Saturday, December 20, 2014

चंगेज़ खान और भारत-चीन सीमा विवाद

 चीन अपने पड़ोसी देश मंगोलिया से किस कदर डरता था इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन ने ग्रेट वॉल ऑफ चायनामंगोलिया द्वारा लगातार किए जाए रहे आक्रमणों को रोकने के उद्देश्य से ही बनवाई थी...

मध्यकालीन मंगोलियाई बर्बर सम्राट चंगेज़ खान का नाम सुनकर अच्छे-अच्छे सुरमाओं के पसीने छूट जाते हैं. 12वी और 13वी सदी के शुरुआत में चंगेज खान नें ना केवल मंगोलिया के बिखरे हुए लड़ाकू-कबीलों को एकजुट और संगठित किया बल्कि दुनिया के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था. चीन से लेकर बुखारा, समरकंद, रशिया, अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, बुल्गारिया और हंगरी तक चंगेज खान का साम्राज्य फैला हुआ था. जहां-जहां भी चंगेज़ खान की फौज जाती उसकी बर्बरता के कारण लोग दहशत के मारे कांपने लगते. एक अनुमान के मुताबिक, चंगेज खान (1162-1227 ईसवी) ने करीब 4 करोड़ लोगों को मौत के घाट उतारा था जिनमें, बड़े-बड़े राजाओं, सिपहसलारों और सैनिकों सहित आम नागरिक भी शामिल थे. माना जाता है कि जब चंगेज़ खान ने चीन पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी बीजिंग (प्राचीन नाम झोंगडु) पर कब्जा किया तो उसके बाद चीन की जनसंख्या में बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी. 

चंगेज़ खान की मूर्ति

          ऐसे में 800 साल बाद जब मंगोलिया की फौज भारत को अपने देश के सबसे बड़े राजा, चंगेज़ खान की मूर्ति भेंट स्वरुप पेश करती है तो इन दोनों देशों के बीच सैंडविच, चीन की त्यौंरियां जरुर चढ़ सकती हैं.

          हाल ही में मंगोलिया की बॉर्डर फोर्स के अधिकारी भारत के दौरे पर आए थे. इस दौरान भारत की सबसे बड़ी सीमा सुरक्षा बल, बीएसएफ के साथ मंगोलिया ने सीमा-सुरक्षा के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने के करार पर सहमति जताई. जैसा कि ऐसे समारोह में अक्सर होता है बीएसएफ के डीजी ने शिष्टाचार के नाते मंगोलिया के प्रतिनिधि-मंडल को भेंट स्वरुप शील्ड प्रदान की. लेकिन समारोह में मौजूद सभी लोग उस वक्त हतप्रभ रह गए जब मंगोलिया के प्रतिनिधि-मंडल का नेतृत्व कर रहे बॉर्डर-एथोरिटी के चीफ, ब्रिगेडयर-जनरल लाहचिंजव ने बीएसएफ के महानिदेशक को अपने देश के सबसे महान राजा चंगेज़ खान की मूर्ति भेंट की.

          हालांकि भारत का मंगोलिया के साथ कोई साझा सीमा-क्षेत्र नहीं है लेकिन दोनों देशों के बॉर्डर में कई समानताएं हैं. दोनो देशों की एक बड़ी सीमा चीन से लगी हुई है. मंगोलिया की साढ़े चार हजार (4500) किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी सीमा चीन से सटी है. इसी तरह से भारत का भी करीब 4000 किलोमीटर लंबा बॉर्डर चीन से लगा हुआ है. दोनों देशों का चीन के साथ लंबा सीमा विवाद रहा है. दोनों ही देशों का सीमा क्षेत्र बर्फीले पहाड़ों से लेकर रेगिस्तान तक फैला हुआ है.

