Sunday, December 18, 2016

बिपिन रावत बने नए सेनाध्यक्ष-'योग्यता' ने मारी बाज़ी ?

बिपिन रावत: नए सेना प्रमुख
सरकार ने आज नए सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुखों के नाम की घोषणा कर दी. सबसे हैरानी हुई है थलसेना प्रमुख के नाम पर. सरकार ने सह-सेना प्रमुख बिपिन रावत को नया सेनाध्यक्ष बनाने की घोषणा की है. बिपिन रावत 31 दिसम्बर को रिटायर हो रहे जनरल दलबीर सिंह की जगह भारतीय सेना के 27वें सेनाध्यक्ष होंगे. बिपिन रावत सेना में फिलहाल वरिष्ठता में तीसरे नंबर पर थे. नए वायुसेनाध्यक्ष के तौर पर आज बी एस धनोआ का ऐलान किया गया. वे भी 31 दिसम्बर को रिटायर हो रहे एयर चीफ मार्शन अरुप राहा की जगह लेंगे.  

सेना में अभी तक वरिष्ठता को ही वरीयता देते हुए सेनाध्यक्ष की घोषणा की जाती रही है. ऐसे में बिपिन रावत के नाम ने सभी को हैरान कर दिया. बिपिन रावत भले ही सह-सेनाध्यक्ष यानि वाईस चीफ ऑफ चीफ स्टाफ के पद पर तैनात हों, लेकिन पूर्वी कमान के कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीन बख्शी और दक्षिणी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल पी एम हैरिज़ सीनियोरिटी में उनसे ऊपर थे.

सूत्रों के मुताबिक, सेना के सभी लेफ्टिनेंट जनरल्स में बिपिन रावत को “सबसे उपयुक्त पाया गया.” जनरल रावत “उत्तर ( यानि चीन से) उभरती चुनौतियों और उसके लिए पुर्नगठित किए गए सैन्यबल सहित आंतकवाद और पश्चिम ( यानि पाकिस्तान के) प्रोक्सी-वॉर से निपटने तथा उत्तर-पूर्व की परिस्थितियों से निपटने के लिए सबसे उपयुक्त पाया गया.”
भारतीय सेना: गोरखा अधिकारियों का बोलबाला
बिपिन रावत को सेना में हाई-ऑलिट्यूड यानि उंचाई पर युद्ध लड़ने और काउंटर-इंनसर्जेंसी ऑपरेशन्स के एक्सपर्ट के तौर पर जाना जाता है. मीडिया-स्ट्रटेजी में डॉक्टरेट रखने वाले बिपिन रावत ने अपने 38 साल के कार्यकाल में एलओसी, चीन सीमा और उत्तर-पूर्व में एक लंबा वक्त बिताया है. उनका “सैनिकों के प्रति संतुलित दृष्टिकोण तो है ही, साथ ही नागरिक-समाज के साथ जुड़ा माना जाता है.” दक्षिणी कमांड की कमान संभालते हुए उन्होनें पाकिस्तान से सटी पश्चिमी सीमा पर मैकेनाइजड-वॉरफेयर के साथ-साथ वायुसेना और नौसेना के साथ बेहतर समन्वय और सामंजस्य बैठाया.

मूल रुप से उत्तराखंड के रहने वाले बिपिन रावत ने 1978 में सेना ज्वाइन की थी. उन्हे इंडियन मिलेट्री एकेडमी (आईएमए) में स्वार्ड ऑफ ऑनर’ से नवाजा गया था.  उन्होनें सेना की 11वीं गोरखा राईफल्स की पांचवी (5) बटालियन ज्वाइन की थी. (मौजूदा सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह भी गोरखा अधिकारी हैं.)  बिपिन रावत ने कश्मीर घाटी में पहले राष्ट्रीय-राईफल्स में ब्रिगिडेयर और बाद में मेजर-जनरल के तौर पर इंफंट्री डिवीजन की कमान संभाल. साथ ही चीन सीमा पर कर्नल के तौर पर इंफेंट्री बटालियन की कमान भी संभाली थी. वे दीमापुर स्थित तीसरी कोर के जीओसी पर रह चुके हैं (दीमापुर में कार्यरत के दौरान ही वे एक बड़े हेलीकॉप्टर दुर्घटना में बाल-बाल बचे थे). इसके अलावा सेना मुख्यालय में डीजीएमओ कार्यालय और कांगो में यूएन-पीसकीपिंग फोर्स की ब्रिगेड की कमान संभाल चुके हैं.
अब क्या करेंगे प्रवीन बख्शी
वेलिंगटन स्थित डिफेंस सर्विस स्टाफ और नेशनल डिफेंस कॉलेज से हायर कोर्स करने के अलावा वे आईएमए और आर्मी वॉर कॉलेज, महूं में भी इंस्ट्रक्टर रह चुके हैं.

लेकिन जानकारों के मुताबिक, बिपिन रावत ने कभी भी सेना की दो सबसे महत्वपूर्ण कमांड (उत्तरी और पूर्वी) में से एक की भी कमान नहीं संभाली है. जबकि प्रवीन बख्शी (जम्मू-कश्मीर स्थित) उत्तरी कमांड में चीफ ऑफ स्टाफ और फिलहाल (कोलकता स्थित) पूर्वी कमांड की कमान संभाले हुए है. 

33 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि सरकार ने वरिष्ठता को दरकिनार करते हुए बिपिन रावत को सेना प्रमुख बनाया है. 1983 में इंदिरा गांधी ने एस के सिन्हा की जगह जूनियर अधिकारी ए एस वैद्य को सेना प्रमुख बनाया था. उसके बाद से सबसे सीनियर लेफ्टिनेंट जनरल को ही सेनाध्याक्ष बनाए जाने की पंरपरा थी.

माना ये भी जा रहा है कि बिपिन रावत को इंफेंट्री-अधिकारी होने का फायदा मिला है. क्योंकि प्रवीन बख्शी आर्मर्ड (यानि टैंक रेजीमेंट के) अधिकारी है. रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर पहले ही कई सार्वजनिक मंचों पर इस बात का ऐलान कर चुके थे कि (मोदी) सरकार ‘वरिष्ठता की बजाए योग्यता’ को तबज्जो देती है. 
विवादों से दूर रही नए वायुसेनाध्यक्ष की नियुक्ति
नए वायुसेना प्रमुख बी एस धनोआ ने भी 1978 में एक फाइटर पायलट के तौर पर वायुसेना ज्वाइन की थी. कारगिल युद्ध में वायुसेना की तरफ से उन्होनें एयर-ऑपरेशन्स में हिस्सा लिया था. वे भटिंडा स्थित उस मिग-फाइटर प्लेन स्कॉवड्रन के कमांडिग ऑफिसर (सीओ) थे जिसके अधिकारी अजय आहूजा करगिल युद्ध में शहीद हुए थे.  करगिल युद्ध में उन्हें युद्ध-सेवा मेडल से नवाजा गया था. वे फिलहाल सह-वायुसेना प्रमुख के तौर पर एयर-हेडक्वार्टर में तैनात हैं. इससे पहले वे साउथ-वेस्टर्न कमांड की कमान संभाल चुके हैं. उनके पिता एस एस धनोआ पंजाब के चीफ सेक्रटेरी रह चुके हैं. 

Friday, December 16, 2016

जवान की कस्टडी को लेकर सेना प्रमुख को कानूनी नोटिस



सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह की पलटन में एक जवान की एलओसी पर तैनाती को लेकर अफसरों में आपसी टकराव हो गया है. नेपाल के रहने वाले इस जवान के वकील ने सेना द्वारा 'गैर-कानूनी' तरीके से उसके मुवक्किल को 'मिलेट्री-कस्टडी' में रखने का विरोध करते हुए सेनाध्यक्ष और रक्षा मंत्री को कानूनी-नोटिस भेजा है. 

ये अजीबो-गरीब मामला सामने तब आया जब गोरखा राईफल्स की 2/1 यूनिट के एक राईफलमैन टेक बहादुर थापा को गोरखा ट्रेनिंग सेंटर के कमांडेंट ने 28 दिनों की मिलेट्री-कस्टडी (यानि सैन्य-जेल) में भेज दिया. इसका विरोध ना केवल राईफलमैन की यूनिट ने किया है बल्कि उसके वकील ने भी किया है. वकील का कहना है की अधिकारियों की आपसी खीचतान में एक बेकसूर जवान को सताया जा रहा है. बतातें चलें कि सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह और सह-सेनाध्यक्ष विपिन रावत भी गोरखा रेजीमेंट से ताल्लुक रखते हैं.

