Thursday, January 22, 2015

फ्रॉम रशिया विद लव !



कम ही लोग जानते हैं कि रशिया ऐसा पहला देश था जिसने भारत को सबसे पहले स्वतंत्र देश के रुप में मान्यता दी थी. जी हां, रुस ने भारत को आजादी की आधिकारिक घोषणा से पहले, यानि अप्रैल 1947 में ही स्वतंत्र देश मान लिया था—यानि ब्रिटेश राज से (पूरी) आजादी (अगस्त 1947) मिलने से चार महीने पहले ही मित्र-राष्ट्र घोषित कर दिया था. इतना ही नहीं अपनी एंबेसी यानि दूतावास भी दिल्ली में स्थापित कर दिया था. 
 
       इतिहास गवाह है कि रुस से हमारे संबंध सिर्फ 70 साल पुराने नहीं बल्कि करीब 500 साल पुराने हैं. रशिया के ज़ार (राजा) ने अपना पहला मिशन मुगलकाल में ही भारत भेज दिया था. 1695 में मुगल शासक औंरगजेब के दरबार में रुस का पहला दूत आया था और उसे प्रशस्ति-पत्र भी मिला था. इससे पहले एक रुसी व्यापारी अफांसे निकितिन तो 15वीं सदी में ही भारत पहुंच गया था--यानि वास्को डिगामा से भी पहले. जानकारी तो ये भी मिलती है कि मुगल शासन की भारत में नींव रखने वाले बाबर ने भी अपना एक दूत रशिया भेजा था.

      आजादी के बाद भारत और रुस के रिश्ते और अधिक प्रगाढ़ हुए. एक नए राष्ट्र को जिस भी चीज की जरुरत पड़ी, चाहे वो हथियार हों, टैंक, फाइटर एयरक्राफ्ट, मिसाइल, पनडुब्बियां या युद्धपोत या फिर कोई दूसरी सैन्य सहायता , टैक्नोलोजी हो, ऊर्जा हो या फिर कर्ज, रुस ने भारत को दिल खोल कर दिया. इस बात का अंदाजा बेहद आसानी से लगाया जा सकता है कि अगर रुस ने हमारी सहायता ना की होती तो हमारे देश का (भारी) उद्योग कैसा होता—होता भी यहां नहीं. भारत भले ही अपनेआप के गुटनिरपेक्ष देश की श्रेणी में रखता हो, लेकिन दुनिया जानती है कि शीत-युद्ध के दौरान भारत किसके ज्यादा करीब था. 1971 युद्ध में पाकिस्तान की मदद करने आ रहा अमेरिका का एयरक्राफ्ट कैरियर अगर बंगाल की खाड़ी से भाग खड़ा हुआ था तो वो सिर्फ इसलिए की रुस की पनडुब्बियां उसने नेस्तानबूत करने वहां पहुंच गईं थीं. ऐसी थी कभी भारत की रुस से दोस्ती--और पाकिस्तान की अमेरिका से. लेकिन शीत-युद्ध के खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत के रुस से संबंधों में थोड़ा लचीलापन आ गया.

       शीत-युद्ध के खात्मे के बाद और 90 के दशक के आखिरी सालों में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार बनने के बाद भारत का रुझान अमेरिका की तरफ होने लगा. एक बार फिर मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी सरकार बनने के बाद भारत और अमेरिका के रिश्तों में गर्मजोशी आ गई है. प्रधानमंत्री मोदी के गणतंत्र दिवस परेड में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को बतौर चीफ-गेस्ट बुलाने और न्यौता स्वीकार करने से दुनियाभर में दोनों देशों के संबधों की चर्चा जोरो पर हैं.
 
रुसी रक्षा मंत्री दिल्ली में रक्षा मंत्रालय के लॉन में गार्ड ऑफ ऑनर लेते हुए

      गणतंत्र दिवस को अब महज चंद दिन बचे हैं. पूरा देश अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के इंतजार में आंखे लगाए बैठा है. ऐसे में ओबामा की यात्रा से ठीक पहले रशिया के रक्षा मंत्री का भारत दौरा कई मायने में अहम हो जाता है. रुस के रक्षा मंत्री सर्जई शोयगु तीन दिन (21-23 जनवरी) के भारत दौरे पर आए हुए हैं. ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या रुस को भारत के अमेरिका के करीब जाने का डर सता रहा है. क्या भारत से ऐतिहासिक सैन्य रिश्तों को एक बार फिर मजबूत करने पर जोर दे रहा है रशिया.

     कुछ दिनों पहले ही रुस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन भी भारत के दौरे पर आए थे. लेकिन उनकी यात्रा ने इतनी सुर्खियां नहीं बंटोरी थी, जितनी ओबामा की यात्रा पर घर-घर में चर्चा हो रही है.

