था संभालने में नाकाम रहता है तो वो काम भी सेना को संभालना पड़ता है. आंतकवाद से मुकाबला हो या फिर जातीय और धार्मिक हिसां सभी जगह सेना को ही हालात बेकाबू होने पर तैनात किया जाता है. प्राकृतिक आपदा, भूकंप, बाढ़ इत्यादि में भी सबसे पहला मदद का हाथ आगे आता है तो वो एक जवान का ही होता है.

  सेना में रैंक ऑफिसर (यानि लेफ्टिनेंट और उससे ऊपर के अधिकारियों के लिए) की भर्ती के लिए यूपीएससी हर साल एनडीए और सीडीएस जैसे कठिन परीक्षा आयोजित करती है.