दरअसल, पूरे मामले की शुरूआत होती है इस साल के फरवरी में जब राईफलमैन टेक बहादुर थापा को उसकी यूनिट (2/1 गोरखा) से 179 दिनों के लिए सुबाथु स्थित गोरखा ट्रेनिंग सेंटर (शिमला के करीब) में 'प्रशासनिक ड्यूटी' के लिए भेजा गया था. उसे ये डयूटी खत्म करने के बाद अगस्त महीने में वापस अपनी यूनिट मे रिपोर्ट करना था. लेकिन वो तय-समय पर अपनी यूनिट वापस नहीं लौटा.

इस बीच उरी हमले और फिर सर्जिकल स्ट्राइक के बाद एलओसी पर पाकिस्तान से तनातनी बढ़ी तो 2/1 गोरखा के सीओ (कमांडिंग ऑफिसर) कर्नल ललित जैन ने ट्रैनिंग सेंटर के कमांडेंट, ब्रिगेडयर आर एस रावत को राईफलमैन टेक बहादुर थापा थापा को वापस यूनिट भेजने के लिए कहा. उस वक्त ये यूनिट एलओसी पर तैनात थी. सीओ ने कमांडेंट को बताया कि इस वक्त एलओसी पर हालात सही नहीं है और जवानों की जरूरत है. इसलिए टेक बहादुर को फौरन यूनिट वापस भेज दिया जाए. लेकिन बताया जा रहा है कि कमांडेंट ने ऐसा नहीं किया.

इस बीच टेक बहादुर थापा कि यूनिट के एक अधिकारी ने उसे फोन पर आदेश दिया कि वो फौरन एलओसी पर रिपोर्ट करे. टेक बहादुर ने अपने वरिष्ठ अधिकारी की आज्ञा का पालन किया और 16 नबम्बर को वहां पहुंच गया. बस इसी बात से ट्रैनिंग सेंटर के कमांडेंट और दूसरे अधिकारी नाराज हो गए. 

इसके बाद कमांडेंट आय एस रावत ने 2/1 यूनिट के सीओ से कहा कि वे टेक बहादुर को वापस भेज दें ताकि कागजी कारवाई के बाद उसे ट्रेनिंग सेंटर से यूनिट के लिए 'डिस्पेच' किया जाए. इसके बाद टेक बहादुर को 27 नबम्बर को एक बार फिर ट्रेनिंग सेंटर भेजा दिया गया. लेकिन वहां पहुंचने पर कमाडेंट ने उसे बिना बताए सेंटर छोड़कर जाने के लिए 28 दिन की कठोर कारावास की सजा सुना दी. एक दिसम्बर को ये सजा सुनाई गई थी जिसके बाद से वो मिलेट्री-जेल में है.

सजा की खबर मिलने के बाद टेक बहादुर की यूनिट के सीओ ने ट्रेनिंग सेंटर के कमांडेंट को कड़ी चिठ्ठी लिखते हुए इस सजा पर ऐतराज जताया है. साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को भी पूरे मामले से अवगत कराया.

इस बीच टेक बहादुर के वकील अजय शर्मा ने ट्रेनिंग सेंटर के कमांडेंट आर एस रावत सहित सेना प्रमुख, रक्षा मंत्री और पश्चिमी कमान के कमांडर को कानूनी नोटिस भेजकर उसे जल्द रिहा करने के लिए कहा है. वकील अजय शर्मा ने कहा कि अगर सेना ने टेक बहादुर को रिहा ने किया तो वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे. अजय शर्मा के मुताबिक, आर्मी एक्ट के मुताबिक, किसी भी जवान को सजा देने का अधिकार उसकी यूनिट के सीओ को है. ट्रेनिंग सेंटर के कमांडेंट और दूसरे अधिकारियों को टेक बहादुर को सजा देना का हक नहीं है.

इस मामले पर सेना मुख्यालय का कहना है कि ये आर्मी का 'आंतरिक और प्रशासनिक मामला' है. लेकिन सूत्रों ने बताया कि दरअसल ये दो अधिकारियों की आपसी 'ईगो' यानि अहम की लड़ाई का नतीजा है जिसका खामियाजा एक सैनिक को उठाना पड़ रहा है.

Thursday, December 8, 2016

21वीं सदी की 'निर्णायक' सैन्य साझेदारी !


भारत को 'प्रमुख रक्षा पार्टनर' घोषित करते हुए अमेरिका ने आज कहा कि दोनों देशों की सैन्य-साझेदारी 21वीं सदी की 'निर्णायक साझेदारी' सबित होगी. 

अमेरिका के रक्षा सचिव ऐश्टन कार्टर ने आज राजधानी दिल्ली में घोषणा की कि भारत अमेरिका का 'मेजर डिफेंस पार्टनर' है. कार्टर ने ये घोषणा आज राजधानी दिल्ली में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर से मुलाकात के दौरान की. अपने कार्यकाल के खत्म होने पर कार्टर मित्र-देशों की यात्रा पर निकले हैं. ये पहली बार है कि अमेरिका का कोई रक्षा सचिव अपनी फेरवेल-वीजिट पर भारत आया है.

मुलाकात के बाद दोनों देशों ने साझा-बयान ('ज्वाइंट स्टेटमेंट') जारी किया. साझा बयान में कहा गया कि दोनों देश इस बात पर ध्यान देंगे कि आतंकवाद को किसी भी देश (पढ़े पाकिस्तान) का सरंक्षण ना मिल पाए. साथ ही कहा गया कि दोनों देश आतंक के खिलाफ एक दूसरे का सहयोग करेगें.

साझा बयान में कहा गया है कि दोनों देश एशिया-पैसेफिक और हिंद महासागर क्षेत्र में शांति और सम्पनता चाहते हैं.

पिछले दो सालो में कार्टर और पर्रीकर की ये सातवी मुलाकात है. मुलाकात के दौरान पर्रीकर ने कहा कि भारत और अमेरिका के बीच में जितने भी सैन्य समझौते पिछले दो सालों में हस्ताक्षर हुए हैं वे अब पूरे होने जा रहे है. पर्रीकर ने कहा कि दोनों देशों के संबंधों की जो नींव कार्टर ने डाली है वो आने वाले समय में और बड़ी हो जायेगी. 

कार्टर रक्षा सचिव के पद पर अगले महीने तक हैं. अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनालड ट्रंप ने सेना के पूर्व वरिष्ठ षैन्य अधिकारी, जेम्स मैटिस को अपना रक्षा सचिव बनाने की घोषणा की है.

गौरतलब है कि हाल के समय में भारत और अमेरिका के संबंध काफी मजबूत हुए हैं. अमेरिका भारत को अहम सैन्य साजों सामान मुहैया करा रहा है जिसमें एम-777 तोपें, मिलेट्री एयरक्राफ्ट, अटैक-हेलीकाॅप्टर और एयरक्राफ्ट-कैरियर से जुड़ी अहम तकनीक शामिल हैं. भारत ने अमेरिका से रक्षा तकनीक के लिए डीटीटीआई (डिफेंस टेक्नाॅलोजी एड ट्रेड इनीशियेटिव) नाम की संधि भी कर रखी है. हाल ही में दोनों देशों ने एक दूसरे के मिलेट्री-बेस को इस्तेमाल करने के लिए 'लेमोआ' (लाॅजिस्टिक एंड मेमोरेंडम एक्सचेंज एग्रीमेंट) समझौता भी किया है.

Tuesday, December 6, 2016

चीन की तर्ज पर हटेगा दिल्ली एयरपोर्ट से घना कोहरा

दिल्ली एयरपोर्ट पर घने कोहरे के कारण विमानों की आवाजाही में होने वाली समस्या जल्द दूर हो सकती है. दिल्ली एयरपोर्ट और मौसम विभाग एक साथ मिलकर ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं जिससे एयरपोर्ट पर कोहरे की चादर को को हटा जा सकेगा और ज्यादा से ज्यादा विमान उड़ान भर सकेंगे. ये ठीक वैसा ही प्लान है जैसाकि चीन ने कुछ साल पहले किया था.

सर्दी के मौसम में दिल्ली एयरपोर्ट पर घने कोहरे के कारण हर साल विमानों की उड़ान पर खासा असर पड़ता है. जिसके चलते हजारों यात्रियों को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ता है. इसी चुनौती को दूर करने के लिए ये प्रयोग किया जा रहा है. दिल्ली एयरपोर्ट को संचालित करने वाली कंपनी, जीएमआर के सीईओ ने आज ये जानकारी दी. 