        ऐसे में भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का वो हालिया (22 जनवरी का) बयान गौर करने वाला है जो उन्होनें रुस और अमेरिका पर दिया है. मनोहर पर्रिकर से जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा से भारत की अपेक्षाओं के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, अगर हम अपने बड़े मित्र देशों से अच्छे संबंध रखते हैं तो हमारी बहुत से समस्याएं खुद-ब-खुद दूर हो जाती हैं.दूसरा सवाल जब रक्षा मंत्री से रशिया के डिफेंस मिनिस्टर की यात्रा के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, मैने उनसे कई प्रोजेक्टस पर धीमी चल रही चाल को तेज करने के लिए कहा है...मैंने उनसे एफजीएफए (फिफ्थ जेनेरशन फाइटर एयरक्राफ्ट) के खरीदने के बारे में भी बात की है और क्योंकि हम उनके कई विमान और मशीनरी इस्तेमाल करते है तो उनके स्पेयर पार्टस भी मेक इन इंडियाके तहत ही भारत में बनाने का आग्रह किया है.
        
      रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के इन दोनों बयानों से साफ हो जाता है कि भारत के लिए ये दोनों महाशक्तियां अब क्या मायने रखती हैं. शीतयुद्ध के वक्त अमेरिका और रुस (सोवियत संघ) दोनों ही सुपर-पॉवर थीं. लेकिन शीतयुद्ध के खत्म होने के बाद दुनिया में सिर्फ एक ही महाशक्ति बची है, और वो है अमेरिका-यानि बड़ा देश. और इस बड़े देश से मित्रता करने में हमें कई फायदे हैं. पहला तो ये कि पाकिस्तान समर्थित प्रॉक्सी-वॉर पर लगाम लगाई जा सकती है. यानि पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद पर अमेरिका पाकिस्तान के कान खींच सकता है. दूसरा ये कि चीन जैसे बड़े (शक्तिशाली) देश को सीधे भिड़त से दूर रखा जा सकता है. तीसरा, ये कि यूएन की सुरक्षा-परिषद में स्थायी सदस्य बनने का मौका मिल सकता है और दुनिया में शक्तिशाली देशों की श्रेणी में भारत का नाम भी शुमार हो सकता है.


       वहीं रुस से पिछले करीब 70 सालों के संबंधों में अब वो तीव्रता नहीं रही है. उसकी चाल सुस्त पड़ गई है. उसमें तेजी लाने की जरुरत है. भले ही भारत की सैन्य ताकत का अभिप्राय बन चुके मिग, सुखोई, मी-17, आईएनएस विक्रमादित्य हमें रुस से ही प्राप्त हुए हैं, लेकिन वहीं सी-17 ग्लोबमास्टर, पी8-आई, चिनूक और अपॉचे जैसे अटैक हेलीकॉप्टर हमें अमेरिका से मिल चुके हैं या मिलने वाले हैं. यानि अब हम सिर्फ अपनी सैन्य जरुरतों के लिए रुस तक ही सीमित नहीं है.   

        रुस भी अब भारत को ही अपने हथियार, विमान और हेलीकॉप्टर नहीं बेचता है. वो भारत के धुर-विरोधी और दुश्मन पाकिस्तान को भी हेलीकॉप्टर बेच रहा है. क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि रोल बदल रहे हैं. शीतयुद्ध के वक्त रुस और भारत की दोस्ती वैसी ही थी जैसी पाकिस्तान और अमेरिका की हुआ करती थी. लेकिन अब उल्टा हो गया है. भारत जितना करीब अमेरिका के आ गया है, पाकिस्तान उतना तो नहीं लेकिन धीरे-धीरे रशिया से सैन्य संबंध स्थापित करना शुरु कर दिया है.  हाल ही में रुस के रक्षा मंत्री ने पाकिस्तान की यात्रा की थी और अफगानिस्तान में और अपने देश के आंतकियों से निपटने के लिए अटैक हेलीकॉप्टर देने का वादा किया था.
      जानकारों की मानें तो आज के वैश्विक दौर में (शीत-युद्ध के बाद) जब दुनिया में कोई ग्रुप या धड़े नहीं बचे हैं तो हर कोई (देश) हर किसी देश के साथ संबंध बनाने में विश्वास रखता है. इसीलिए अगर कभी भारत के लिए बेहद ही रुखा व्यवहार रखने वाला अमेरिका आज हमारे इतने करीब आ गया है, तो हमें रुस के पाकिस्तान को हथियार या हेलीकॉप्टर बेचने पर ज्यादा आपत्ति नहीं होनी चाहिए. वैसे भी भारत के लिए सुपर-पॉवर अमेरिका से दोस्ती रखना एक बेहतर विकल्प है क्योंकि हमने रुस से अपने संबंधों को कभी खत्म नहीं किया है. यहां ये बात दीगर है कि भले ही दूसरे देशों के साथ हमारे संबंधों में उतार-चढ़ाव आता रहा हो लेकिन रशिया से प्यार की दोस्ती हमेशा बरकरार है.

Sunday, January 18, 2015

चीन की 'मोतियों की माला' से कैसे बच पाएगा भारत ?

भारत और चीन की सेनाओं के अधिकारी एलएसी पर एक मीटिंग के दौरान

1962 के चीन युद्ध के बाद से ही भारत के ड्रैगन से रिश्ते बेहद संवदेनशील रहे हैं. वास्तविक नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानि एलएसी) पर चीनी सेना की आए दिन घुसपैठ से इन रिश्तों में खटास और अधिक बढ़ जाती है. ऐसे में अगर रक्षा मंत्रालय का एक बड़ा फौजी अधिकारी सार्वजनिक रुप से ये कह दे कि भारत को चीन के स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स से चौकन्ना रहना होगा तो सभी के कान खड़े हो जाते हैं. 

