Wednesday, June 29, 2016

सातवें वेतन आयोग से नाखुश है सेना

सातवे वेतन आयोग से सेना नाखुश है. सूत्रों के मुताबिक, सातवे वेतन आयोग में कई विसंगतियां तो हैं ही, सेना द्वारा उठाईं गईं मांगों पर भी ध्यान नहीं दिया गया है.

खुद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा कि हालांकि उन्होनें काफी मांगों को मनवाने की कोशिश की, लेकिन 'कुछ मांगे' पूरी होने से रह गई हैं.

जानकारी के मुताबिक, 7वे वेतन आयोग के लिए सेना ने अपनी तीन-चार मुख्य मांगे रखी थीं.

1.      एनएफयू---नॉन फंक्शनल अपग्रेड. इसके ग्रेड के मुताबिक, एक ही बैच के सैन्य अधिकारियों को उनके  पद को देखे बिना बराबर सैलरी मिलनी चाहिए. यानि के 2005 बैच के सभी अधिकारियों को बराबर सैलरी मिलनी चाहिए. क्योंकि ऐसा हो सकता है कि इस बैच को कोई अधिकारी कर्नल के पद पर ही जबकि उसी बैच को कोई अफसर पदोन्निति के बाद ब्रिगेडियर के पद पर हो. जबकि सरकारी (सिविल सेवा) नौकरी में एक बैच के सभी आईएएस (आईपीएस इत्यादि) को एक ही सैलरी मिलती है (चाहे रैंक डायरेक्टर हो या ज्वाइंट-सेक्रेटरी). सेना की इस मांग को  सातवे वेतन आयोग ने नहीं माना है.

2.      एमएसपी—मिलेट्री सर्विस पेय. अभी तक एमएसपी सिर्फ ब्रिगेडयर रैंक तक के अधिकारियों को मिलती है. सेना की मांग है कि मेजर-जनरल और लेफ्टिनेंट-जनरल रैंक के अधिकारियों को भी एमएसपी मिलनी चाहिए. अभी तक एमएसपी सैनिकों की मुश्किल हालात में काम करने के लिए दी जाती है. लेकिन सेना की मांग है कि क्योंकि उनकों ना तो यूनियन और एसोशियन बनाने की इजाजत है और ना ही आवाज उठाने का अधिकार . इसलिए एमएसपी सीनियर अधिकारियों को भी मिलनी चाहिए. इस मांग को भी नहीं माना गया है.

3.      सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों के लिए एक समान ‘पेय-मैट्रिक्स’ हो----अभी तक सिविल और सैन्य दोनों के लिए अलग-अलग पेय मैट्रिक्स है. लेकिन सेना की मांग है कि क्योंकि सरकारी नौकरी में स्थिरता नहीं होती है जबकि फौज में रुकावट आ जाती है. इसलिए दोनों के लिए सामान पेय-मैट्रिक्स हो.

4.      मिलेट्री हज़ार्ड पेय (जोखिम भत्ता)---अभी ये भत्ता सरकारी कर्मचारियों का ज्यादा है. जबकि सैनिकों का कम है. सेना चाहती है कि ये बराबर हो. इसे अगर कैलकुलेट किया जाए तो गुवाहटी में कार्यरत सरकारी कर्मचारी का भत्ता, सियाचिन में तैनात सैनिक से ज्यादा होता है. सेना की मांग है कि इस तरह की विसंगतियों को दूर किया जाए. जहां नार्थ ईस्ट में तैनात एक आईएएस को 54 हजार का भत्ता मिलता है. तो सेना के एक अधिकारी को सियाचिन में 31 हजार रूपये का भत्ता मिलता है. जबकि सियाचिन में काम करना बेहद जोखिम भरा है.

सरकार का कहना है कि भत्ते को लेकर अलग से कमेटी बनाई जायेगी, जो तय करेगी कि क्या वाकई विसंगतियां है क्या.