घने कोहरे के दौरान यात्रियों को कम से कम परेशानी हो, उसपर आज मीडिया से बातचीत करते हुए जीएमआर कंपनी के सीईओ, आई प्रभाकर राव ने कहा कि "मौसम विभाग घने कोहरे के कणों ('पार्टिकल्स') की स्टडी कर रहा है ताकि उन्हें हवा से हटाया जा सके." प्रेस कांफ्रेंस में मौजूद मौसम विभाग के एक वैज्ञानिक ने बताया कि "ये प्रयोग चीन की तरह ही है."

दरअसल, वर्ष 2009 में चीन की राजधानी बीजिंग में कम्युनिस्ट शासन के 60 साल पूरे होने के मौके पर शानदार परेड होने वाली थी. लेकिन इस दौरान घना कोहरा छाया हुआ था. माना जाता है कि चीन के वैज्ञानिकों ने उस दौरान आसमान में मिसाइल दागकर कृत्रिम बारिश कर दी और घना कोहरा दूर हो गया था. यही तकनीक माना जा रहा है कि भारत के मौसम वैज्ञानिक इस्तेमाल करने जा रहे हैं.

आई प्रभाकर राव के मुताबिक, दिल्ली एयरपोर्ट पर 50 मीटर की विज़ीबिलेटी में भी विमान लैंड कर सकते हैं. लेकिन टेक-ऑफ के लिए कम से कम 125 मीटर की विजीबिलेटी होने चाहिए. उन्होने बताया कि एयरपोर्ट पर सीडीएम-सैल (कोलेब्रेटिव डिशीजन मेकिंग-प्रकोष्ठ) तैयार किया गया है. इस सेल में एयरपोर्ट संचालित करने वाली कंपनी (जीएमआर), एटीसी (एयर ट्रैफिक कंट्रोल) और मौसम विभाग सहित एयरलांइस कंपनियां शामिल हैं.

सीडीएम के जरिए कोहरे से जुड़ी सही जानकारी और फ्लाइट ऑपरेशन्स की डिटेल एक समय में सभी को एक साथ मिल जाती है. इससे एयरलाइंस कंपनियां यात्रियों को सही जानकारी सही समय में बताने में कारगर हैं (और यात्रियों को सही जानकारी मिलने से परेशानी कम हो सकेगी).

जानकारी के मुताबिक, हर साल नबम्बर से लेकर फरवरी तक करीब 20 दिन ऐसे होते हैं जब राजधानी दिल्ली में घना कोहरा होता है. इस दौरान करीब 100 घंटों तक फ्लाइट्स की आवाजाही पर काफी असर पड़ता है. अगर मौसम विभाग का (चीन की तरह) प्रयोग सफल रहा तो ये परेशानी 20 घंटे तक रह जायेगी.

Wednesday, September 14, 2016

राफेल फाइटर प्लेन : एशिया का गेम-चेंजर

फ्रांस के साथ हुए सौदे में जो 36 राफेल (या रफाल) फाइटर प्लेन भारत को मिलने वाले हैं, वे अत्याधुनिक हथियारों और मिसाइलों से लैस हैं. खास है दुनिया की सबसे घातक समझे जाने वाली हवा से हवा में मार करन वाली 'मेटेओर' मिसाइल. ये मिसाइल चीन तो क्या किसी भी एशियाई देश के पास नहीं है. यानि राफेल प्लेन वाकई दक्षिण-एशिया में गेम-चेंजर साबित हो सकता है.

सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, भारत ने राफेल सौदे में करीब 710 मिलियन यूरो (यानि करीब 5341 करोड़ रुपये) लड़ाकू विमानों के हथियारों पर खर्च किए हैं. गौरतलब है कि पूरे सौदे की कीमत करीब 7.9 बिलियन यूरो है यानि करीब 59 हजार करोड़ रुपये है.

रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर के मुताबिक, राफेल सौदा आखिरी चरण में है और आखिरी मुहर लगनी बाकी है. सौदे से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक, सौदे का प्रारुप तैयार किया जा रहा है और अगले कुछ दिनों में सौदे की घोषणा कर दी जायेगी. अभी ये सौदा इंटर गर्वमेंटल कमेटी के पास फाइनल होने के लिए भेजा गया है.

जानकारी के मुताबिक, वियोंड विज्युल रेंज ‘मेटेओर’ मिसाइल की रेंज करीब 150 किलोमीटर है. हवा से हवा में मार करने वाली ये मिसाइल दुनिया की सबसे घातक हथियारों में गिनी जाती है. इसके अलावा राफेल फाइटर जेट लंबी दूरी की हवा से सतह में मार करने वाली 'स्कैल्प' क्रूज मिसाइल और हवा से हवा में मार करने वाली 'माइका' मिसाइल से भी लैस है.

सूत्रों के मुताबिक, राफेल प्लेन में एक और खासयित है. वो ये कि इसके पायलट के हेलमेट में ही फाइटर प्लेन का पूरा डिस्पले सिस्टम होगा. यानि उसे प्लेन के कॉकपिट में लगे सिस्टम को देखने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी. उसका पूरा कॉकपिट का डिस्पले हेलमेट में होगा.

माना जा रहा है कि सौदे पर स्टैंप लगने के बाद पहला प्लने अगले 36 महीने में भारत पहुंच जायेगा. सभी 36 प्लेन अगले 66 महीने में भारतीय वायुसेना में शामिल होने के लिए तैयार हो जायेंगे.

जानकारी के मुताबिक, राफेल बनाने वाली कंपनी से भारत ने ये भी सुनिश्चित कराया है कि एक समय में 75 प्रतिशत प्लेन हमेशा ऑपरेशनली-रेडी रहने चाहिए. इसके अलावा भारतीय जलवायु और लेह-लद्दाख जैसे इलाकों के लिए खास तरह के उपकरण लगाए गए हैं.

राफेल का फुल पैकेज कुछ इस तरह है. 36 विमानों की कीमत 3402 मिलियन यूरो, विमानों के स्पेयर पार्टस 1800 मिलियन यूरो के हैं जबकि भारत के जलवायु के अनुरुप बनाने में खर्चा हुआ है 1700 मिलियन यूरो का. इसके अलवा पर्फोमेंस बेस्ड लॉजिस्टिक का खर्चा है करीब 353 मिलियन यूरो का.

Tuesday, September 13, 2016

सारागढ़ी की लड़ाई अब रुपहले परदे पर !


विश्व- प्रसिद्ध ऐतिहासिक ‘सारागढ़ी की लड़ाई’ पर जाने-माने फिल्मकार राजकुमार संतोषी फिल्म बनाने जा रहे हैं. आज राजधानी दिल्ली में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और सूचना एवम प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन राठौर ने फिल्म का मुहूर्त शॉट दिया. फिल्म में मुख्य भूमिका में हैं रणदीप हुड्डा.

सारागढ़ी की लड़ाई 12 सितबंर 1897 को पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर सारागढ़ी चौकी पर लड़ी गई थी. इस लड़ाई में 21 सिख योद्धाओं ने 10 हजार अफगानी कबीलाईयों से मुकाबला किया था. हालांकि लड़ते लड़ते सभी 21 सिख सैनिक शहीद हो गए थे, लेकिन मरने से पहले उन्होनें 600 अफगानियों को मौत के घाट उतार दिया था. करीब साढ़े छह घंटे चली इस लड़ाई में बेहद बहादुरी से लड़े इन वीर सैनिकों ने अफगानी कबीलाईयों को नाकों चने चबा दिए थे. यही वजह है कि यूनेस्को ने इस लड़ाई को इतिहास की आठ (08) सर्वश्रेष्ठ बहादुरी की गाथाओं में जगह दी है.

राजकुमार संतोषी ने इस फिल्म का टाइटल दिया है ’21 द लास्ट स्टैंड---द बैटेल ऑफ सारागढ़ी’. फिल्म के मुहूर्त शॉट के लिए राजधानी दिल्ली में सेना के मानेकशॉ-सेंटर में रणदीप हुड्डा और बाकी 20 सैनिकों को अंग्रेजों की फौज की वर्दी में मुहूर्त शॉट लिया गया. खास बात ये है कि मुहूर्त शॉट की क्लैपिंग केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने की और कैमरे पर थे मनोहर पर्रीकर और राज्यवर्धन राठौर. राजकुमार संतोषी ने फिल्म के महूर्त के लिए 12  सितम्बर का ही दिन चुना--यानी जिस दिन ये लड़ाई वास्तव में लड़ी गयी थी आज से 119 साल पहले. 