    क्या वाकई ये मोतियों की माला भारत के गले में कभी भी कसने का काम कर सकती है. क्या मोतियों की लड़ी से वक्त पड़ने पर भारत का गला घोेंटा जाता सकता है.  आखिर क्या है ये चीन का स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स. भारत को कैसे रहने होगा चौकन्ना. इसको समझने से पहले रक्षा मंत्रालय के उस बड़े सैन्य अधिकारी का वो पूरा बयान जान लेते हैं जो उसने हाल ही में डिफेंस से जुड़े एक बड़े सम्मेलन में दिया था.

   
सीआईडीएस, एयर मार्शल पी पी रेड्डी
5 जनवरी 2015 को देश के सबसे बड़े व्यापारिक और औद्योगिक संगठनों में से एक, एसौचैम (एसोसियटड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने राजधानी दिल्ली में
रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता नाम के एक सम्मेलन का आयोजन किया था. रक्षा मंत्री से लेकर रक्षा क्षेत्र की कंपनियों के बड़े-बड़े सीईओ और एमडी उसमें शामिल हुए थे. साथ ही शामिल हुए थे रक्षा मंत्रालय के एकीकृत रक्षा स्टॉफ के चीफ (चीफ ऑफ इंटीग्रेटड डिफेंस स्टॉफ यानि सीआईडीएस) एयर मार्शल पी पी रेड्डी. सम्मेलन के आखिरी सत्र में पी पी रेड्डी को संबोधित करना था.

    सीआईडीएस, एयर मार्शल रेड्डी ने जैसे ही सम्मेलन में बोलना शुरु किया, हर कोई स्तब्ध रह गया. अपने पॉवर प्वाइंट भाषण में एक-एक कर रेड्डी ने बताया कि सामरिक और भौगोलिक (जियोस्ट्रेटैजिक) नक्शे पर भारत की स्थिति क्या है. उन्होनें बताया कि हमारे देश के उत्तर में चीन है और पश्चिम में पाकिस्तान है. दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हैं. दोनों ही देशों से हमारे युद्ध हो चुके हैं. पाकिस्तान की चीन से नजदीकियां किसी से छिपी नहीं रही हैं. ऐसे में अगर दोनों देशों से एक साथ युद्ध की नौबत आ गई तो हम क्या करेंगे. यानि दो-दो मोर्चों पर एक साथ परमाणु युद्ध के लिए भारत को तैयार रहना होगा.
  
    रेड्डी ने कहा कि “...चीन का बढ़ता (क्षेत्रीय) दबदबा, आर्थिक क्षमता और अपने उद्योग के लिए संसाधनों की बढ़ती भूख के चलते चीन हमारे पड़ोसी देशों से राजनयिक संबध कायम कर रहा है... उन्हें (पड़ोसी देशों) लोन दे रहा है, उनके यहां बदंरगाह बनवा रहा है, हथियारों की सप्लाई कर रहा है....चीन हमारे चारों तरफ स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स बनाना चाहता है.

    ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का जिक्र आज से करीब दस साल पहले (2005 में) अमेरिकी के रक्षा मंत्रालय ने एशिया में ऊर्जा का भविष्य नाम की एक खुफिया रिपोर्ट में किया था. पेंटागन की इस रिपोर्ट में चीन द्वारा समुद्र में तैयार किए जा रहे मोतियोंका विस्तृत विवरण दिया गया था. ये समुद्र में पाए जाने वाले मोती नहीं बल्कि दक्षिण चीन सागर से लेकर मलक्का-स्ट्रैट, बंगाल की खाड़ी और अरब की खाड़ी तक (यानि पूरे हिंद महासागर में) सामरिक ठिकाने (बंदरगाह, हवाई पट्टी, निगरानी-तंत्र इत्यादि) तैयार करना था. हालांकि रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन ये ठिकाने अपने ऊर्जा-स्रोत और तेल से भरे जहाजों के समुद्र में आवागमन की सुरक्षा के लिए तैयार कर रहा है. लेकिन जरुरत पड़ने पर इन सामरिक-ठिकानों को सैन्य-जरुरतों के लिए भी इस्तेमाल कर सकता है.
चीन का स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स: साभार नीतिसेन्ट्रल.कॉम
   आइए जानते हैं कि चीन के ये मोती कहां-कहां हैं और इनका भारत की सुरक्षा को कैसा खतरा है. इसे समझने के लिए ऊपर दिए नक्शे को गौर से देखेंगे तो साफ हो जायेगा कि चीन की मोतियों की लड़ी आखिर किस तरह से भारत के लिए गले का फंदा भी बन सकता है.

    पेंटागन की खुफिया रिपोर्ट में बताया गया था कि अमेरिका के दक्षिण चीन-सागर और दक्षिण-पूर्व देशों में बढ़ते दबदबे के चलते ही चीन ने इन मोतियों की लड़ी को पिरोना शुरु किया था. अमेरिका का ताइवान को लेकर रुख चीन को नागवार गुजर रहा है, इसीलिए वो अमेरिका की तरह सुपर-पॉवर बनने की जुगत में जुटा है. अमेरिका से (आधुनिक) हथियारों की होड़ में जुट गया है चीन. लेकिन मोतियों की इस लड़ी को गौर से देखेंगे तो ये भारत के गले में भी खतरे की घंटी दिखाई पड़ती है.