        जिस तरह से भारत और चीन का लंबा सीमा विवाद रहा है और लगातार चीन के भारत में घुसपैठ की खबरें आतीं रहतीं हैं, इसी तरह से कभी चीन और मंगोलिया के बीच भी विवाद था. चीन का अपने सभी पड़ोसी देशों से सीमा को लेकर विवाद रहा है. लेकिन चीन अगर किसी देश से डरता था तो वो था मंगोलिया. चीन अपने पड़ोसी देश मंगोलिया से किस कदर डरता था इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन ने ग्रेट वॉल ऑफ चायनायानि लंबी-दीवार  मंगोलिया द्वारा लगातार किए जाए रहे आक्रमणों को रोकने के उद्देश्य से ही बनवाई थी. छह हजार (6000) किलोमीटर लंबी दीवार बनवाकर चीन ने अपनी सीमाओं को मंगोलियाई आक्रंताओं से बचाने की कोशिश की थी, जो आज दुनिया के सात अजूबों में शुमार करती है.

        लेकिन कुछ साल पहले चीन ने मंगोलिया के साथ सीमा-करार कर लिया और उसके बाद से दोनों देशों के बीच सदियों से चली आ रही तल्खी काफी कम हो गई. अब दोनों देशों के संबध काफी सुधर गए हैं.

       ऐसे में मंगोलिया के भारत के साथ रक्षा और सामरिक सहयोग का महत्व काफी बढ़ जाता है. 
बहुत संभावनाएं हैं कि जरूरत पड़ने पर (युद्ध इत्यादि की ) मंगोलिया भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा दिखाई दे सकता है.

            साथ ही भारत मंगोलिया से एक सीख भी ले सकता है. वो ये कि अगर मंगोलिया और चीन के बीच सीमा विवाद सुलझ सकता है तो क्या भारत और चीन के बीच बॉर्डर विवाद नहीं सुधर सकता ?
सीमा पर चीन और मंगोलिया के जवान (साभार गूगल इमेज)
      भारत बॉर्डर-मैनेजमेंट में मंगोलिया से काफी कुछ सीख सकता है. मंगोलिया प्रतिनिधि मंडल जब भारत के दौरे पर आया तो उसने बीएसएफ के डीजी डी के पाठक को चंगेज़ खान की मूर्ति के साथ-साथ एक फोटो-एलबम बुक भी भेंट की. इस एलबम में दिखाया गया था कि किस तरह से सदियों से मंगोलिया के लड़ाके अपने देश की सीमाओं को सुरक्षा प्रदान करते आ रहे हैं. साथ ही मंगोलिया का बॉर्डर इतिहास बताता है कि किस तरह से अपने स्वाभिमान के साथ समझौते किए बगैर सीमा विवाद को (चीन के साथ) भी सुलझाया जा सकता है.

        दोनों देशों की बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के बीच में हुए करार के मुताबिक, बीएसएफ, मंगोलिया के बॉर्डर गार्ड्स को स्पेशल ऑपरेशन और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में ट्रैनिंग देगी. इसी तरह से बीएसएफ, एसएसबी और आईटीबीपी (चीन सीमा पर तैनात भारत का बॉर्डर फोर्स) के अधिकारी समय-समय पर मंगोलिया की यात्रा पर जाएंगे और सीमा-सुरक्षा का अध्यन करेंगे.  
चंगेज खान का साम्राज्य (पीले भाग में)
       कहते हैं कि चंगेज़ खान जब पूरी दुनिया को जीतने के इरादे से अपने सेना के साथ निकला तो वो अफगानिस्तान तक पहुंच गया था और गजनी (पेशावर भी) पर कब्जा कर लिया था. माना जाता है कि वो भारत पर भी आक्रमण करने का इरादा रखता था. वो सिंधु नदी पार कर उत्तर-भारत से होता हुआ आसाम के रास्ते मंगोलिया लौटना चाहता था. लेकिन किन्ही कारणों से उसे पेशावर से ही वापस लौट जाना पड़ा. 