सारागढ़ी की लड़ाई की बारे में कम ही लोग जानते हैं. यही वजह है कि राजकुमार संतोषी इस लड़ाई को फिल्मी पर्दे पर उतारकर देश के आमजन तक पहुंचाने चाहते हैं. इस मौके पर बोलते हुए राजकुमार संतोषी ने कहा कि इस फिल्म के जरिए देश की गौरवगाथा का तो लोगों को पता चलेगा ही साथ ही सिखों को भी बालीवुड में एक उचित स्थान मिलेगा, जो अभी तक सिर्फ कॉमेडियन या फिर छोटे मोटे रोल तक सीमित रह जाते हैं. इस फिल्म के जरिए सिखों की बहादुरी की सच्ची कहानी लोगों तक पहुंचेगी. मिलेट्री इतिहास के जानकारों के मुताबिक हमारे देश के कम लोग ही इस विश्व-प्रसिद्ध जंग से वाकिफ हैं. हालांकि कई देशों की फौज में इस लड़ाई को (ट्रेनिंग) कोर्स के दौरान पढ़ाया जाता है--की कैसे विपरीत परिस्तिथियों में भी अपना मोर्चा नहीं छोड़ते हैं और दुश्मन से डटकर मुक़ाबला करते हैं.  

1897 में जब ये लड़ाई लड़ी गई थी उस वक्त हिंदुस्तान (यानि आज के भारत और पाकिस्तान में) अंग्रेजों की हुकुमत थी. ये 21 सिख सैनिक अंग्रेजी फौज का हिस्सा थे. ये सैनिक सिख रेजीमेंट का हिस्सा थे और नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (आज के पाकिस्तान में) सारागढ़ी किले की चौकसी का काम करते थे. बताते हैं कि इस इलाकों को अंग्रेजी हुकुमत से आजाद कराने के लिए अफगानी कबीलाईयों ने सारागढ़ी चौकी पर हमला बोल दिया था. लेकिन मात्र 21 सैनिकों ने मरते दम तक इस चौकी को नहीं छोड़ा. राजकुमार संतोषी के मुताबिक, ये 21 सैनिक चाहते तो सरेंडर भी कर सकते थे, लेकिन उन्होनें अपना कर्तव्य निभाना ज्यादा जरुरी समझा.

Wednesday, June 29, 2016

सातवें वेतन आयोग से नाखुश है सेना

सातवे वेतन आयोग से सेना नाखुश है. सूत्रों के मुताबिक, सातवे वेतन आयोग में कई विसंगतियां तो हैं ही, सेना द्वारा उठाईं गईं मांगों पर भी ध्यान नहीं दिया गया है.

खुद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा कि हालांकि उन्होनें काफी मांगों को मनवाने की कोशिश की, लेकिन 'कुछ मांगे' पूरी होने से रह गई हैं.

जानकारी के मुताबिक, 7वे वेतन आयोग के लिए सेना ने अपनी तीन-चार मुख्य मांगे रखी थीं.

1.      एनएफयू---नॉन फंक्शनल अपग्रेड. इसके ग्रेड के मुताबिक, एक ही बैच के सैन्य अधिकारियों को उनके  पद को देखे बिना बराबर सैलरी मिलनी चाहिए. यानि के 2005 बैच के सभी अधिकारियों को बराबर सैलरी मिलनी चाहिए. क्योंकि ऐसा हो सकता है कि इस बैच को कोई अधिकारी कर्नल के पद पर ही जबकि उसी बैच को कोई अफसर पदोन्निति के बाद ब्रिगेडियर के पद पर हो. जबकि सरकारी (सिविल सेवा) नौकरी में एक बैच के सभी आईएएस (आईपीएस इत्यादि) को एक ही सैलरी मिलती है (चाहे रैंक डायरेक्टर हो या ज्वाइंट-सेक्रेटरी). सेना की इस मांग को  सातवे वेतन आयोग ने नहीं माना है.

2.      एमएसपी—मिलेट्री सर्विस पेय. अभी तक एमएसपी सिर्फ ब्रिगेडयर रैंक तक के अधिकारियों को मिलती है. सेना की मांग है कि मेजर-जनरल और लेफ्टिनेंट-जनरल रैंक के अधिकारियों को भी एमएसपी मिलनी चाहिए. अभी तक एमएसपी सैनिकों की मुश्किल हालात में काम करने के लिए दी जाती है. लेकिन सेना की मांग है कि क्योंकि उनकों ना तो यूनियन और एसोशियन बनाने की इजाजत है और ना ही आवाज उठाने का अधिकार . इसलिए एमएसपी सीनियर अधिकारियों को भी मिलनी चाहिए. इस मांग को भी नहीं माना गया है.

3.      सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों के लिए एक समान ‘पेय-मैट्रिक्स’ हो----अभी तक सिविल और सैन्य दोनों के लिए अलग-अलग पेय मैट्रिक्स है. लेकिन सेना की मांग है कि क्योंकि सरकारी नौकरी में स्थिरता नहीं होती है जबकि फौज में रुकावट आ जाती है. इसलिए दोनों के लिए सामान पेय-मैट्रिक्स हो.

4.      मिलेट्री हज़ार्ड पेय (जोखिम भत्ता)---अभी ये भत्ता सरकारी कर्मचारियों का ज्यादा है. जबकि सैनिकों का कम है. सेना चाहती है कि ये बराबर हो. इसे अगर कैलकुलेट किया जाए तो गुवाहटी में कार्यरत सरकारी कर्मचारी का भत्ता, सियाचिन में तैनात सैनिक से ज्यादा होता है. सेना की मांग है कि इस तरह की विसंगतियों को दूर किया जाए. जहां नार्थ ईस्ट में तैनात एक आईएएस को 54 हजार का भत्ता मिलता है. तो सेना के एक अधिकारी को सियाचिन में 31 हजार रूपये का भत्ता मिलता है. जबकि सियाचिन में काम करना बेहद जोखिम भरा है.

सरकार का कहना है कि भत्ते को लेकर अलग से कमेटी बनाई जायेगी, जो तय करेगी कि क्या वाकई विसंगतियां है क्या.

जानकारों के मुताबिक, वेतन आयोग में सशस्त्र सेनाओं की भागीदारी नहीं थी. इसलिए आयोग के सदस्य सेनाओं की जरूरतों और उनके काम करने के हालातों को ठीक से समझ नहीं पाते. यहां तक की सेनाओं के प्रमुखों को भी आयोग में अपनी राय रखने का मौका नहीं दिया गया.

सेना इस बात से खुश नहीं है कि तीसरे वेतन आयोग के बाद से लगातार सेना को सिविल अधिकारियों के अपेक्षा कम तरजीह दी जाती आ रही है. लगातार सेना के अधिकारियों की सैलरी सिविल अधिकारियों के मुकाबले कम दी जा रही है. जबकि मुश्किल हालातों में चाहे वो युद्ध का मैदान हो या आतंकियों से लड़ना या फिर बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा या फिर सांप्रदायिक दंगे, वहां सिविल मशीनरी फेल होने के बाद सेना को ही बुलाया जाता है.

 यहां तक की हाल ही मे हरियाणा मे जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा को भी सेना ने ही शांत कराया था. यहां तक की बोरवेल में गिरे बच्चों को बचाने के लिए भी सेना की मदद ली जाती है.

जानकारी के मुताबिक, अब सेना में एक सिपाही (SEPOY) की सैलरी 21,700/ रुपये हो जायेगी. अभी तक एक सिपाही की पेय 8470/ रुपये है. इसी तरह से एक मेजर रैंक के अधिकारी की सैलरी करीब 70 हजार रुपये (69,700/) हो जायेगी. जबकि अभी तक एक मेजर की सैलरी 27,880/ रुपये है.

Monday, June 27, 2016

उड़ान भरने के लिए तैयार तेजस

1 जुलाई को वायुसेना को स्वदेशी लड़ाकू विमान, तेजस की पहली स्कावड्रन मिल जायेगी. शुरूआत में इस स्कावड्रन में 02 विमान होंगे. ये स्कावड्रन कोयम्बटूर के करीब शोलुर मे बेस होगी. लेकिन शुरूआत के दो ( 02 ) साल ये स्कावड्रन बैंगलुरू से ऑपरेट करेगी. 