जानकारों के मुताबिक, वेतन आयोग में सशस्त्र सेनाओं की भागीदारी नहीं थी. इसलिए आयोग के सदस्य सेनाओं की जरूरतों और उनके काम करने के हालातों को ठीक से समझ नहीं पाते. यहां तक की सेनाओं के प्रमुखों को भी आयोग में अपनी राय रखने का मौका नहीं दिया गया.

सेना इस बात से खुश नहीं है कि तीसरे वेतन आयोग के बाद से लगातार सेना को सिविल अधिकारियों के अपेक्षा कम तरजीह दी जाती आ रही है. लगातार सेना के अधिकारियों की सैलरी सिविल अधिकारियों के मुकाबले कम दी जा रही है. जबकि मुश्किल हालातों में चाहे वो युद्ध का मैदान हो या आतंकियों से लड़ना या फिर बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा या फिर सांप्रदायिक दंगे, वहां सिविल मशीनरी फेल होने के बाद सेना को ही बुलाया जाता है.

 यहां तक की हाल ही मे हरियाणा मे जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा को भी सेना ने ही शांत कराया था. यहां तक की बोरवेल में गिरे बच्चों को बचाने के लिए भी सेना की मदद ली जाती है.

जानकारी के मुताबिक, अब सेना में एक सिपाही (SEPOY) की सैलरी 21,700/ रुपये हो जायेगी. अभी तक एक सिपाही की पेय 8470/ रुपये है. इसी तरह से एक मेजर रैंक के अधिकारी की सैलरी करीब 70 हजार रुपये (69,700/) हो जायेगी. जबकि अभी तक एक मेजर की सैलरी 27,880/ रुपये है.

Monday, June 27, 2016

उड़ान भरने के लिए तैयार तेजस

1 जुलाई को वायुसेना को स्वदेशी लड़ाकू विमान, तेजस की पहली स्कावड्रन मिल जायेगी. शुरूआत में इस स्कावड्रन में 02 विमान होंगे. ये स्कावड्रन कोयम्बटूर के करीब शोलुर मे बेस होगी. लेकिन शुरूआत के दो ( 02 ) साल ये स्कावड्रन बैंगलुरू से ऑपरेट करेगी. 

लंबे इंतजार के बाद आखिरकार, स्वदेशी लड़ाकू विमान, तेजस भारतीय वायुसेना में आधिकारिक तौर से शामिल होने जा रहा है. 1जुलाई को पारंपरिक सैन्य तरीके से बैंगलूरू में वायुसेना की स्कावड्रन स्थापित की जायेगी.

लेकिन बताते चलें कि तेजस को फाइनल ऑपरेशनल क्लीयरेंस अभी तक नहीं मिली है. इस बारे में वायुसेना के अधिकारियों कहना है कि जल्द ही क्लीयरेंस मिल जायेगी.

जानकारी के मुताबिक, इस साल के अंत तक स्कावड्रन में तेजस विमानों की संख्या 06 तक पहुंच जायेगी. ये हल्के लड़ाकू विमान (लाइट काॅम्बेट एयरक्राफ्ट एलसीए) पुराने पड़ चुके मिग-21 की जगह लेंगे. तेजस की स्कावड्रन का नाम भी वही है जो मिग-21 का था यानि 55 स्कावड्रन, जिसे 'फ्लाईंग-डैगर्स' के नाम से भी जाना जाता है.

 वायुसेना एचएएल से 120 तेजस खरीदेगा. सूत्रों के मुताबिक, एक तेजस की कीमत करीब ढाई सौ (250) करोड़ रूपये है.

1983 मे शुरू हुए इस प्रोजेक्ट की कीमत करीब 560 करोड़ रुपये थी, लेकिन अब इसकी कीमत 10,398 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है. 

पिछले साल यानि अप्रैल 2015 में सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस स्वदेशी विमान पर कई सवाल खड़े किए थे. रिपोर्ट में प्रोजेक्ट के 20 साल पीछे चलने, ट्रैनर एयरक्राफ्ट ना होने,  प्रोजेक्ट की बढ़ती कीमत और विमान की तकनीक और फाइनल ऑपरेशनल क्लीयरेंस पर भी सवाल खड़े किए गए थे.

