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मिलेट्री-डिप्लोमेसी: मी-25 अटैक हेलीकॉप्टर की भेंट |
जंजीर फिल्म में अफगान ‘शेरखान’ का किरदार निभा रहे प्राण की तरफ से
एंग्रीयंग-मैन के लिए दोस्ती की एक नायाब मिसाल पेश की जाती है. लेकिन इंसपेक्टर
की भूमिका में अमिताभ बच्चन की तरफ से वैसी दोस्ती देखने को नहीं मिलती जैसी अफगान
पठान की तरफ से थी. निर्देशक प्रकाश मेहरा की इस फिल्म की तरह ही भारत और
अफगानिस्तान की दोस्ती भी दिखाई देती थी. अफगानिस्तान की तरफ से लगातार दोस्ती का
हाथ बढ़ाया जाता था, लेकिन भारत ना जाने क्यों दोस्ती में हाथ पीछे खीचता दिखाई
देता था. तालिबान के सत्ता से उखड़ने के बाद और लोकतांत्रिक अहमद करज़ई (जिन्होनें
भारत में ही पढ़ाई की थी) की सरकार आने के बाद से तो अफगान नेतृत्व हमेशा भारत की
तरफ मुंह बाये खड़ा दिखाई देता था. लेकिन भारत ना जान क्यों पीछे खड़ा दिखाई देता
था. लेकिन मोदी की काबुल यात्रा ने सबकुछ बदल दिया है. भारत ने ना केवल दोस्ती का
हाथ आगे बढ़ाया बल्कि दोस्ती को ईमान से जोड़ दिया (जैसा कि गाने के पंक्ति के बोल
हैं, यारी है ईमान मेरा...). अगर पीएम नरेन्द्र मोदी की अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी के साथ गर्मजोशी से गले मिलते तस्वीरें देखें तो कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है.
भारत के अफगानिस्तान से दोस्ती में हाथ पीछे खींचने के पीछे कई कारण
थें. पहला था वहां कि अस्थिर सरकार. लंबे समय तक क्रूर और बर्बर तालिबान सरकार के
चलते भारत ने अफगानिस्तान से मुंह मोड़ सा लिया था. हालांकि अफगान शरर्णाथियों का
भारत में आने जारी था—दिल्ली के लाजपत नगर का एक हिस्सा तो पूरा अफगान शरर्णाथियों
से पटा पड़ा है. तालिबान से पहले कुछ समय तक नजीबुद्दौला सरकार से भारत के अच्छे
संबंध थे. लेकिन रशिया के अफगानिस्तान में रहने के समय से ही (80 के दशक में) वहां
हिंसा के हालात बने हुए थे.
अस्थिर सरकार और तालिबान के वर्चस्व के साथ-साथ हमारे जेहन में 1999
के कंधार हाईजैंकिग की तस्वीरें अभी तक जिंदा थीं. जब काठमांडू से इंडियन-एयरलांइस
के विमान आईसी-814 को अपहरण कर आंतकी अफगानिस्तान ले गए थे और जीप में घूमते
तालिबानियों को लोगों ने साफ-साफ देखा था. अमेरिका (और नाटो) फोर्सेज़ ने तालिबान
सरकार को जैसे तैसे करके सत्ता से तो हटाया लेकिन हिंसा अभी भी जारी है. कई
प्रांतों में अभी भी तालिबान का खौफ जारी है. कई बार भारत की काबुल स्थित एंबेसी
और कंधार, हेरात, जलालाबाद और मज़ार-ए-शरीफ कोंसोलेट
पर हमले भी हो चुके हैं—वो बात और है कि हरबार हमला नाकाम रहा. लेकिन प्रधानमंत्री
मोदी ने अपने भाषण में आह्वान किया कि अफगानिस्तान के युवा आईटी यानि इंटरनेशनल
टेरेरिज्म को छोड़कर इंफोरमेशन टेक्नोलॉजी की तरफ ध्यान दें.
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अफगान संसद को संबोधित करते पीएम मोदी |
इतिहास के पन्ने पलटें तो भारत और अफगानिस्तान के बीच नजदीकियां तो
रहीं लेकिन कहीं ना कहीं खटास जरुर रह जाती है. महाभारत-युद्ध के लिए अगर कोई बहुत
हद तक जिम्मेदार था तो वो था दुर्योधन का मामा, शकुनि. लोग ये तो जानते हैं कि
दुर्योधन की मां और शकुनि की मां का नाम गांधारी था. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि
गांधारी कहां की राजकुमारी थी. गांधारी अफगानिस्तान के ही गांधार-नरेश की बेटी थी
(और शकुनि बेटा था). गांधार आज के अफगानिस्तान का ही हिस्सा था. महाभारत-काल में
गांधार, आर्यवर्त (यानि अखंड-हिंदुस्तान) का ही हिस्सा था. मध्यकालीन युग में अगर
हमारे देश में बर्बर आक्रमण की शुरुआत किसी ने की तो वो अफगान-कबीलाई, महमूद गज़नी
और मौहम्मद गौरी (घुर्द) ने ही की थी.