           भारत में मुगल-शासन की नींव रखने वाला बाबर अपने को चंगेज़ खान का वशंज मानता था. बाबर मानता था कि उसकी मां चंगेज़ खान के वंश की थी. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, 'मुगल' शब्द भी 'मंगोल' से ही निकला है यानि मंगोल-प्रजाति के वंशज. ऐसे में ऐसा नहीं माना जा सकता है चंगेज खान की मूर्ति भेंट करने से ही भारत के मंगोलिया से रिश्ते की नई शुरुआत हुई है. मंगोलिया से भारत का रिश्ता उतना ही पुराना है जितना मुगल-शासन का भारतवर्ष से यानि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामरिक.



Tuesday, December 9, 2014

सेना, सोशल-मीडिया और कश्मीर-ऑपरेशन



     


हमारी सेना की नीतियां और संस्कार, जिन्हे मजबूत सैन्य न्याय-प्रणाली का आधार प्राप्त है, दुनिया में सर्वोत्तम हैं. वे हमें मार्गदर्शन के साथ-साथ सुरक्षा प्रदान करने का काम भी करेंगी


हाल ही में जम्मू-कश्मीर की दो-तीन घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान अपनी और खींचा है. वैसे तो जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही दुनिया के पटल पर किसी ना किसी कारण से चर्चा (विवादों) में रहा है. चाहे वो बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान समर्थित जेहादियों द्वारा कश्मीर पर आक्रमण हो और या फिर भारतीय सेना द्वारा कठिन परिस्थितियों मे युद्ध लड़ना रहा हो या फिर नेहरु द्वारा युद्ध-विराम की घोषणा हो या जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त-राष्ट्र में सुलझाना हो या फिर जनमत संग्रह, किसी ना किसी कारण से जम्मू-कश्मीर का विवादों से चोली-दामन का साथ रहा है.

      लेकिन पिछले 25-30 सालों से आतंक की मार झेल रहे कश्मीर में अब शांति की किरण नजर आने लगी थी. हाल ही के विधानसभा चुनावों के शुरुआती दौर में बड़ी तादाद में मतदान ने इस थ्योरी को और बल दिया कि जम्मू-कश्मीर की आवाम अब शांति चाहती है. वहां का युवा हाथों में एके-47 लिए-लिए थक गया है. 

      ऐसे में पिछले महीने यानि 3 नबम्बर को बड़गाम में सेना के जवानों द्वारा कार में जा रहे दो कश्मीरी युवकों पर गलती से फायरिंग करना और उनकी मौत हो जाने से एकबार फिर घाटी में अशांति फैलने का डर पैदा हो गया. वो बात और है कि घटना के तुरंत बाद ही सेना के नार्थन कमांड (जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य आता है) के जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा द्वारा गलती स्वीकार करने के चलते मामला तूल नहीं पकड़ा. लेकिन इस घटना से एक बार फिर राज्य में लागू आर्म्ड फॉर्स स्पेशल पॉवर (आफ्सपा) एक्ट को हटाने की मांग पकड़ने लगी.

   
ये मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि 5 दिसम्बर को उरी में सेना के तोपखाने पर फिदाईन हमला हो गया. सेना ने छह विदेशीआतंकियों को तो मार गिराया लेकिन इस मुठभेड़ में सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल समते आठ जवान शहीद हो गए. आतंकियों से लड़ने आए जम्मू-कश्मीर पुलिस के तीन जवानों को भी इस एनकाउंटर में शहादत प्राप्त हुई. 

       इस एनकाउंटर के बाद, पहले तो सोशल मीडिया और फिर कुछ अखबारों में ये प्रचार होने लगा कि उरी में सेना के कैंप पर जब हमला हुआ तो वहां तैनात जवानों ने इसलिए आतंकियों पर देर से फायरिंग की क्योंकि वे अपने सीनियर अधिकारियों के आदेश का इतंजार कर रहे थे. उन्हे बड़गाम घटना का डर सताने लगा था, कि बिना अधिकारियों के आदेश के वे गोलियां नहीं चलाएंगे. हालांकि सेना ने इस तरह के दुष्प्रचार का पुरजोर विरोध किया.