Saturday, June 25, 2016

चीनी सीमा पर तैनात होंगी अमेरिकी तोपें

रक्षा मंत्रालय ने आज थलसेना के लिए अमेरिका से 145 अल्ट्रा लाइट होवित्ज़र तोपें खरीदने का रास्ता साफ कर दिया है. सेना की नई माउंटन स्ट्राइक कोर के लिए खरीदी जाने वाली इन तोपों की कीमत 750 मिलयन डाॅलर है.

रक्षा मंत्रालय की अपेक्स कमेटी, रक्षा खरीद परिषद (डिफेंस एक्युजेशन कमेटी यानि डीएसी) ने आज इस सौदे को हरी झंडी दी. रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, अमेरिका से एम-777 तोपें सीधे फाॅरेन मिलेट्री सेल्स (एफएमएस) रूट से आयात की जायेंगी.

इन तोपों में कुछ को सीधे आयात किया जायेगा और बाकी को भारत मे ही एसेम्बल किया जायेगा.

जानकारी के मुताबिक, चीन की बढ़ती ताकत को देखते हुए ही सेना की बंगाल के पानागढ़ में नई माउंटेन स्ट्राइक कोर तैयार की जा रही है. उसी को देखते हुए हल्की तोपें अमेरिका से खरीदी जा रहीं हैं. इन तोपों को चीनी सीमा पर तैनात किया जायेगा. ये तोपें इतनी हल्की हैं कि हेलीकाॅप्टर से पैरा-ड्राॅप तक किया जा सकता है.

अल्ट्रा लाइट होवित्जर के साथ-साथ रक्षा खरीद परिषद ने आज स्वदेशी 'धनुष' तोपों के निर्माण पर संतोष जताया. साथ ही इस महीने के अंत तक 03 धनुष तोपें सेना को इस्तेमाल करने की क्लीयरंस दी गई है. अगली 03 तोपें सितंबर तक देने के लिए कहा गया है. इसके अलावा 18 तोपें के निर्माण का रास्ता भी खोल दिया गया है.

डीएसी ने आज करीब 28 हजार करोड़ रूपये के सौदों और प्रोजेक्टस को हरी झंडी दी. इसमें नौसेना के लिए 13600 करोड़ के 06 मिसाइल शिप खरीदना भी शामिल है.

डीएसी की अध्यक्षता रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने की. बैठक में तीनों सेनाओं के प्रमुख सहित रक्षा राज्यमंत्री और रक्षा सचिव भी मौजूद थे.

भारत बना परमाणु त्रिशक्ति देश !


भारतीय वायुसेना आज दुनिया की पहली ऐसी एयरफोर्स बन गई है जिसके जंगी बेड़े में सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल जुड़ गई है. इसके साथ ही आज भारत परमाणु त्रिशक्ति देश भी बन गया है. यानि जरूरत पड़ने पर भारत थल,जल और आकाश से न्युक्लिर हमला करने में सक्षम हो गया है.

जानकारी के मुताबिक, नासिक में आज एचएएल एयरपोर्ट पर वायुसेना के फ्रंट-लाइन लड़ाकू विमान, सुखोई-एमकेआई का फोर्मिडेवल सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल, बह्मोस के साथ टेस्ट-फ्लाई किया गया. ये परीक्षण सफल रहा. अगले कुछ महीनों में बह्मोस के एयर-वर्जन मिसाइल का सुखोई विमान से टेस्ट फायर किया जायेगा.

ये पहला ऐसा मौका है जब सुपरसोनिक फाइटर प्लेन से सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का टेस्ट फ्लाई किया गया. किसी भी देश की वायुसेना के पास ऐसी तकनीक नहीं है. 