      इसकी शुरुआत चीन ने दक्षिण चीन-सागर से शुरु की. यहां मौजूद हेनान द्वीप चीन का सबसे पहला मोती है. ये द्वीप चीन का एक बड़ा सामरिक ठिकाना है. इस द्वीप पर एक बड़ा एयरबेस तो है ही सर्विलांस सिस्टम भी मौजूद है. इस द्वीप से चीन पूरे साउथ चायना-सी पर नजर रखता है. वर्ष 2001 की वो घटना अमेरिका शायद ही भूल सकता है जब चीन के दो लड़ाकू विमानों ने एक यूएस स्पाई प्लेन को क्षतिग्रस्त कर हेनान द्वीप पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया और अमेरिकी सैनिकों को बंदी बना लिया था. बड़ी मुश्किल से अमेरिका इस संकट का टाल पाया था. लेकिन ये शायद पहली बार था कि चीन ने इस इलाके में अपनी प्रभुता का नमूना पेश किया था. ना केवल नमूना पेश किया बल्कि सुपरपॉवर अमेरिका के साथ-साथ पूरी दनिया को इस इलाके से दूर रहने और ड्रैगन से पंगा ना लेने की चेतावनी भी दे डाली थी.

      इसी तरह, चीन एशियान (एसोशियसन ऑफ साउथ-ईस्ट नेशन्स) देश कंबोडिया और थाईलैंड में अपने ठिकाने बनाने के साथ-साथ इस इलाके में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है.
  
     अगर भारत की गले में स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की बात करें तो सबसे पहले देखें की चीन ने म्यांमार (बर्मा) में अपना रुतबा कायम करना शुरु कर दिया था. म्यांमार में लोकतंत्र की गैर-मौजूदगी और मिलैट्री-शासन के चलते भारत ने अपने पड़ोसी देश से कभी मजबूत राजनयिक संबध नहीं कायम किए. इस बात का फायदा चीन ने उठाया और करोड़ो रुपये की सैन्य सहायता दे डाली. इतना ही नहीं बर्मा के सिटवे पोर्ट को भी चीन ने ही तैयार किया, जो कोलकाता से ज्यादा दूर नहीं है. साथ ही मलक्का-स्ट्रैट के करीब बने बर्मा के कोको-द्वीप में ना केवल हवाई-पट्टी बना ली है बल्कि इलैक्ट्रॉनिक-इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने की एक पूरी इकाई स्थापित करली है. ये कोको द्वीप भारत के अंडमान-निकोबर द्वीप से मात्र पैतीस (35) किलोमीटर की दूरी पर हैं. पेंटागन की रिपोर्ट में म्यांमार को चीन के सैटेलाइट के तौर पर संबोधित किया गया है.
साभार: चायना ब्रीफिंगडॉटकॉम

   चीन ने भारत के एक दूसरे पड़ोसी देश बांग्लादेश के चित्तागोंग बंदरगाह पर अपने लिए एक कंटनेर-पोर्ट तैयार किया है. साथ ही चीन बांग्लादेश से भी राजनयिक संबध मजबूत करने की ताक में है.

   भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित श्रीलंका में भी चीन ने हम्बनटोटा में बंदरगाह तैयार किया है. इस बंदरगाह पर हाल ही में चीन की पनडुब्बियों को देखा गया है. साफ है कि भले ही चीन ये कहे कि वो दूसरे देशों में बंदरगाह पूरी तरह से व्यापारिक दृष्टिकोण से तैयार कर रहा है. लेकिन श्रीलंका में उसकी पनडुब्बियों की मौजूदगी ने साफ कर दिया है कि व्यापारिक-बंदरगाहों को जरुरत पड़ने पर सैन्य-बंदरगाहों में भी तब्दील किया जा सकता है. यहां ये बात गौरतलब है कि हम्बनटोटा बंदरगाह को विकसित करने के लिए श्रीलंका ने सबसे पहले भारत से ही आग्रह किया था. लेकिन इससे पहले की भारत तैयार होता, चीन ने श्रीलंका को जरुरी मदद करने की पेशकश कर डाली और भारत मुंह ताकता रह गया. साफ है कि भारत की गलत (विदेश और सामरिक) नीतियां ही उसके लिए गले का फंदा बन रहीं हैं.

    अब बात करते हैं भारत के चिरपरिचित दुश्मन पाकिस्तान की, जहां चीन लगातार अपने पैर पसार रहा है. पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन ने ही तैयार किया है. कराची से करीब 250 मील दूर बने इस पोर्ट से पाकिस्तान का समुद्री-व्यापार तो आसान हुआ ही है, सामरिक दृष्टि से भी ये बेहद महत्वपूर्ण है. 1971 युद्ध में भारत की नौसेना ने कराची बंदरगाह को तहस-नहस कर डाला था. ऐसे में पाकिस्तान को जररुत थी एक वैकल्पिक पोर्ट की. जो चीन ने ग्वादर-बंदरगाह को तैयार कर पूरा कर दिया है. लेकिन ये पोर्ट हालांकि चीन और पाकिस्तान व्यापारिक बंदरगाह की श्रेणी में रखना पसंद करते हैं. लेकिन जानकारों की मानें तो इस बंदरगाह की गहराई से ही साफ हो जाता है कि ये युद्धपोतों के अलावा पनडुब्बियों के लिए भी सुरक्षित पोर्ट है. ग्वादर पोर्ट से होर्मोज-स्ट्रैट भी बेहद करीब है. इसके अलावा चीन ने कराची और ग्वादर बंदरगाहों के बीच का हाईवे भी तैयार करने में पाकिस्तान की (आर्थिक) मदद की है.