लंबे इंतजार के बाद आखिरकार, स्वदेशी लड़ाकू विमान, तेजस भारतीय वायुसेना में आधिकारिक तौर से शामिल होने जा रहा है. 1जुलाई को पारंपरिक सैन्य तरीके से बैंगलूरू में वायुसेना की स्कावड्रन स्थापित की जायेगी.

लेकिन बताते चलें कि तेजस को फाइनल ऑपरेशनल क्लीयरेंस अभी तक नहीं मिली है. इस बारे में वायुसेना के अधिकारियों कहना है कि जल्द ही क्लीयरेंस मिल जायेगी.

जानकारी के मुताबिक, इस साल के अंत तक स्कावड्रन में तेजस विमानों की संख्या 06 तक पहुंच जायेगी. ये हल्के लड़ाकू विमान (लाइट काॅम्बेट एयरक्राफ्ट एलसीए) पुराने पड़ चुके मिग-21 की जगह लेंगे. तेजस की स्कावड्रन का नाम भी वही है जो मिग-21 का था यानि 55 स्कावड्रन, जिसे 'फ्लाईंग-डैगर्स' के नाम से भी जाना जाता है.

 वायुसेना एचएएल से 120 तेजस खरीदेगा. सूत्रों के मुताबिक, एक तेजस की कीमत करीब ढाई सौ (250) करोड़ रूपये है.

1983 मे शुरू हुए इस प्रोजेक्ट की कीमत करीब 560 करोड़ रुपये थी, लेकिन अब इसकी कीमत 10,398 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है. 

पिछले साल यानि अप्रैल 2015 में सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस स्वदेशी विमान पर कई सवाल खड़े किए थे. रिपोर्ट में प्रोजेक्ट के 20 साल पीछे चलने, ट्रैनर एयरक्राफ्ट ना होने,  प्रोजेक्ट की बढ़ती कीमत और विमान की तकनीक और फाइनल ऑपरेशनल क्लीयरेंस पर भी सवाल खड़े किए गए थे.

Saturday, June 25, 2016

चीनी सीमा पर तैनात होंगी अमेरिकी तोपें

रक्षा मंत्रालय ने आज थलसेना के लिए अमेरिका से 145 अल्ट्रा लाइट होवित्ज़र तोपें खरीदने का रास्ता साफ कर दिया है. सेना की नई माउंटन स्ट्राइक कोर के लिए खरीदी जाने वाली इन तोपों की कीमत 750 मिलयन डाॅलर है.

रक्षा मंत्रालय की अपेक्स कमेटी, रक्षा खरीद परिषद (डिफेंस एक्युजेशन कमेटी यानि डीएसी) ने आज इस सौदे को हरी झंडी दी. रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, अमेरिका से एम-777 तोपें सीधे फाॅरेन मिलेट्री सेल्स (एफएमएस) रूट से आयात की जायेंगी.

इन तोपों में कुछ को सीधे आयात किया जायेगा और बाकी को भारत मे ही एसेम्बल किया जायेगा.

जानकारी के मुताबिक, चीन की बढ़ती ताकत को देखते हुए ही सेना की बंगाल के पानागढ़ में नई माउंटेन स्ट्राइक कोर तैयार की जा रही है. उसी को देखते हुए हल्की तोपें अमेरिका से खरीदी जा रहीं हैं. इन तोपों को चीनी सीमा पर तैनात किया जायेगा. ये तोपें इतनी हल्की हैं कि हेलीकाॅप्टर से पैरा-ड्राॅप तक किया जा सकता है.

अल्ट्रा लाइट होवित्जर के साथ-साथ रक्षा खरीद परिषद ने आज स्वदेशी 'धनुष' तोपों के निर्माण पर संतोष जताया. साथ ही इस महीने के अंत तक 03 धनुष तोपें सेना को इस्तेमाल करने की क्लीयरंस दी गई है. अगली 03 तोपें सितंबर तक देने के लिए कहा गया है. इसके अलावा 18 तोपें के निर्माण का रास्ता भी खोल दिया गया है.

डीएसी ने आज करीब 28 हजार करोड़ रूपये के सौदों और प्रोजेक्टस को हरी झंडी दी. इसमें नौसेना के लिए 13600 करोड़ के 06 मिसाइल शिप खरीदना भी शामिल है.

डीएसी की अध्यक्षता रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने की. बैठक में तीनों सेनाओं के प्रमुख सहित रक्षा राज्यमंत्री और रक्षा सचिव भी मौजूद थे.

भारत बना परमाणु त्रिशक्ति देश !


भारतीय वायुसेना आज दुनिया की पहली ऐसी एयरफोर्स बन गई है जिसके जंगी बेड़े में सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल जुड़ गई है. इसके साथ ही आज भारत परमाणु त्रिशक्ति देश भी बन गया है. यानि जरूरत पड़ने पर भारत थल,जल और आकाश से न्युक्लिर हमला करने में सक्षम हो गया है.

जानकारी के मुताबिक, नासिक में आज एचएएल एयरपोर्ट पर वायुसेना के फ्रंट-लाइन लड़ाकू विमान, सुखोई-एमकेआई का फोर्मिडेवल सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल, बह्मोस के साथ टेस्ट-फ्लाई किया गया. ये परीक्षण सफल रहा. अगले कुछ महीनों में बह्मोस के एयर-वर्जन मिसाइल का सुखोई विमान से टेस्ट फायर किया जायेगा.

ये पहला ऐसा मौका है जब सुपरसोनिक फाइटर प्लेन से सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का टेस्ट फ्लाई किया गया. किसी भी देश की वायुसेना के पास ऐसी तकनीक नहीं है. 

बह्मोस कंपनी के अधिकारियों के मुताबिक, बह्मोस मिसाइल के जंगी बेड़े में शामिल होने से भारतीय वायुसेना की रेंज और ताकत में बड़ा इजाफा हुआ है. इससे दुश्मन की सीमा में सुखोई अंदर तक हमला (डीप-पैनिट्रेशन) करने में सक्षम हो गई है. इससे वायुसेना विदइन और बियोंड विजयुल रेंज हमला कर सकती है.

गौरतलब है कि बह्मोस मिसाइल न्युक्लिर वाॅर-हेड ले जाने में सक्षम है. यानि परमाणु मिसाइल सुपरसोनिक स्पीड से फायर कर सकती है. इसीलिए इस मिसाइल को दुनिया की सबसे घातक मिसाइल मानी जाती है. इसके सुखोई विमान के साथ जुड़ने से इसकी मारक क्षमता कई गुना बढ़ गई है.

भारत के सरकारी रक्षा उपक्रम, डीआरडीओ ने इस मिसाइल को रशिया की मदद से तैयार किया है. इसके लिए इसी नाम से ('बह्मोस') एक नई कंपनी तैयार की गई है. जिसमें भारत और रशिया की बराबर की भागीदारी है. बह्मोस मिसाइल पहले से ही थलसेना और नौसेना की जंगी बेड़े मे शामिल है. अब वायुसेना मे शामिल होने से भारत परमाणु त्रिशक्ति बन गया है.

Friday, June 24, 2016

जल्द पूरा होगा राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का सपना !


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक, नेशनल वॉर मेमोरियल यानि युद्ध-स्मारक के लिए रक्षा मंत्रालय जल्द ही ग्लोबल एड यानि विज्ञापन निकालने वाला है. इस विज्ञापन के जरिए मंत्रालय देश-विदेश के आर्किटेक्ट, कंपनियां से युद्ध स्मारक के डिजाइन के लिए सुझाव मंगाएगा. खास बात ये है कि इस डिजाइन के लिए कोई साधारण व्यक्ति भी अपनी राय और सुझाव दे सकता है. पीएम मोदी ने सेना और रक्षा मंत्रालय को आदेश दिया था कि अगले दो साल यानि 2018 तक वॉर मेमोरियल और म्यूजियम बनकर तैयार हो जाना चाहिए. आदेश ये भी दिया है कि ये युद्ध स्मारक विश्व-स्तर का होना चाहिए.

नई प्लान के मुताबिक, युद्ध-स्मारक मौजूदा इंडिया गेट के बेहद करीब बनाया जायेगा. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आदेश दिया है कि 
ये वाॅर-मेमोरियल वर्ल्ड-क्लाॅस होना चाहिए. यानि जो भी विदेशी पर्यटक एक बार भारत आए तो वो इसे देखा बिना अपने देश ना लौटे. लेकिन इस बात का खास ध्यान रखा जायेगा कि इंडिया-गेट का सम्मान किसी भी तरह से कम ना होने पाए. साथ ही युद्ध-स्मारक बनने के बाद भी इंडिया-गेट का महत्व किसी भी तरीके से कम नहीं होगा.