बह्मोस कंपनी के अधिकारियों के मुताबिक, बह्मोस मिसाइल के जंगी बेड़े में शामिल होने से भारतीय वायुसेना की रेंज और ताकत में बड़ा इजाफा हुआ है. इससे दुश्मन की सीमा में सुखोई अंदर तक हमला (डीप-पैनिट्रेशन) करने में सक्षम हो गई है. इससे वायुसेना विदइन और बियोंड विजयुल रेंज हमला कर सकती है.

गौरतलब है कि बह्मोस मिसाइल न्युक्लिर वाॅर-हेड ले जाने में सक्षम है. यानि परमाणु मिसाइल सुपरसोनिक स्पीड से फायर कर सकती है. इसीलिए इस मिसाइल को दुनिया की सबसे घातक मिसाइल मानी जाती है. इसके सुखोई विमान के साथ जुड़ने से इसकी मारक क्षमता कई गुना बढ़ गई है.

भारत के सरकारी रक्षा उपक्रम, डीआरडीओ ने इस मिसाइल को रशिया की मदद से तैयार किया है. इसके लिए इसी नाम से ('बह्मोस') एक नई कंपनी तैयार की गई है. जिसमें भारत और रशिया की बराबर की भागीदारी है. बह्मोस मिसाइल पहले से ही थलसेना और नौसेना की जंगी बेड़े मे शामिल है. अब वायुसेना मे शामिल होने से भारत परमाणु त्रिशक्ति बन गया है.

Friday, June 24, 2016

जल्द पूरा होगा राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का सपना !


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक, नेशनल वॉर मेमोरियल यानि युद्ध-स्मारक के लिए रक्षा मंत्रालय जल्द ही ग्लोबल एड यानि विज्ञापन निकालने वाला है. इस विज्ञापन के जरिए मंत्रालय देश-विदेश के आर्किटेक्ट, कंपनियां से युद्ध स्मारक के डिजाइन के लिए सुझाव मंगाएगा. खास बात ये है कि इस डिजाइन के लिए कोई साधारण व्यक्ति भी अपनी राय और सुझाव दे सकता है. पीएम मोदी ने सेना और रक्षा मंत्रालय को आदेश दिया था कि अगले दो साल यानि 2018 तक वॉर मेमोरियल और म्यूजियम बनकर तैयार हो जाना चाहिए. आदेश ये भी दिया है कि ये युद्ध स्मारक विश्व-स्तर का होना चाहिए.

नई प्लान के मुताबिक, युद्ध-स्मारक मौजूदा इंडिया गेट के बेहद करीब बनाया जायेगा. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आदेश दिया है कि 
ये वाॅर-मेमोरियल वर्ल्ड-क्लाॅस होना चाहिए. यानि जो भी विदेशी पर्यटक एक बार भारत आए तो वो इसे देखा बिना अपने देश ना लौटे. लेकिन इस बात का खास ध्यान रखा जायेगा कि इंडिया-गेट का सम्मान किसी भी तरह से कम ना होने पाए. साथ ही युद्ध-स्मारक बनने के बाद भी इंडिया-गेट का महत्व किसी भी तरीके से कम नहीं होगा.

युद्ध-स्मारक के साथ-साथ वॉर-म्यूजियम भी बनाया जायेगा. ये म्यूजियम इंडिया गेट के बेहद करीब प्रिंसेज-पार्क में बनाया जायेगा. इस म्यूजिमय में वॉर-ट्रॉफी यानि दुश्मन देशों से जीते हुए हथियार, टैंक और तोप रखे जायेंगे. साथ ही भारतीय सेना के गौरवपूर्ण इतिहास को भी यहां दर्शाया जायेगा. 15 एकड़ में फैला प्रिंसेज-पार्क एक ऐतिहासिक जगह. अंग्रेजों के समय में ये सैनिकों के बैरक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था. कहते हैं कि देश आजादी की घोषणा के बाद सबसे पहले तिरंगा यहीं फहराया गया था.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी किसी देश की यात्रा पर जाते हैं तो वहां के युद्ध स्मारक और शहीदों को नमन करना कभी नहीं भूलते. हाल ही में जब वे अमेरिका की यात्रा पर गए तो सबसे पहले उन्होनें अमेरिका के वॉर-मेमोरियल पर अपना सर नत-मस्तक किया. यही नहीं अमेरिका कांग्रेस के साझा-सत्र संबोधन में सबसे पहले उन्होनें वीर शहीदों को ही याद किया. लेकिन अपने देश में पीएम मोदी को वॉर-मेमोरियल की कमी हमेशा खलती रही है. यही वजह है कि दिल्ली में सत्ता संभालते ही पीएम मोदी ने सबसे पहले जिन महत्वकांक्षी योजनाओं की घोषणा की उनमें नेशनल वॉर मेमोरियल भी सबसे पहली थी.