      
लेकिन सोशल मीडिया पर इस दुष्प्रचार ने इसलिए भी जोर पकड़ा क्योंकि बड़गाम की घटना के बाद जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में सेना के जीओसी (यानि जनरल ऑफिसर इन कमांडिग) लें.जनरल डी एस हुड्डा ने अपने सभी मातहत अधिकारियों को एनकाउंटर और सेना के ऑपरेशन्स को लेकर एक चिठ्ठी लिखी थी, जो किसी तरह से लीकहो गई थी. इस चिठ्ठी के उजागर होने के बाद ही उरी में फिदाईन-हमला हो गया और व्हॉटसअप जैसे सोशल मीडिया साईट्स पर ये  संदेश तेजी से फैलने लगा कि जवानों ने आतंकियों की गाड़ी पर इसलिए रोकने या फायरिंग नहीं की क्योंकि कुछ दिन पहले ही (बड़गाम घटना) एक कार को रोकने के चक्कर में सैनिकों ने फायरिंग कर दी थी, जिसके बाद उन सैनिकों का कोर्ट-मार्शल हो गया था. व्हॉटसअप मैसेज में लिखा था कि कोर्ट-मार्शल झेलने से अच्छा है आतंकियों की गोलियों से मर जाना. इस संदेश में सेना के उच्च-अधिकारियों के नेतृत्व पर भी सवाल खड़े किए गए थे.
       
       
लेकिन सेना मुख्यालय इस व्हॉटसअप मैसेज का पुरजोर विरोध कर रहा है. उनका मानना है कि आतंकियों को रोकने और फायरिंग करने में कोई देरी नहीं हुई थी. ना ही सुरक्षाकर्मियों ने अपने सीनियर अधिकारियों से फायरिंग के लिए ऑर्डर लिया था. उन्होनें तुरंत ही फिदाईन हमलावरों को मुकाबला करना शुरु कर दिया था. जिसके चलते ही छह घंटे के अंदर ही मिलेट्री-ट्रैनिंगपाए उन आतंकियों को मार गिराया गया. साथ ही आतंकी किसी गाड़ी में नहीं आए थे जैसाकि बड़गाम घटना में आए थे. इसलिए उन्हे रोकने और ना रोकने का सवाल ही नहीं खड़ा होता.

        ऐसे में ये एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या ये पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा फैलाया जा रहा दुष्प्रचार तो नहीं है ? जो किसी तरह से हमारे बहादुर सैनिकों का मनोबल गिराना चाहते हैं. क्योंकि, भारतीय सेना की रीढ़ हैं ये बहादुर जवान जिनके त्याग, बलिदान और शहादत के किस्से ना केवल हमारे देश बल्कि दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं. यही वजह है कि ब्रिटेन जैसा देश भी हमारे सैनिकों (जिन्होने विश्व-युद्ध में हिस्सा लिया था) के लिए वॉर-मेमोरियल बना रहा है.

      लेकिन ये भी सवाल लाजमी है कि आखिर जनरल हुड्डा ने उस चिठ्ठी में ऐसा क्या लिखा था कि सोशल मीडिया पर सेना के उच्च-नेतृत्व पर सवालिया निशान लगने लगे. इस पत्र का पूरा मजमून कुछ यूं है....

       
         “ मैं ये पत्र सभी कमांडिग ऑफिसर्स को एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर लिख रहा हूं जो सभी अपनी-अपनी यूनिट तक पहुंचा दें. आज हम सभी उत्तरी-कमान में ऐसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं जिनसे मुकाबला करना ही हमें ना केवल पूरे राष्ट्र बल्कि अपनी नजरों में ये बताएगा कि हम अपने आप को किस तरह से परखते हैं.
     