युद्ध-स्मारक के साथ-साथ वॉर-म्यूजियम भी बनाया जायेगा. ये म्यूजियम इंडिया गेट के बेहद करीब प्रिंसेज-पार्क में बनाया जायेगा. इस म्यूजिमय में वॉर-ट्रॉफी यानि दुश्मन देशों से जीते हुए हथियार, टैंक और तोप रखे जायेंगे. साथ ही भारतीय सेना के गौरवपूर्ण इतिहास को भी यहां दर्शाया जायेगा. 15 एकड़ में फैला प्रिंसेज-पार्क एक ऐतिहासिक जगह. अंग्रेजों के समय में ये सैनिकों के बैरक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था. कहते हैं कि देश आजादी की घोषणा के बाद सबसे पहले तिरंगा यहीं फहराया गया था.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी किसी देश की यात्रा पर जाते हैं तो वहां के युद्ध स्मारक और शहीदों को नमन करना कभी नहीं भूलते. हाल ही में जब वे अमेरिका की यात्रा पर गए तो सबसे पहले उन्होनें अमेरिका के वॉर-मेमोरियल पर अपना सर नत-मस्तक किया. यही नहीं अमेरिका कांग्रेस के साझा-सत्र संबोधन में सबसे पहले उन्होनें वीर शहीदों को ही याद किया. लेकिन अपने देश में पीएम मोदी को वॉर-मेमोरियल की कमी हमेशा खलती रही है. यही वजह है कि दिल्ली में सत्ता संभालते ही पीएम मोदी ने सबसे पहले जिन महत्वकांक्षी योजनाओं की घोषणा की उनमें नेशनल वॉर मेमोरियल भी सबसे पहली थी.

मोदी सरकार के पहले ही बजट में वॉर-मेमोरियल और म्यूजियम के लिए अलग से 500 करोड़ रूपये की एक बड़ी राशि मुकरर कर दी गई. घोषणा ये भी की गई कि देश का युद्ध-स्मारक इंडिया गेट पर बनाया जायेगा. और अब करीब दो साल बाद वो घड़ी आ गई है जब युद्ध-स्मारक के लिए रक्षा मंत्रालय ग्लोबल एड यानि युद्ध-स्मारक के डिजाइन और स्ट्रक्चर के लिए विज्ञापन देने जा रही है. जल्द ही ये विज्ञापन दुनियाभर में जारी किया जायेगा. इसके जरिए कोई भी कंपनी, ग्रुप या फिर व्यक्ति भारत में तैयार होने वाले वॉर-मेमोरियल के लिए अपनी राय और डिजाइन दे सकता है. उसके बाद रक्षा मंत्रालय और सेना तय करेगी कि देश के पहले विश्व-स्तरीय युद्ध-स्मारक और म्यूजियम का डिजाइन कैसा होगा.

दीगर है कि पिछले 55 सालों से देश के युद्ध-स्मारक की मांग अधर में अटकी हुई है. पहली बार सेना ने वॉर-मेमोरियल की मांग वर्ष 1960 में की थी. लेकिन किसी ना किसी कारण ये मांग पूरी नहीं हुई. कभी गृह मंत्रालय तो कभी सुरक्षा-कारणों और ट्रैफिक-मैनेजमेंट को लेकर दिल्ली पुलिस इस युद्ध-स्मारक की मांग में अडंगा अटकाती रही. साथ ही कभी इस बात पर भी सहमति नहीं बन पाई कि आखिर देश का युद्ध-स्मारक कहां बनेगा. कभी यमुना-बैंक तो कभी रिज, तो कभी धौला-कुआं में वॉर-मेमोरियल बनाने का प्रस्ताव रखा गया. लेकिन सेना, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, दिल्ली पुलिस और शहरी विकास मंत्रालय में आम-सहमति कभी नहीं बन पाई.

वर्ष २०१२ में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने नेशनल वॉर मेमोरियल को इंडिया गेट पर बनाने के लिए इसलिए मना कर दिया।था क्योंकि उन्हें लगता था की इसके यहाँ बनने से इंडिया गेट की खूबसूरती काम हो जाएगी और टूरिस्ट यहाँ नहीं आएंगे.

शुरूआत में वाॅर-मेमोरियल बनाने की जिम्मेदारी शहरी विकास मंत्रालय को दी गई थी. लेकिन जब सालोसाल तक प्रोजेक्ट एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा तो सेना और रक्षा मंत्रालय को इसको तैयार करने की जिम्मेदारी दे दी गई. प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने सख्त आदेश दिए हैं कि वाॅर-मेमोरियल अगले दो साल यानि 2018 तक बनकर तैयार हो जाना चाहिए. पहले युद्ध-स्मारक बनाने के लिए पांच साल का समय था. साफ है कि पीएम चाहते हैं कि उनकी सरकार के पहले कार्यकाल से पहले ही वाॅर-मेमोरियल दुनिया के सामने हो.

देश की राजधानी, दिल्ली के बीचो-बीच अंग्रेजों ने इंडिया-गेट को युद्ध-स्मारक के तौर पर बनवाया था. लेकिन सेना का मानना था कि इंडिया-गेट को ब्रिटिश-सरकार ने पहले विश्व-युद्ध के शहीदों की याद में तैयार कराया था. इसलिए उसे सही मायनों में भारतीय सेना या यूं कहे हैं कि देश का युद्ध-स्मारक नहीं माना जा सकता है. ये बात जरुर है कि 1971 के पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में यहां पर एक जलती हुई मशाल जरुर लगाई गई. ये मशाल चौबीसों घंटे और 12 महीने जलती रहती है. तीनों सेनाओं के जवान दिन-रात इसकी रखवाली करते हैं. अभी तक शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये सेना के बड़े अधिकारियों से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति यहीं आते हैं. अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए इंडिया-गेट के रुप में युद्ध-स्मारक तैयार कराया था. बाकयदा युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम तक इंडिया-गेट पर उकरे गए थे.

लेकिन आजादी के बाद से अबतक करीब 21 हजार भारतीय सैनिक अलग-अलग युद्ध और ऑपरेशन्स में अपनी जान देश पर न्यौछावार कर चुके हैं. लेकिन उनकी याद में अभी तक देश को अपना वॉर-मेमोरियल नहीं मिल पाया है. मोदी सरकार की घोषणा के बाद अब जाकर युद्ध-स्मारक को बनाने को लेकर सेना में नया जोश आ गया है. और इसको बनाने को लेकर तैयारियां जोरो-शोरों से शुरु हो गईं हैं.

सेना को वॉर-मेमोरियल बनाने में तो कोई  दिक्कत नहीं आने वाली है. क्योंकि इंडिया-गेट और उसके आसपास का एरिया पहले से ही रक्षा मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय के अधीन है. लेकिन वाॅर-म्यूजियम बनाने में सरकार को खासी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि प्रिंसेज-पार्क में जहां ये युद्ध-संग्रहालय बनाया जाना हैं वहां पर अभी सेना का ट्रांजिट-हॉस्टल है. और उसके साथ ही यहां पर दो सौ (200) से भी ज्यादा परिवार भी पिछले 30-40 सालों से रहते हैं.

प्रिंसेज पार्क के हॉस्टल में काम करने वाले ये सभी परिवार सिविलयन हैं. इन परिवारों के लिए बाकयदा यहां स्टॉफ क्वार्ट्स बने हुए हैं. करीब में ही दो दर्जन दुकानें भी बन गई हैं. इन परिवारों को हटाना और दुकानों को तोड़ना सेना के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. यही वजह है कि शहरी विकास मंत्रालय ने भी रक्षा मंत्रालय को साफ कर दिया है कि इस जमीन से किसी भी तरह का अवैध कब्जा हटाने कि जिम्मेदारी रक्षा मंत्रालय की ही है.

यहाँ  रहने वाले लोगों की इस मामले पर प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्हे ये जानकर बेहद निराशा हुई कि सरकार उन्हे यहां से विस्थापित करने वाली है. उनका मानना है कि वे यहां आजादी के पहले से यहां रह रहे हैं. ना केवल उनके बाप-दादाओं ने अंग्रजों की सेवा की बल्कि वाॅर-मेमोरियल की घोषणा होने तक वे सेना के बड़े अधिकारियों की सेवा में थे. उनके घरों से लेकर सीएसडी कैंटीन तक में भी वे उनकी सेवा करते थे. लेकिन क्योंकि मामला देश के शहीदों और गौरव से जुड़ा है तो वे ये जगह खाली करने के लिए तो तैयार हैं लेकिन सरकार को उनके पुर्नवास के लिए जरूर सोचना चाहिए.