लेकिन जैसा खुद पीएम मोदी ने कहा कि हमें बुलेट को बैलैट से हराना है.
अफगानिस्तान में जबतक लोकतंत्र बहाल नहीं होगा, तबतक वहां हालात में सुधार आना
मुश्किल है. यही वजह है कि दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत ने अफगानिस्तान की
संसद की इमारत का निर्माण किया. इसी संसद की बिल्डिंग का उद्घाटन करने के लिए
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रशिया से लौटते हुए काबुल पहुंचे थे.
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अफगान संसद दारुल-ए-अमन |
करज़ई शासन के दौरान भारत ने मदद के तौर पर अफगानिस्तान को जीप, ट्रक
और नॉन-कॉम्बेट हेलीकॉप्टर से ज्यादा कुछ नहीं दिया. अफगान सेना के कैडेट
जरुर हमारे देश में आकर ट्रैनिंग लेते थे. अभी भी हर साल आईएमए (इंडियन मिलेट्री
एकेडमी) से अफगान कैडेट भी पास होते हैं. सड़क बनाने का काम भी भारत की बीआरओ
(बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन) ने किया है. लेकिन अफगानिस्तान भारत से कुछ ज्यादा की
उम्मीद रखता था. वहीं भारत को आशंका थी कि अगर अफगानिस्तान को ज्यादा मदद की तो
पाकिस्तान ‘नाराज’ हो सकता है. लेकिन मोदी सरकार ने आते ही पुरानी सरकारों की
डिप्लोमेसी बदल दी. मोदी सरकार ने ‘मिलेट्री-डिप्लोमेसी’ शुरु की है. इसके जरिए मित्र-देशों को
कॉम्बेट मशीन देने में भी कोई गुरेज नहीं है. यही वजह है कि भारत ने पहली बार
अफगानिस्तान को तीन (03) मी-25 अटैक हेलीकॉप्टर गिफ्ट के तौर पर दे रहा है. पहला
हेलीकॉप्टर खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अफगानिस्तान को भेंट स्वरुप दिया है—हेलीकॉप्टर
के साथ तस्वीरें भी जारी हुईं. माना जा रहा है कि भारत आने वाले दिनों में
अफगानिस्तान को और मदद भी दे सकता है, क्योंकि अब तो दोस्त ही जिंदगी है ( यारी
है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी...)
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यार मेरी जिंदगी: गले मिलते मोदी और अशरफ घानी |
लेकिन काबुल से भारत लौटते हुए पीएम मोदी अचानक लाहौर में पाकिस्तान
के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने पहुंच गए. कहा तो ये गया कि ये
सरप्राइज-डिप्लोमेसी थी या बर्थडे-डिप्लोमेसी थी. लेकिन जानकारों की मानें तो मोदी
सोच-समझकर काबुल से लौटते हुए पाकिस्तान गए थे. एक तो पाकिस्तान से संबंध सुधारने के
लिए और दूसरा अफगानिस्तान में दोस्ती की पींग पाकिस्तान को अनदेखा कर नहीं बढ़ाई
जा सकती. जैसा कि कोलकता के प्रतिष्ठित अखबार ने अपनी हैडलाइन में लिखा था, ‘इफ यू सैन्ड गन्स टू
अफगानिस्तान, यू मस्ट कैरी रोज़ेज़ टू पाकिस्तान ’ यानि अगर अफगानिस्तान गन
(अटैक हेलीकॉप्टर) भेज रहे हो तो पाकिस्तान गुलाब लेकर जाना पड़ेगा.
अफगानिस्तान में पाकिस्तान का बहुत ज्यादा दखल है. रुस (उस वक्त
यूएसएसआर) को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान की खुफिया
एजेंसी आईएसआई की मदद ली थी. तबसे पाकिस्तान का अफगानिस्तान में बेहद दबदबा है.
पाकिस्तान के दखल के चलते ही हाल ही में अफगान खुफिया एजेंसी के मुखिया ने अपने पद
से इस्तीफा दे दिया है. तालिबान को अगर किसी ने मान्यता दी थी, उन चंद देशों में पाकिस्तान भी
शामिल था. वो बात और है कि इन्ही तालिबानियों ने इनदिनों पाकिस्तान में आंतक
मंचाया हुआ है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काबुल यात्रा के दो दिन बाद ही
पाकिस्तानी सेना के मुखिया राहिल शरीफ अफगानिस्तान दौरे पर पहुंच गएं. किसी को भी
ये बात सहज समझ आ सकती है कि मोदी के दौरे के बैक टू बैक राहिल शरीफ का दौरा क्या
मायने रखता है. वो भी तब जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख, राहिल शरीफ दूसरे शरीफ (प्रधानमंत्री
नवाज शरीफ) से अपने देश की अवाज में ज्यादा लोकप्रिय होते जा रहे हैं. यानि
पाकिस्तान इतनी आसानी से भारत और अफगानिस्तान की दोस्ती को मजबूत नहीं होने देगा.
इसका भूगौलिक कारण भी एक सच्चाई है. भारत को अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए
पाकिस्तान से गुजरना ही पड़ेगा.
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