      बड़ी ही बहादुरी और बलिदान के बाद हम जम्मू-कश्मीर में छद्म-युद्ध पर काबू कर पाए हैं. लेकिन ये शांति बड़ी नाजुक है. आज की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा मुश्किल है जब आतंकियों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में मार गिराना ही हमारे कामयाबी का मापदंड था. आज हमें आतंकी हिंसा पर काबू पाने के साथ-साथ स्थानीय अभिलाषाओं को भी ध्यान में रखना होगा. हालांकि सिद्धांत में इस को भली-भांति समझते हैं लेकिन हकीकत में इस को और अधिक समझने की जरुरत है. हम जो ऑपरेशन्स करते हैं उन्हे आज के माहौल के अनुरुप ढालने की जरुरत है. बिडवंना ये है कि हमारे काम का ढंग माहौल के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा है. मेरी सभी कमांडिग-ऑफिसर्स से दरख्सात है कि वे अधिकारियों और जवानों की ट्रैनिंग की तरफ ज्यादा से ज्यादा ध्यान दें और समझाएं कि हम किस तरह के वातावरण में काम कर रहे हैं और हमारी आंचर-संहिता (कॉड-ऑफ-कंडक्ट) क्या हैं.

       प्रिंट, इलैक्ट्रोनिक या फिर सोशल मीडिया, ये सभी ऐसे महत्वपूर्ण औजार हैं जो ना केवल जनमानस के विचारों को प्रभावित करते हैं बल्कि हमारे अधिकारियों और जवानों की भावनाओं को भी प्रभावित कर सकते हैं. लेकिन हमें इनका शिकार नहीं बनना हैं. हम इनका  मुकाबला अपने बहादुरी से और इससे कर सकते हैं कि हम जो कर रहे हैं वो पेशेवर तरीके से उचित है और सम्मानजनक है. सेना जम्मू-कश्मीर में एक काम करने आई है और वो हम बेहतर तरीके से करेंगे. गलतियां हो जाती हैं. मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मुझे पता है कि आप विषम परिस्थितियों में काम कर रहे हैं लेकिन किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा. ये संदेश सभी यूनिट्स तक पहुंचना चाहिए.


       हमारी सेना की नीतियां और संस्कार, जिन्हे मजबूत सैन्य न्याय-प्रणाली का आधार प्राप्त है, दुनिया में सर्वोत्तम हैं. वे हमें मार्गदर्शन का और बचाने का काम भी करेंगी. आप और आपके सैनिक एक बेहतरीन काम कर रहे हैं और आप सबका ख्याल मेरे ध्यान में सर्वोपरि है.

       जनरल हुड्डा की इस चिठ्ठी से दो-तीन बातें साफ हो जाती है. पहला तो ये कि जिस तरह से 90 के दशक में सेना आंतकियों को चुनचुनकर मारती थी-जैसा कि हाल ही में रिलीज हुई हिंदी फिल्म हैदर में दर्शाया गया था-वो प्रणाली खत्म हो गई है.

       दूसरा कश्मीर घाटी में हालत तेजी से बदल रहे हैं. यानि
अब वहां के लोग अमन-चैन चाहते हैं. ऐसे में जबतक जरुरत ना हो वहां के लोगों पर गोलियां ना बरसाईं जाएं. लेकिन इसका अर्थ ये कदापि नहीं हैं कि आतंकियों की गोलियां का जवाब ना दिया जाये. अपनी देश के स्वाभिमान और अपनी रक्षा से ऊपर कुछ नहीं है.

       तीसरा ये कि मीडिया में (खासतौर से सोशल मीडिया) प्रचारित (दुष्)प्रचार की तरफ ज्यादा ध्यान देने की जरुरत नहीं है. अपना काम यानि देश की सीमाओं और स्वाभिमान के साथ-साथ जो काम दिया गया है (जम्मू-कश्मीर में शांति-बहाली) उसे पेशेवर तरीके से पूरा करें.