Saturday, June 4, 2016

सीएजी की अनदेखी भारी पड़ी सेना पर: आयुध डिपो हुआ खाक

 सीएजी रिपोर्ट 2015
मंगलवार को महाराष्ट्र के पुलगांव में सेंट्रल एम्युनेशन डिपो में लगी भीषण आग में अब तक कुल 19 लोगों की जान चली गई है. 16 लोग अभी भी जिंदगी और मौत के बीच अस्पताल में जूझ रहे हैं. लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि इतनी बड़ी आग इतने संवदेनशील क्षेत्र में लगी कैसे. और अगर लगी तो उसपर समय रहते काबू क्यों नहीं पाया गया. क्या सेना के पास इस तरह की भीषण आग रोकने के लिए जरुरी साजों-सामान और फायर-स्टॉफ की कमी है ? ये सवाल इस लिए उठ रहा है क्योंकि सीएजी ने एक साल पहले ही अपनी रिपोर्ट में एम्युनेशन डिपो में इस तरह की घटना और जरुरी अग्निशमन उपकरण की कमी को लेकर आगाह किया था. लेकिन ना तो सेना और ना ही रक्षा मंत्रालय ने इस और ध्यान दिया. नतीजा ये हुआ कि 19 लोगों की जान चली गई और सेना के लिए बेहद जरुरी गोला-बारुद भी नष्ट हो गया. वो भी तब जबकि खुद सेना गोला-बारुद की कमी झेल रही है. 

काॅम्पर्टोलर एंड ऑडिटर जनरल यानि देश की सबसे बड़ी ऑडिट एजेंसी, सीएजी ने अपनी हालिया रिपोर्ट में सेना और रक्षा मंत्रालय को इस खतरे के लिए पहले ही आगाह कर दिया था. एबीपी न्यूज के पास सीएजी की वो रिपोर्ट मौजूद है जिसमें साफ लिखा है कि सेना के डिपुओं में 65 प्रतिशत अग्निशमन उपकरणों और 47 प्रतिशत अग्निशमन स्टॉफ की कमी है.

वर्ष 2015 में जारी की गई ये रिपोर्ट सीएजी ने सेना के गोला-बारुद की कमी और उसके रख-रखाव पर जारी की थी. सीएजी ने इसके लिए सेना के आधा दर्जन से भी ज्यादा डिपुओं की पड़ताल की थी. सभी आयुध डिपो में कमोबेश यही हालात थे. खुद सीएजी ने अपनी इस रिपोर्ट में माना है कि एम्युनेशन डिपो में गोला-बारुद का भंडार होता है इसलिए ये हमेशा आग जैसी दुर्घटनाओं के जोखिम में काम कर रहे हैं. यानि सीएजी की रिपोर्ट सही साबित हुई है. 

आपको बताते चलें कि नागपुर से करीब 115 किलोमीटर की दूरी पर महाराष्ट्र के पुलगांव का ये केंद्रीय आयुध भंडार सेना का सबसे बड़ा और अपने-आपका एक मात्र भंडार है. माना जाता है कि ये एशिया का दूसरा सबसे बड़ा आयुध सेंटर है. यहां पर तोप और टैंको के गोला-बारूद के अलावा लैंड-माईंस, एंटी-टैंक माईंस, राईफल और बंदूकों के कारतूस भी स्टोर किए जाते हैं. पुलगांव का सेंट्रल एम्युनेशन डिपो सेना के लिए कितना जरुरी और संवदेनशील होता है इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि मिसाइल तक यहां रखी होती हैं. देश की अलग-अलग ऑर्डिनेंस फैक्ट्री से जो गोला बारूद आता है वो पहले यहीं लाकर रखा जाता है. इसके बाद सेना की जरूरत के हिसाब से यहां से गोला-बारुद कोर, कमांड और बाॅर्डर पर भेजा जाता है.

सेना के पास पुलगांव के केंद्रीय आयुध भंडार के अलावा 15 फील्ड एम्युनेशन डिपो स्टोर हैं. इसके अलावा हर कंपनी का अपना एम्युनेशन डिपो होता है जहां 2-3 दिन का गोला बारूद स्टोर होता है. इसके अलावा 17 सेंट्रल ऑर्डिनेंस डिपो और बड़ी तादाद में छोटे छोटे डिपो होते हैं.

सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में आयुध भंडारों और उनके रखरखाव करने वाली एजेंसियों के काम-काज पर भी बड़े सवाल उठाए हैं. रिपोर्ट में कहा गया कि सेना की हर कमांड की फायर स्टेशन कमेटियां की आखिरी बार 2002 और 2003 में बैठक हुई थी. रिपोर्ट में कहा गया कि डायरेक्टर जनरल ऑफ ऑर्डिनेंस सर्विस (डीजीओएस) ने 2011 में खुद माना था कि अग्नि-शमन उपकरण के जोखिम और उनके अंतर्गत आने वाले डिपोंओं की फायर स्टेशन कमेटियों को अपग्रेड करने की जरुरत है लेकिन 2013 तक भी अधिकतर भंडारों में इसको अंतिम रुप नहीं दिया जा सका.

सीएजी ने सेना के आयुध भंडारों पर अपनी रिपोर्ट पिछले साल यानि वर्ष 2015 में जारी की थी. लेकिन रिपोर्ट में साफ है कि गोला-बारुद भंडार में आग जैसी दुर्घटनाओं से लड़ने के लिए जरुरी ना केवल जरुरी साजों-सामान और कर्मचारी हैं बल्कि इच्छाशक्ति की भी कमी है. क्योंकि पुलगांव में लगी आग कोई पहली नहीं है. इससे पहले पुलगांव के आयुध भंडार में वर्ष 2005 में भी आग लगी थी. उस दौरान करीब 126 मैट्रिक-टन (एमटी) गोला बारूद नष्ट हुआ था, जिसकी कीमत करीब 22 करोड़ थी.

पुलगांव के केंद्रीय आयुध डिपो में लगी आग के अलावा वर्ष 2000 में भरतपुर स्थित आयुद्ध भंडार में आग लगी थी जिसमें 387 करोड़ का नुकसान हुआ था और करीब 13 हजार मैट्रिक टन गोला बारूद नष्ट हुआ था. इसके अलावा 2001 में पठानकोट और गंगानगर भंडार में आग लग चुकी है. 2002 मे डपार और जोधपुर में, और 2007 में खुंडरू (जम्मू-कश्मीर) के डिपो में आग की घटना सामने आ चुकी है. इन सभी दुर्घटनाओं की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में आग का कारण अचानक चिंगारी, शोर्ट-सर्किट, टेस्टिंग और रिपेयर के दौरान धमाका होना पाया गया है. यानि एक छोटी सी गलती से एक बड़ा हादसा हो सकता है. वो भी तब जबकि सेना गोला-बारुद की कमी से जूझ रही है.

सीएजी रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ था कि सेना के पास करीब 20 दिन तक युद्ध लड़ने का ही गोला-बारुद मौजूद है. जबकि मिनमम वॉर रिर्जव यानि न्यूनतम 40 दिन का गोला-बारुद सेना के पास हमेशा मौजूद होना चाहिए. ऐसे में पुलगांव जैसी आग की दुर्घटनाओं में सेना का वॉर-रिर्जव और कम हो जाता है. जो हमारी सेना के लिए बेहद चिंता का कारण है.

जानकारी के मुताबिक, मारे गए 19 लोगों में से 13 रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करने वाले फायर-सर्विस के कर्मचारी थे. सेना के मुताबिक, इन लोगों के चलते ही आग पुलगांव के डिपो में सिर्फ एक शेड में ही लगी थी. वहां पर इस तरह के करीब 30 शेड हैं. अगर आग दूसरे शेडों में फैल जाती तो स्थिति और भयावह हो सकती थी. लेकिन इन 13 कर्मचारियों ने आग को एक शेड से आगे नहीं बढ़ने दिया, और आग से लड़ते-लड़ते अपनी जान न्यौछावर कर दी. खुद डिपो के डिप्टी कमांडेंट कर्नल ध्यानेंद्र सिंह बुरी तरह जख्मी हो गए.

Thursday, May 19, 2016

चीन के समंदर में भारतीय जंगी बेड़ा, चढ़ सकती हैं ड्रैगन की त्यौरियां !