   भले ही चीन इस बात का दावा करे कि वो ये सभी बंदरगाह अपने व्यवसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिए तैयार कर रहा है. लेकिन इतिहास गवाह है कि चीन अपने व्यापार को मिलेट्री-सहायता देने में गुरेज नहीं करता है—जैसा कि हर देश को करना चाहिए. 15वीं सदी के शुरुआत में जब चीन के मिंग-राजवंश ने अपना समुद्री-काफिला व्यापार करने के लिए दुनियाभर में भेजा था तो उसके साथ पूरे 72 युद्धपोत भेजे थे, ताकि उन्हे समुद्री-डकैतों और विरोधी देशों की नौसेनाओं से मुकाबला किया जा सके.

   चीन लगातार अपना प्रभाव अफ्रीकी देशों में भी दिनोदिन बढ़ा रहा है. सूडान, कांगो और अंगोला जैसे देशों से चीन लगातार अपने सबंध कायम कर रहा है. ये वे देश हैं जिनसे ना तो पश्चिम की विकसित देश तो दूर विकासशील देश भी राजनयिक संबध कायम करने में कतराते हैं. चीन इन अफ्रीकी देशों से तेल के साथ-साथ बड़े व्यापारिक समझौते कर रहा है.  वर्ष 2008 में स्ट्रैटजिक-एनैलेसिस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के 25 अफ्रीकी-देशों के साथ मिलैट्री-राजनयिक संबध थे. जबकि भारत के इस दौरान सिर्फ चार डिप्लोमेट नौ अफ्रीकी देशों को (राजनयिक तौर पर) संभालते हैं. इसी तरह बीजिंग में 18 अफ्रीकी देशों के मिलेट्री-अटैचे थे जबकि दिल्ली में मात्र सात.

   बस यही डर सीआईडीएस पी पी रेड्डी को सता रहा है. और इसी के लिए वे भारत की फौज और रक्षा उपक्रमों को भविष्य में तैयार रहने के लिए आगाह कर रहे है. एयर मार्शल रेड्डी ने अपने भाषण में कहा कि “...हमारी अर्थव्यवस्था और रक्षा उपक्रम हमें चीन से स्पर्धा करने से रोक देते हैं. हमारे पड़ोसी देश हमारी तरफ ताक रहे हैं (लोन, हथियार और दूसरे सामरिक जरुरतों के लिए) लेकिन हम उनकी जरुरतें पूरी नहीं कर पाते हैं.
साभार: विशफुलथिंकिंग.वर्ल्डप्रेस.कॉम

   दरअसल, एयर मार्शल रेड्डी की चिंता वही है जो पूरे देश के सैन्य-तंत्र की है. और वे ये कि भारत दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के आयात करने वाले देशों में से एक है. मोदी सरकार की  मेड इन इंडिया पॉलिसी से पहले शायद ही हमारी सरकारों ने देश को रक्षा के क्षेत्र में स्वावलंबन बनाने की दिशा में इतना बड़ा कदम उठाया है. ना ही हमारी किसी सरकार ने निजी कंपनियों को रक्षा क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया है. मोदी सरकार ने दिल्ली में राजकाज संभालने के तुरंत बाद ही रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष रुप से 49 फीसदी (26 प्रतिशित से बढ़ाकर) विदेशी निवेश को हरी झंडी दे दी. इन दोनों नीतियों का सीधा-सीधा मतलब ये था कि देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर करना है.  ना केवल आत्मनिर्भर बनना बल्कि जरुरत पड़ने पर अपने पड़ोसी (मित्र) देशों को सामरिक मदद करना. और इस की शुरुआत एक तरह से हो भी चुकी है.
मॉरीशस को निर्यात किए जाने वाला देश में निर्मित पहला ऑफशोर-पैट्रोल शिप

  भारत ने हाल ही में मॉरिशस को देश में ही निर्मित एक पैट्रोलिंग शिप दिया है. ये पहली बार है कि भारत ने किसी देश को स्वेदशी युद्धपोत निर्यात किया है. इसी तरह से एशियान देश वियतनाम को भी ऐसे ही युद्धपोत देने के प्रकिया शुरु हो गई है. खबर तो यहां तक है कि भारत जल्द ही वियतनाम को दुनिया की सबसे खतरनाक बह्मोस मिसाइल देने वाला है. वियतनाम से भारत के सामरिक संबंध चीन के स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की काट में खासी मदद कर सकते हैं.
इसी तरह भारत ने पिछले कई दशकों के बाद म्यांमार के साथ संबंध सुधारने की पहल की है. 