तीसरा ये कि हमारी सेना की नीतियां और न्याय-प्रणाली किसी भी जवान के साथ अन्याय नहीं होने देगी.
 
      लेकिन उरी के घटना के बाद सेना को एक नई चुनौती का सामना जरुर करना पड़ रहा है और वो है सोशल मीडिया. माना जाता है कि भारतीय सेना का प्रचार-तंत्र बहुत मजबूत है. यहां तक की अमेरिकी सेना की तर्ज पर ही भारतीय सेना में भी एमआई यानि मिलैट्री-इंटेलीजेंस के अंतर्गत इंर्फोमेशन-वॉरफेयर की एक अलग यूनिट काम करती है. कभी साईकोलोजिकल-ऑपरेशन्स (साई-ऑप्स) के नाम से जाने वाली आईडब्लू यूनिट दुश्मन-देश और उनकी सेनाओं के साथ-साथ आंतकी संगठनों के मीडिया में दुष्प्रचार को रोकने और जवाब देने में अहम भूमिका निभाती है. लेकिन अब आईडब्लू यूनिट को सोशल-मीडिया से दो-दो हाथ करने के लिए भी कमर कसनी होगी.

Thursday, December 4, 2014

चोल राजा राजेन्द्र की सैन्य विरासत

राजेन्द्र चोल ने भी भारत की उस सांस्कृतिक और सैन्य विरासत का ही अनुसरण किया था जैसा रामायण में राम और बाद में चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने किया था

राजेन्द्र चोल की 1000वी जयंती को मनाने के लिए समुद्री-यात्रा पर निकलता आईएनएस सुर्दशनी
 
हमारे देश का ये ना केवल इतिहास है बल्कि सांस्कृतिक विरासत भी है कि हमने ना तो किसी देश पर हमला किया है और ना ही उनपर कभी अपनी प्रभुता स्थापित की. अगर हमला किया और दूसरे देश पर विजय हासिल की है तो उसके पीछे कोई ना कोई कारण रहा होगा. भगवान राम ने लंका पर हमला कर अपनी पताका फैलाई थी तो सिर्फ इसलिए की वहां के राजा रावण ने उनकी पत्नी का अपहरण कर बंधक बना लिया था. अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए ही राम ने समुद्र पर पुल बनाया और लंका पहुंचकर रावण का वध कर अपनी पत्नी को सकुशल वापस पा लिया. लेकिन लंका पर विजय हासिल करने के बाद भी राम ने वहां शासन नहीं किया. बल्कि रावण के भाई विभीषण को वहां का राजा बनाकर वापस अपने राज्य अयोध्या वापस लौट आए.

        ये कहानी इतनी ही पुरानी है जितना पुराना भारतवर्ष का पुराणिक-इतिहास है. लेकिन हाल ही में भारत के रक्षा मंत्री ने इस कहानी को दुहरा कर एक बार साफ कर दिया कि हम चाहे कितने भी शक्तिशाली क्यों ना हो जाएं लेकिन हम किसी दूसरे देश पर बिना किसी कारण के हमला नहीं करेंगे. लेकिन रक्षा मंत्री ने इसके साथ ही ये भी साफ कर दिया कि इतिहास गवाह है कि जिस देश की नौसेना शक्तिशाली है उसी ने पूरी दुनिया पर राज किया है.