मोदी सरकार के पहले ही बजट में वॉर-मेमोरियल और म्यूजियम के लिए अलग से 500 करोड़ रूपये की एक बड़ी राशि मुकरर कर दी गई. घोषणा ये भी की गई कि देश का युद्ध-स्मारक इंडिया गेट पर बनाया जायेगा. और अब करीब दो साल बाद वो घड़ी आ गई है जब युद्ध-स्मारक के लिए रक्षा मंत्रालय ग्लोबल एड यानि युद्ध-स्मारक के डिजाइन और स्ट्रक्चर के लिए विज्ञापन देने जा रही है. जल्द ही ये विज्ञापन दुनियाभर में जारी किया जायेगा. इसके जरिए कोई भी कंपनी, ग्रुप या फिर व्यक्ति भारत में तैयार होने वाले वॉर-मेमोरियल के लिए अपनी राय और डिजाइन दे सकता है. उसके बाद रक्षा मंत्रालय और सेना तय करेगी कि देश के पहले विश्व-स्तरीय युद्ध-स्मारक और म्यूजियम का डिजाइन कैसा होगा.

दीगर है कि पिछले 55 सालों से देश के युद्ध-स्मारक की मांग अधर में अटकी हुई है. पहली बार सेना ने वॉर-मेमोरियल की मांग वर्ष 1960 में की थी. लेकिन किसी ना किसी कारण ये मांग पूरी नहीं हुई. कभी गृह मंत्रालय तो कभी सुरक्षा-कारणों और ट्रैफिक-मैनेजमेंट को लेकर दिल्ली पुलिस इस युद्ध-स्मारक की मांग में अडंगा अटकाती रही. साथ ही कभी इस बात पर भी सहमति नहीं बन पाई कि आखिर देश का युद्ध-स्मारक कहां बनेगा. कभी यमुना-बैंक तो कभी रिज, तो कभी धौला-कुआं में वॉर-मेमोरियल बनाने का प्रस्ताव रखा गया. लेकिन सेना, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, दिल्ली पुलिस और शहरी विकास मंत्रालय में आम-सहमति कभी नहीं बन पाई.

वर्ष २०१२ में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने नेशनल वॉर मेमोरियल को इंडिया गेट पर बनाने के लिए इसलिए मना कर दिया।था क्योंकि उन्हें लगता था की इसके यहाँ बनने से इंडिया गेट की खूबसूरती काम हो जाएगी और टूरिस्ट यहाँ नहीं आएंगे.

शुरूआत में वाॅर-मेमोरियल बनाने की जिम्मेदारी शहरी विकास मंत्रालय को दी गई थी. लेकिन जब सालोसाल तक प्रोजेक्ट एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा तो सेना और रक्षा मंत्रालय को इसको तैयार करने की जिम्मेदारी दे दी गई. प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने सख्त आदेश दिए हैं कि वाॅर-मेमोरियल अगले दो साल यानि 2018 तक बनकर तैयार हो जाना चाहिए. पहले युद्ध-स्मारक बनाने के लिए पांच साल का समय था. साफ है कि पीएम चाहते हैं कि उनकी सरकार के पहले कार्यकाल से पहले ही वाॅर-मेमोरियल दुनिया के सामने हो.