  एशियान की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी के पहुंचने से पहले ही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां पहुंच गई थीं. साफ है कि भारत अब वहां की मिलेट्री-जुंटा सरकार से सबंध बनाने में गुरेज नहीं करता है. इसी तरह से (मोदी) सरकार के बनने के बाद ही विदेश मंत्री की बांग्लादेश यात्रा बताती है कि भारत के लिए उसके (अब तक उपेक्षित पड़े) पड़ोसी देश कितने जरुरी हैं. यहां तक की भारत ने कई वर्ग-किलोमीटर विवादित जमीन बांग्लादेश को दे दी है. जो इस और इशारा करता है कि भारत अपने सभी पड़ोसी देशों से प्रगाढ़ रिश्तों की तरफ अग्रसर है.
पीएम मोदी नेपाल के प्रधानमंत्री को 'गिफ्ट' देते ध्रुव-हेलीकॉप्टर

   खुद पीएम मोदी इसी नीति पर चलते हैं कि अपने सभी पड़ोसी देशों (नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान) को नकारकर भारत दुनिया की बड़ी ताकत नहीं बन सकता है. नेपाल को स्वेदशी ध्रुव हेलीकॉप्टर गिफ्ट करना पीएम मोदी की इसी विदेश-नीति का सूचक है. और प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहली विदेश यात्रा पर भूटान जाना भी यही दर्शाता है. यहां ये बात दीगर है कि भारतीय थलसेना के प्रमुख, नेपाल की सेना के होनोररी-प्रमुख भी होते हैं. और भूटान की रॉयल-सेना का प्रशिक्षण भी भारतीय सेना ही करती है. इस साल इंडियन मिलेट्री एकेडमी में अफगानिस्तान के करीब एक दर्जन कैडेट भारतीय कैडेट्स के साथ ही पास होकर अपने देश (अफगानिस्तान) की सेना में नियुक्त हुए हैं. अगर चीन के श्रीलंका से गूढ़ संबध स्थापित हो रहे हैं तो भारत के चीन के कभी सबसे कट्टर दुश्मन रहे मंगोलिया से सामरिक संबध किसी से छिपे नहीं हैं.

   शीत-युद्ध के बाद दुनिया में एक मात्र सुपर-पॉवर अमेरिका से चीन अगर होड़ करना चाहता है तो वो ये भूल जाता है कि एशिया में उसके दो सबसे भरोसेमंद दोस्त भारत और जापान मौजूद हैं. अमेरिकी नौसेना मालाबार-युद्धभ्यास भारत और जापान के साथ ही मिलकर करती है.

   अगर चीन ने म्यांमार में सैन्य-पांव पसार दिए हैं तो भारत भी अब वहां (म्यांमार) के सिटवे पोर्ट पर अपना व्यापारिक-बंदरगाह तैयार करने लगा है. ये बंदरगाह कालडन नदी के जरिए भारत के मिजोरम से जुड़ जायेगा ताकि वहां से कार्गो-जहाज आवागमन कर सके. इसी तरह अगर चीन पाकिस्तान के ग्वादर में पोर्ट बना रहा है तो भारत भी ईरान के चाहबर-पोर्ट बनाने में जुट गया है. अगर पाकिस्तान परमाणु शक्ति है तो ईरान भी न्यूकिलर-पॉवर बनने की और अग्रसित है. यानि भारत भी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स बनाना जानता है.

फुटनोट्स
1. चायना बिल्ड्स अप स्ट्रैटजिक लाईंस, वाशिंगटन टाइम्स...17 जनवरी 2005
2. स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स: मीटिंग द चैलेंज ऑफ चायनाज राईजिंग पॉवर (स्ट्रैटजिक स्टीडज इंस्टीटयूट, जुलाई 2006)
3. चायनाज स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स इन इंडियन ओशियन: स्ट्रैटजिक एनैलैसिस फरवरी 2008

Friday, January 9, 2015

कदम-कदम बढ़ाए जा...

पीएम मोदी ने अपने मन की बात तीनों सेनाओं के सामने रखी कि इस साल की परेड में तीनों सेनाओं की तरफ से एक-एक टुकड़ी महिलाओं की होगी


वर्ष 1950 में भारत के गणतन्त्र राष्ट्र घोषित होने के बाद से ही हर साल 26 जनवरी को दिल्ली के राजपथ पर गणतन्त्र-दिवस परेड का आयोजन किया जाता है. माना जाता है कि भारत की गणतन्त्र-दिवस परेड दुनियाभर में सबसे बेहतरीन है. अगर कोई दूसरा देश है जो भारत को सार्वजनिक रुप से अपने शक्ति-प्रर्दशन में टक्कर देता है तो वो है चीन. 
 
     हर साल भारत की आन-बान-शान का नमूना होती है गणतन्त्र दिवस परेड. अलग-अलग राज्यों, मंत्रालयों और विभागों की रंग-बिरंगी झांकियां और कला-संस्कृति की अनूठी मिसाल पेश करती है ये परेड. जमीन पर अगर परेड में साथ ही होते हैं टैंक, तोप, मिसाइल और आधुनिक रक्षा-प्रणाली तो आसमान में होते है एयरफोर्स के आधुनिक फाइट एयरक्राफ्ट. लेकिन इन सबसे बढ़कर होती है वीर जवानों के कदम-ताल करती परेड. आर्मी, एयरफोर्स, नेवी, अर्द्धसैनिक-बल और पुलिस के जवान जब राजपथ पर मार्च-पास्ट करते हैं तो वहां बैठे लोगों ही नहीं बल्कि टीवी के जरिए लाइव प्रसारण देखने वाले लाखों भारतवासी मंत्रमुग्ध हो उठते हैं. जो कोई भी इस परेड को देखता है तो वो अनायस ही कह उठता है “...कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाए जा...