        आज यानि 4 दिसम्बर को नौसेना दिवस है. 1971 के पाकिस्तान-युद्ध में भारत की जीत में अहम भूमिका निभाने के बाद से ही नौसेना हर साल 4 दिसम्बर को ये दिवस मनाती है. 
लेकिन ये साल भारतीय नौसेना दक्षिण-भारत के चोल राजवंश के प्रतापी राजा राजेन्द्र-प्रथम के राज्यभिषेक की एक हजार जंयती भी मना रही है. 1014 ईसवी में राजेन्द्र ने चोल राज्य की कमान संभाली थी. उस वक्त चोल राज्य आज के तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र-प्रदेश के बड़े हिस्सों तक फैला था. राजेन्द्र (1014-1044 ईसवी) से पहले उनके बड़े भाई (कहीं पर पिता कहा गया है) राजराजा चोलवंश के राजा थे और उन्होनें अपने राज्य की सीमा को तमिलनाडु से बढ़ाकर दूसरे पड़ोसी राज्य तक फैलाई थीं. 1012 में राजराजा ने अपने छोटे भाई (या पुत्र) को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. दो साल तक दोनों भाईयों ने एक साथ चोल राज्य पर शासन किया. हालांकि अपने भाई के राज्यकाल के दौरान ही राजेन्द्र ने कई युद्धों में अहम भूमिका निभाई थी जिसके चलते ही चोल राज्य की सीमाएं तमिलनाडु से बढ़कर पड़ोसी राज्यों तक फैल गई थीं.

        लेकिन राजेन्द्र चोल को इतिहास में इसलिए अधिक याद किया जाता है क्योंकि उन्होनें समुद्र पार कर ना केवल (श्री)लंका बल्कि दक्षिण-पूर्व के कई देश जैसे सुमात्रा, मलाया और जावा (आज के इंडोनेशिया) तक अपनी जीत का पताका फहराया था. उस वक्त सुमात्रा और उसके आस-पास के द्वीपों में श्रीविजया नाम का राज्य था. समुद्रतट के करीब सम्राज्य होने के चलते चोल राजाओं ने अपनी एक बड़ी नौसेना तैयार की थी. इसी नौसेना के बदौलत राजेन्द्र चोल ने दक्षिण-पूर्व के देशों तक अपनी जीत का परचम फहराया था. साथ ही उसने समुद्र के रास्ते चीन तक अपने राजनयिक-मिशन भेजे थे. इसके अलावा बर्मा (म्यंमार) और बांग्लादेश तक चोल राज्य के निशान दिखाई पड़ते हैं.
 
       लेकिन सवाल खड़ा होता है कि क्या राजेन्द्र चोल भारतीय इतिहास में ऐसा अपवाद है जिन्होनें दूसरे देश पर हमला किया, जो भारत की सांस्कृतिक विरासत के उलट है. यानि बिना किसी कारण के दूसरे देशों पर हमला करना. अगर ऐसा है तो भारतीय नौसेना राजेन्द्र चोल के राज्यभिषेक की 1000वी जयंती क्यों मना रही है ? क्या भारतीय नौसेना भी राजेन्द्र चोल की तरह ही हिंद महासागर में अपना वर्चस्व कायम करना चाहती है ?

      इसका जवाब ठीक-ठीक किसी के पास नहीं है कि राजेन्द्र ने श्रीविजया राज्य पर क्यों आक्रमण क्यों किया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजेन्द्र ने अपने समकालीन राज्यों चेरा, पांड्या और कलिंगा राज्य पर पहले ही विजय हासिल कर ली थी. यहां तक की उसकी सेना गंगा तक लड़ने गई थी, यानि दक्षिण से लेकर उत्तर के राज्यों तक उसने जीत हासिल कर ली थी. गंगा कूच कर लौटने के बाद ही राजेन्द्र ने अपनी नई राजधानी गंगाईकोंडा-चोलापुरम की स्थापना की थी. लगभग पूरे भारतवर्ष पर फतह हासिल करने के बाद उसने श्रीविजया सम्राज्य की और कूच किया. उसका मकसद वहां भारतवर्ष और चोलराज्य की पताका फहराना था. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है क्योंकि उसने श्रीविजया पर विजय पाने के बाद उसने दिग्विजय की उपाधि अपने नाम के साथ जोड़ ली थी.
चोल सम्राज्य और चीन को भेजे राजनयिक-मिशन का समुद्री-रुट


     लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजेन्द्र के श्रीविजया पर हमले करने की तिथि यानि तारीख को गौर से देखना होगा. उसी में उसके हमले करने का राज़ छिपा है. राजेन्द्र चोल ने श्रीविजया देश पर आक्रमण किया था 1025 ईसवी में. इससे पहले यानि 1016 में राजेन्द्र ने एक राजनयिक-मिशन समुद्र के रास्ते चीन भेजा था. ये मिशन राजनयिक के साथ-साथ व्यापारिक भी था. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीविजया राज्य ने राजेन्द्र के मिशन के चीन जाने में अड़ंगा अड़ाया था. वो राजेन्द्र के मिशन को चीन नहीं जाने देना चाहता था, इसलिए सबक सिखाने के इरादे से राजेन्द्र ने श्रीविजया राज्य पर आक्रमण किया था. दरअसल, राजेन्द्र ने श्रीविजया राज्य पर वर्ष 1025 में आक्रमण किया था. यानि चीन को भेजे जाने वाले पहले मिशन (1016) के नौ साल बाद. इसके बाद दूसरा मिशन भेजा 1033 में यानि श्रीविजया पर विजय हासिल करने के आठ साल बाद.

        ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि श्रीविजया पर आक्रमण करने का मुख्य मकसद श्रीविजया को सबक तो सिखाना था ही, चीन तक जाने वाले समुद्री-रास्ते को किसी भी अड़चन से साफ रखना भी था. क्योंकि चीन का समुद्री-रास्ता श्रीविजया के राज्य की सरहदों से गुजरता था. साथ ही राजेन्द्र चोल ने श्रीविजया के राजा संग्राम विजयतुंगवर्मन को हराकर उसे कब्जा नहीं किया. बल्कि विजयतुंगवर्मन को एक बार फिर से राजा बना दिया, लेकिन इस शर्त पर की उसे चोलराज्य की अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी. यही वजह है कि राजेन्द्र प्रथम की मौत के कई साल बाद का एक तमिल अभिलेख (1088 ईसवी) सुमात्रा में पाया गया जिसमें लिखा था कि दोनों देशों (चोल और श्रीविजया) के बीच में कई सदियों तक संबध कायम थे.
राजेन्द्र चोल द्वारा स्थापित राजधानी गंगाईकोंडा-चोलापुरम

      साफ है कि राजेन्द्र चोल ने भी भारत की उस सांस्कृतिक और सैन्य विरासत का ही अनुसरण किया था जैसा रामायण में राम और बाद में चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने किया था. यहां तक की जब राजेन्द्र चोल ने श्रीलंका पर आक्रमण किया और विजय हासिल की तो वहां के सिंहली राजा को ही राज्य सौंपकर अपने देश वापस लौट आया था. सिंहली राजा ने भी राजेन्द्र चोल की अधीनता स्वीकार कर ली थी.

      राजेन्द्र चोल को कम्पूचिया (कंबोडिया) के खमेर राजा और थाईलैंड से भेंट भी मिलती थी. जो एक राजा दूसरे राजा को स्वाधीन होने के वक्त ही देता है या फिर तब देता है जबकि दोनों के बीच में मधुर संबध रहे हों. साथ ही राजेन्द्र की एक उपाधि थी कदर्रम-कोंडनजिसका अर्थ है वो जिसने केदाह (आज के मलेशिया) पर जीत हासिल की हो.

    शायद यही वजह है कि भारतीय नौसेना राजेन्द्र चोल के राज्यभिषेक की 1000वी जंयती मना रही है. इस प्रण के साथ की हम किसी देश पर आक्रमण नहीं करेंगे. लेकिन अगर कोई हमारे समुद्री-हितों के बीच में (खासकर हिंद महासागर में) अड़चन या फिर टकराने की जुर्रुत करेगा तो उसका वही हाल होगा जो राजेन्द्र चोल ने श्रीविजया सम्राज्य का किया था.