देश की राजधानी, दिल्ली के बीचो-बीच अंग्रेजों ने इंडिया-गेट को युद्ध-स्मारक के तौर पर बनवाया था. लेकिन सेना का मानना था कि इंडिया-गेट को ब्रिटिश-सरकार ने पहले विश्व-युद्ध के शहीदों की याद में तैयार कराया था. इसलिए उसे सही मायनों में भारतीय सेना या यूं कहे हैं कि देश का युद्ध-स्मारक नहीं माना जा सकता है. ये बात जरुर है कि 1971 के पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में यहां पर एक जलती हुई मशाल जरुर लगाई गई. ये मशाल चौबीसों घंटे और 12 महीने जलती रहती है. तीनों सेनाओं के जवान दिन-रात इसकी रखवाली करते हैं. अभी तक शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये सेना के बड़े अधिकारियों से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति यहीं आते हैं. अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए इंडिया-गेट के रुप में युद्ध-स्मारक तैयार कराया था. बाकयदा युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम तक इंडिया-गेट पर उकरे गए थे.

लेकिन आजादी के बाद से अबतक करीब 21 हजार भारतीय सैनिक अलग-अलग युद्ध और ऑपरेशन्स में अपनी जान देश पर न्यौछावार कर चुके हैं. लेकिन उनकी याद में अभी तक देश को अपना वॉर-मेमोरियल नहीं मिल पाया है. मोदी सरकार की घोषणा के बाद अब जाकर युद्ध-स्मारक को बनाने को लेकर सेना में नया जोश आ गया है. और इसको बनाने को लेकर तैयारियां जोरो-शोरों से शुरु हो गईं हैं.

सेना को वॉर-मेमोरियल बनाने में तो कोई  दिक्कत नहीं आने वाली है. क्योंकि इंडिया-गेट और उसके आसपास का एरिया पहले से ही रक्षा मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय के अधीन है. लेकिन वाॅर-म्यूजियम बनाने में सरकार को खासी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि प्रिंसेज-पार्क में जहां ये युद्ध-संग्रहालय बनाया जाना हैं वहां पर अभी सेना का ट्रांजिट-हॉस्टल है. और उसके साथ ही यहां पर दो सौ (200) से भी ज्यादा परिवार भी पिछले 30-40 सालों से रहते हैं.

प्रिंसेज पार्क के हॉस्टल में काम करने वाले ये सभी परिवार सिविलयन हैं. इन परिवारों के लिए बाकयदा यहां स्टॉफ क्वार्ट्स बने हुए हैं. करीब में ही दो दर्जन दुकानें भी बन गई हैं. इन परिवारों को हटाना और दुकानों को तोड़ना सेना के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. यही वजह है कि शहरी विकास मंत्रालय ने भी रक्षा मंत्रालय को साफ कर दिया है कि इस जमीन से किसी भी तरह का अवैध कब्जा हटाने कि जिम्मेदारी रक्षा मंत्रालय की ही है.

यहाँ  रहने वाले लोगों की इस मामले पर प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्हे ये जानकर बेहद निराशा हुई कि सरकार उन्हे यहां से विस्थापित करने वाली है. उनका मानना है कि वे यहां आजादी के पहले से यहां रह रहे हैं. ना केवल उनके बाप-दादाओं ने अंग्रजों की सेवा की बल्कि वाॅर-मेमोरियल की घोषणा होने तक वे सेना के बड़े अधिकारियों की सेवा में थे. उनके घरों से लेकर सीएसडी कैंटीन तक में भी वे उनकी सेवा करते थे. लेकिन क्योंकि मामला देश के शहीदों और गौरव से जुड़ा है तो वे ये जगह खाली करने के लिए तो तैयार हैं लेकिन सरकार को उनके पुर्नवास के लिए जरूर सोचना चाहिए.