   लेकिन इस साल यानि वर्ष 2015 की गणतन्त्र दिवस परेड कई मायनों में अलग है और देशवासियों के साथ-साथ दुनियाभर की निगाहें 26 जनवरी की तरफ लगी हुई है.
पहली तो ये दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र, अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा इस साल गणतन्त्र दिवस परेड के मुख्य-अतिथि हैं. ये पहली बार है कि कोई अमेरिका का राष्ट्रध्यक्ष इस परेड की शान बढ़ाने आ रहा है. दुनियाभर में बेहद लोकप्रिय राजनेता समझे जाने वाले बराक ओबामा के भारत दौरे से साफ जाहिर हो जाता है कि दुनिया के (सामरिक) मान-चित्र पर भारत का महत्व कितना बढ़ रहा है.

    लेकिन बराक ओबामा का सुरक्षा-प्रोटोकोल उनके परेड़ में शामिल होने के बीच में अड़ंगा पैदा कर रहा है. दरअसल, सुरक्षा के मद्देनजर ओबामा किसी दूसरे मुल्क में किसी भी स्थान (सार्वजनिक स्थान पर) 20 मिनट से ज्यादा नहीं बैठ सकते हैं. जबकि गणतन्त्र दिवस परेड डेढ़ से दो घंटे तक चलती है. इसबार की परेड और ज्यादा चलने की उम्मीद है. रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों की मानें तो इस बार परेड की समय-सीमा ढाई घंटे की है. ऐसे में या तो ओबामा को हर 20 मिनट पर अपना स्थान बदलना पड़ेगा या फिर उन्हे परेड से उठकर जाना पड़ेगा. लेकिन दोनों ही सूरत में ये देश के महामहिम राष्ट्रपति का अपमान करने जैसा है. क्योंकि अब तक की मान्यता ये है कि जबतक राष्ट्रपति राजपथ पर होने वाली परेड में शामिल (बैठे) रहते हैं तबतक ना तो कोई भी वहां से उठकर जा सकता है और ना ही अपना स्थान बदल सकता है.
  
    मुश्किल ये भी आ रही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जब भी किसी दूसरे देश की यात्रा पर जाते हैं तो अपनी खास कैडेलिक कार साथ लेकर जाते हैं. ये कार ना केवल आधुनिक हथियारों से लैस है बल्कि उसमें एमरजेंसी की हालत से निपटने के लिए खास पैनिक बटन भी मौजूद रहता है जिसका सीधा कनेक्शन यूएस के स्ट्रेटजिक कमांड से जुड़ा हुआ है. जबकि अब तक की परेड  परंपरा पर नजर डालेंगे तो पायेंगे कि परेड का मुख्य-अतिथि राष्ट्रपति की लैमोजिन कार में ही सवार होकर राजपथ पहुंचता है.

     जानकारों की मानें तो ओबामा की सुरक्षा-प्रोटोकोल से जुड़े मुद्दों को जल्द से जल्द सुलझा लिया जायेगा.

     लेकिन इस साल की परेड का सबसे बड़ा आकर्षण अगर अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा हैं तो हमारे देश की महिला-शक्ति भी इस साल की परेड का एक दूसरा (अहम) आकर्षण है. पहली बार ऐसा होने जा रहा है कि थलसेना, वायुसेना और नौसेना की परेड की कमान महिला टुकड़ियां संभालेंगी. यानि तीनों सेनाओं की टुकड़ियों के सबसे आगे होगी महिला टुकड़ियां. महिला अधिकारियों से परेड का संचालन कराने का आईडिया किसी और का नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया है. दरअसल, जैसे ही ये बात तय हुई है कि इस साल की परेड में बराक ओबाम मुख्य-अतिथि होंगे, प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों सेनाओं को ये विचार दिया कि इस बार परेड में क्या नया हो सकता है. और इसी नए सोच के साथ पीएम मोदी ने अपने मन की बात तीनों सेनाओं के सामने रखी कि इस साल की परेड में तीनों सेनाओं की तरफ से एक-एक टुकड़ी महिलाओं की होगी.

    दरअसल, ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने इससे पहले गणतन्त्र-दिवस परेड में भाग नहीं लिया हो. कई बार महिला अधिकारियों ने पूरी की पूरी टुकड़ी का संचालन किया है. पैरा-मिलिट्री यानि सीआरपीएफ की महिला टुकड़ियों ने पहले भी परेड में हिस्सा लिया है. लेकिन वहां महिलाओं की पुूरी की पूरी बटालियन हैं. लेकिन इस बार नया ये है कि तीनों सेनाओं की पूरी टुकड़ी ही महिलाओं की होगी. एक टुकड़ी में करीब 148 जवान और अधिकारी होते हैं. इस लिहाज से तीनों सेनाओं की 148-148 महिला अधिकारी परेड में हिस्सा लेंगी.