Saturday, June 4, 2016

सीएजी की अनदेखी भारी पड़ी सेना पर: आयुध डिपो हुआ खाक

 सीएजी रिपोर्ट 2015
मंगलवार को महाराष्ट्र के पुलगांव में सेंट्रल एम्युनेशन डिपो में लगी भीषण आग में अब तक कुल 19 लोगों की जान चली गई है. 16 लोग अभी भी जिंदगी और मौत के बीच अस्पताल में जूझ रहे हैं. लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि इतनी बड़ी आग इतने संवदेनशील क्षेत्र में लगी कैसे. और अगर लगी तो उसपर समय रहते काबू क्यों नहीं पाया गया. क्या सेना के पास इस तरह की भीषण आग रोकने के लिए जरुरी साजों-सामान और फायर-स्टॉफ की कमी है ? ये सवाल इस लिए उठ रहा है क्योंकि सीएजी ने एक साल पहले ही अपनी रिपोर्ट में एम्युनेशन डिपो में इस तरह की घटना और जरुरी अग्निशमन उपकरण की कमी को लेकर आगाह किया था. लेकिन ना तो सेना और ना ही रक्षा मंत्रालय ने इस और ध्यान दिया. नतीजा ये हुआ कि 19 लोगों की जान चली गई और सेना के लिए बेहद जरुरी गोला-बारुद भी नष्ट हो गया. वो भी तब जबकि खुद सेना गोला-बारुद की कमी झेल रही है. 

काॅम्पर्टोलर एंड ऑडिटर जनरल यानि देश की सबसे बड़ी ऑडिट एजेंसी, सीएजी ने अपनी हालिया रिपोर्ट में सेना और रक्षा मंत्रालय को इस खतरे के लिए पहले ही आगाह कर दिया था. एबीपी न्यूज के पास सीएजी की वो रिपोर्ट मौजूद है जिसमें साफ लिखा है कि सेना के डिपुओं में 65 प्रतिशत अग्निशमन उपकरणों और 47 प्रतिशत अग्निशमन स्टॉफ की कमी है.

वर्ष 2015 में जारी की गई ये रिपोर्ट सीएजी ने सेना के गोला-बारुद की कमी और उसके रख-रखाव पर जारी की थी. सीएजी ने इसके लिए सेना के आधा दर्जन से भी ज्यादा डिपुओं की पड़ताल की थी. सभी आयुध डिपो में कमोबेश यही हालात थे. खुद सीएजी ने अपनी इस रिपोर्ट में माना है कि एम्युनेशन डिपो में गोला-बारुद का भंडार होता है इसलिए ये हमेशा आग जैसी दुर्घटनाओं के जोखिम में काम कर रहे हैं. यानि सीएजी की रिपोर्ट सही साबित हुई है. 

आपको बताते चलें कि नागपुर से करीब 115 किलोमीटर की दूरी पर महाराष्ट्र के पुलगांव का ये केंद्रीय आयुध भंडार सेना का सबसे बड़ा और अपने-आपका एक मात्र भंडार है. माना जाता है कि ये एशिया का दूसरा सबसे बड़ा आयुध सेंटर है. यहां पर तोप और टैंको के गोला-बारूद के अलावा लैंड-माईंस, एंटी-टैंक माईंस, राईफल और बंदूकों के कारतूस भी स्टोर किए जाते हैं. पुलगांव का सेंट्रल एम्युनेशन डिपो सेना के लिए कितना जरुरी और संवदेनशील होता है इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि मिसाइल तक यहां रखी होती हैं. देश की अलग-अलग ऑर्डिनेंस फैक्ट्री से जो गोला बारूद आता है वो पहले यहीं लाकर रखा जाता है. इसके बाद सेना की जरूरत के हिसाब से यहां से गोला-बारुद कोर, कमांड और बाॅर्डर पर भेजा जाता है.

सेना के पास पुलगांव के केंद्रीय आयुध भंडार के अलावा 15 फील्ड एम्युनेशन डिपो स्टोर हैं. इसके अलावा हर कंपनी का अपना एम्युनेशन डिपो होता है जहां 2-3 दिन का गोला बारूद स्टोर होता है. इसके अलावा 17 सेंट्रल ऑर्डिनेंस डिपो और बड़ी तादाद में छोटे छोटे डिपो होते हैं.

सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में आयुध भंडारों और उनके रखरखाव करने वाली एजेंसियों के काम-काज पर भी बड़े सवाल उठाए हैं. रिपोर्ट में कहा गया कि सेना की हर कमांड की फायर स्टेशन कमेटियां की आखिरी बार 2002 और 2003 में बैठक हुई थी. रिपोर्ट में कहा गया कि डायरेक्टर जनरल ऑफ ऑर्डिनेंस सर्विस (डीजीओएस) ने 2011 में खुद माना था कि अग्नि-शमन उपकरण के जोखिम और उनके अंतर्गत आने वाले डिपोंओं की फायर स्टेशन कमेटियों को अपग्रेड करने की जरुरत है लेकिन 2013 तक भी अधिकतर भंडारों में इसको अंतिम रुप नहीं दिया जा सका.

सीएजी ने सेना के आयुध भंडारों पर अपनी रिपोर्ट पिछले साल यानि वर्ष 2015 में जारी की थी. लेकिन रिपोर्ट में साफ है कि गोला-बारुद भंडार में आग जैसी दुर्घटनाओं से लड़ने के लिए जरुरी ना केवल जरुरी साजों-सामान और कर्मचारी हैं बल्कि इच्छाशक्ति की भी कमी है. क्योंकि पुलगांव में लगी आग कोई पहली नहीं है. इससे पहले पुलगांव के आयुध भंडार में वर्ष 2005 में भी आग लगी थी. उस दौरान करीब 126 मैट्रिक-टन (एमटी) गोला बारूद नष्ट हुआ था, जिसकी कीमत करीब 22 करोड़ थी.

पुलगांव के केंद्रीय आयुध डिपो में लगी आग के अलावा वर्ष 2000 में भरतपुर स्थित आयुद्ध भंडार में आग लगी थी जिसमें 387 करोड़ का नुकसान हुआ था और करीब 13 हजार मैट्रिक टन गोला बारूद नष्ट हुआ था. इसके अलावा 2001 में पठानकोट और गंगानगर भंडार में आग लग चुकी है. 2002 मे डपार और जोधपुर में, और 2007 में खुंडरू (जम्मू-कश्मीर) के डिपो में आग की घटना सामने आ चुकी है. इन सभी दुर्घटनाओं की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में आग का कारण अचानक चिंगारी, शोर्ट-सर्किट, टेस्टिंग और रिपेयर के दौरान धमाका होना पाया गया है. यानि एक छोटी सी गलती से एक बड़ा हादसा हो सकता है. वो भी तब जबकि सेना गोला-बारुद की कमी से जूझ रही है.

सीएजी रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ था कि सेना के पास करीब 20 दिन तक युद्ध लड़ने का ही गोला-बारुद मौजूद है. जबकि मिनमम वॉर रिर्जव यानि न्यूनतम 40 दिन का गोला-बारुद सेना के पास हमेशा मौजूद होना चाहिए. ऐसे में पुलगांव जैसी आग की दुर्घटनाओं में सेना का वॉर-रिर्जव और कम हो जाता है. जो हमारी सेना के लिए बेहद चिंता का कारण है.

जानकारी के मुताबिक, मारे गए 19 लोगों में से 13 रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करने वाले फायर-सर्विस के कर्मचारी थे. सेना के मुताबिक, इन लोगों के चलते ही आग पुलगांव के डिपो में सिर्फ एक शेड में ही लगी थी. वहां पर इस तरह के करीब 30 शेड हैं. अगर आग दूसरे शेडों में फैल जाती तो स्थिति और भयावह हो सकती थी. लेकिन इन 13 कर्मचारियों ने आग को एक शेड से आगे नहीं बढ़ने दिया, और आग से लड़ते-लड़ते अपनी जान न्यौछावर कर दी. खुद डिपो के डिप्टी कमांडेंट कर्नल ध्यानेंद्र सिंह बुरी तरह जख्मी हो गए.