    इसके लिए तीनों सेनाओं को खासी मशक्कत करनी पड़ी है. क्योंकि भारत में अभी भी सेनाओं में महिलाओं का अनुपात बेहद कम है. सेना में महिलाएं की नियुक्ति (तीनों अंगों में) सिर्फ अधिकारी पद के लिए होती है. यानि महिलाएं लेफ्टिनेंट के पद से ऊपर ही नियुक्त की जा सकती हैं. पैदल-सैनिक के तौर पर उनकी नियुक्ति नहीं होती है. साथ ही वे सेना के उन्हीं पदों और विभागों के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं जो सीधे युद्ध से ना जुड़े हों. वर्ष 2006 में एकीकृत रक्षा स्टाफ और 2011 में ट्राई-सर्विस हाई लेवल कमेटी (यानि तीनों सेनाओं की उच्च-कमेटी) अपनी-अपनी रिपोर्ट में साफ कर चुकी हैं कि महिलाएं गैर-युद्ध वाली पोस्टिंग के लिए ही उपयुक्त हैं. जैसे सेना की मेडिकल कोर, शिक्षा कोर, ज्यूडिशयल ब्रांच (जज-एडवोकेट जनरल यानि जैग) इत्यादि. यहां तक की महिलाओं को एयरफोर्स में लड़ाकू विमानों के पायलट के तौर पर ही उपयोगी नहीं माना गया है. यानि महिलाएं फायटर-पायलट भी नहीं बन सकती हैं.

    सेना के शिक्षा और जैग ब्रांच को छोड़ दें तो महिलाएं सीमित समय के लिए ही सेनाओं में काम कर सकती हैं यानि शोर्ट सर्विस कमीशन (SHORT SERVICE COMMISSION). ऐसे में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा कि तीनों सेनाओं में महिलाओं का अनुपात किया है. रक्षा मंत्रालय के आंकड़ो पर नजर डालें तो पता चलेगा कि थलसेना में महिलाओं की कुल संख्या है मात्र 1300. भारतीय सेना की कुल संख्या है करीब 13 लाख (जिनमें से करीब 37 हजार पुरुष अधिकारी हैं). यानि महिलाओं का पुरुष अधिकारियों से अनुपात है 1:28. इसका अर्थ सीधा-सीधा ये है कि 28 पुरुष अधिकारियों में एक महिला है. इसी तरह से वायुसेना में महिलाओं की संख्या है 1334 जिसका अनुपात है 1:8 (पुरुष अधिकारियों की संख्य है करीब 11 हजार). अगर नेवी की बात करें तो महिलाओं की संख्या है मात्र 337 जबकि भारतीय नौसेना की कुल संख्या है 60 हजार (करीब 8 हजार अधिकारी).

     ऐसे में तीनों सेनाओं को गणतंत्र दिवस परेड के लिए अपनी-अपनी 148 महिलाओं को चुनना एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. क्योंकि परेड के लिए चुनने के लिए मात्र महिला होना ही काफी नहीं है. इस परेड के लिए कड़ी मेहनत से गुजरना पड़ता है. सभी को एक के साथ एक कदमताल करना पड़ता है. साथ ही अगर पिछली सभी परेड का इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि हर टुकड़ी में मार्च-पास्ट करने वाले सभी जवान लगभग एक कद-काठी और रंग-रुप के होते हैं. ऐसे में इतनी कम महिलाओं की संख्या में एक-जैसी कद-काठी की महिला अधिकारियों को ढूंढना एक टफ-जॉब साबित हो रहा है. लेकिन तीनों सेनाएं प्रधानमंत्री के इस विचार को पूरा करने में लगातार लेफ्ट-राइट-लेफ्ट कर रही हैं.

    जब हम बात कदम से कदम मिलाने की करते हैं तो परेड में सभी जवानों के हाथ भी एक साथ उठने और नीचे जाने चाहिए. लेकिन इस बार की परेड में एक विवाद भी खड़ा हो गया है. दरअसल, परेड की रिहर्सल के दौरान पाया गया कि वायुसेना और नौसेना के जवान मार्च-पास्ट करते वक्त अपना हाथ कंधे के ऊपर तक ले जा रहे हैं. जबकि थलसेना के जवान कंधे तक ही अपना हाथ लेकर जाते हैं. परेड के सुपरवाईजरी अधिकारियों ने इस तरफ ध्यान दिया तो एयरफोर्स और नेवी के जवानों ने साफ कर दिया कि उन्हे इसी तरह (कंधे से ऊपर हाथ ले जाने की) प्रेक्टिस कराई गई है.

          मामले ने तूल पकड़ा तो थलसेना ने 1961 के रक्षा नियम (डिफेंस सर्विस रेग्यूलेशन एक्ट) का हवाला देते हुए रक्षा मंत्रालय में तीनों सेनाओं के बड़े अधिकारियों की मीटिंग बुलाई. लेकिन मीटिंग बेनतीजा निकली. यानि परेड के मात्र 12-13 दिन पहले तक, तीनों सेनाओं के हाथ से हाथ बढ़ाने पर विवाद कायम हैं. ऐसे में अब रक्षा मंत्रालय को हस्तेक्षप करना पड़ सकता है.
 
   साथ ही पहली बार नौसेना भी अपनी ताकत का प्रर्दशन गणतन्त्र दिवस परेड में करनी वाली है. अभी तक आसमान में वायुसेना के फाइटर प्लेन ही कलाबाजियां करते हुए देखे जा सकते थे, लेकिन इस बार नौसेना के एवियशन विंग के खास जहाज इस परेड की शोभा बढ़ाएंगे.