अगले ढाई महीने के लिए भारतीय नौसेना के आधा दर्जन जंगी जहाज दक्षिण चीन सागर में ऑपरेशनल तैनाती के लिए जा रहे हैं. इस दौरान ये युद्धपोत जापान में होने वाले तीन देशों के युद्धभ्यास, मालाबार में भी हिस्सा लेंगे. गौरतलब है कि चीन हमेशा से दूसरे देशों के युद्धपोत का साउथ चायना सी मे आने का विरोध करता रहा है. साथ ही चीन मालाबार युद्धभ्यास में जापान के शामिल होने पर भी पहले विरोध जता चुका है.

भारतीय नौसेना का जंगी बेड़ा ऐसे समय में साऊथ चायना सी जा रहा है जब खुद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी चार दिन की राजकीय यात्रा पर चीन जा रहे हैं (24-27 मई).

नौसेना के प्रवक्ता, कैप्टन डी के शर्मा के मुताबिक, पूर्वी कमांड के जंगी बेड़े के छह युद्धपोत अगले ढाई महीने तक दक्षिण चीन सागर और उत्तर-पश्चिम प्रशांत महासागर में तैनात रहेंगे. इस दौरेन ये जंगी जहाज वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया और रशिया के बंदरगाहों की 'गुडविल-यात्रा' पर भी जाएंगे. हर पोर्ट पर ये जहाज कम से कम चार दिन रूकेंगे.

नौसेना के मुताबिक, भारत में ही निर्मित सतपुड़ा, सहयार्दि, शक्ति और क्रीच युद्धपोत इस यात्रा में शामिल हैं. सतपुड़ा और सहयार्दि मिसाइल स्टील्थ फ्रिगेट है तो शक्ति सपोर्ट-शिप है, जबकि क्रीच मिसाइल कोर्वेट है. इनकी कमान पूर्वी कमांड के जंगी बेड़े के कमांडर इन चीफ रियर-एडमिरल एस वी बोकाड़े के हाथों में हैं जो खुद इस अहम यात्रा का हिस्सा हैं.

प्रवक्ता के मुताबिक, इस दौरान ये युद्धपोत जापान में होने वाली तीन देशों के युद्धभ्यास, मालाबार में भी हिस्सा लेंगे. भारत और जापान के अलावा अमेरिकी नौसेना भी इस एक्सरसाइज में हिस्सा लेगी.

2010 में जब जापान ने भारत और अमेरिका के साथ हुए मालाबार युद्धभ्यास में हिस्सा लिया था तो चीन ने भारत से इस का बाकयदा विरोध जताया था. उसके बाद से जापान ने इस युद्धभ्यास में हिस्सा नहीं लिया था. लेकिन पिछले साथ बंगाल की खाड़ी में हुए इस युद्धभ्यास में जापान ने भी हिस्सा लिया था.

दीगर है कि हाल ही में अमेरिका के पैसेफिक कमांड के चीफ, एडमिरल हैरिस ने राजधानी दिल्ली में भारत को दक्षिण चीन सागर में साझा-पैट्रोलिंग का सुझाव दिया था. लेकिन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने अमेरिका का ये सुझाव ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि इसकी फिलहाल कोई जरूरत नहीं है. अमेरिका, दरअसल साऊथ चायना सी में चीन के एकाधिकार (या यूं कहें कि ठसक को) खत्म करना चाहता है. क्योंकि चीन किसी बाहरी देश के युद्धपोतों को इस क्षेत्र में घुसने नहीं देता है. लेकिन पिछले कुछ समय से अमेरिका के जंगी जहाज बेधड़क इस समंदर में गश्त कर रहे हैं. अब भारत के जहाज से चीन की भौहें और तन सकती हैं.

Wednesday, May 11, 2016

बूढ़े हुए सी-हैरियर को विदाई, मिग-29के ने संभाली कमान !

गुड-बॉय: तैतीस साल तक सेवा करने के बाद सी-हैरियर रिटायर
भारतीय नौसेना के एयरक्राफ्ट कैरियर, आईएनएस विराट सेे उड़ान भरने वाला लड़ाकू विमान सी-हैरियर अब उड़ान नही भरेेंगे. नौसेना की 'वाइट टाइगर्स' स्कावड्रन का हिस्सा रहे सी-हैरियर ने आज गोवा में आखिरी उड़ान भरी. सी-हैरियर की जगह अब अत्याधुनिक रूसी लडाकू विमान 'मिग-29के' ने ले ली है. नौसेना प्रमुख एडमिरल आर के धवन की मौजूदगी में गोवा में सी-हैरियर को परंपरागत तरीके से विदाई दी गई तो मिग-29के का स्वागत किया गया.

भारतीय नौसेना ने सी-हैरियर लड़ाकू विमान 1983 में ब्रिटेन से खरीदे थे. नौसेना में आने के बाद ये पहले विमान वाहक पोत विक्रांत और उसके बाद फिर विराट पर तैनात किए गए.  विमानवाहक पोत से ही ये भारत की लंबी समुद्री सरहद की हिफाजत करते थे. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा लड़ाकू विमान हो जो इसकी तरह वर्टिकल लैडिंग करता हो और इसकी यही  खासियत दूसरे लड़ाकू विमानों से अलग करती थी. साथ ही बहुत कम रनवे पर ये आसानी से टेक ऑफ भी कर लेता था यानि इसे उतारने के लिये किसी हवाई पट्टी की जरुरत  नही पड़ती थी.
आईएनएस विराट पर लैंडिंग करता सी-हैरियर
सी-हैरियर में आसमान में ही एयर टू एयर रिफ्युल क्षमता भी थी.  ये 500 पाउंड के बम, कलस्टर बम और मिसाइल से लैस होने पर किसी भी दुश्मन के लिये इससेे पार पाना काफी मुश्किल होता था. बड़ी बात है ये कि कई मुसीबत आने पर भी ये अपनी ड्यूटी से कभी नही हटा। खासकर अपनी लाइफ खत्म कर लेेनेे के बाद इसेे मरम्मत कर काम में लगाया जाता रहा और ये डटा रहा. कई सी हैरियर दुर्घटनााग्रस्त भी हुए और अब तो गिनती के ही सी-हैरियर नौसेना के जंगी बेड़े में रह गए थे.
पिवेट-फॉरमेशन में सी-हैरियर्स
ब्रिट्रेन में तो 2006 में ही ये विमान रिटायर हो गए थे लेकिन भारत में इसे अपग्रेड करके उड़ाया जाता रहा.  इसी साल 6 मार्च को विराट पर से अंतिम उड़ान भरी थी. अब तो विमानवाहक पोत विराट भी रिटायर होने वाला है. सी-हैरियर अब बूढ़ा भी हो गया है और इसकी जगह लेने के लिये मिग-29के भी आ गया है. अगले एक-दो साल में भारत का स्वनिर्मित विमानवाहक युद्दपोत, आईएनएस विक्रांत तैयार हो जाएगा. तब ये मिग-29के उसपर तैनात कर दिए जाएंगे.
1971 के युद्ध में वाइट-टाइगर स्कावड्रन के सी-हॉक ने की थी बम-वर्षा  
मिग-29के भी उसी 'वाइट-टाइगर' स्कावड्रन का हिस्सा होंगे जिसका सी-हैरियर हिस्सा थे. वाइट टाइगर यानि नौसेना की वो 'आईएएनएस-300' स्कावड्रन जिसका हिस्सा कभी सी-हाॅक विमान थे, जिन्होने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को घुटने टेंकने पर मजबूर कर दिया था. एयरक्राफ्ट कैरियर, आईएनएस विक्रांत (पुराने वाले) से  उड़ान भरने वाले सी-हाॅक्स ने '71 के युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के चितगांव इत्यादि बंदरगाहों पर इतनी बमबारी की कि पाकिस्तानी नौसेना के पांव उखड़ गए थे. यहां ये बताना काफी है कि 1971 का युद्ध भारत के सैन्य इतिहास के स्वर्णिम युग में तब्दील हो चुका चुका है.


Monday, April 11, 2016

अमेरिकी राष्ट्रगान का मुंबई कनेक्शन: कार्टर को पर्रिकर का गिफ्ट !

पर्रिकर की कार्टर को भेंट: एचएमएस मिन्डेन का मॉडल
भारत की यात्रा पर आए अमेरिका रक्षा सचिव (मंत्री) ऐश्टन कार्टर को रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने गोवा में कल रात अपने प्राईवेट डिनर में उस ‘एचएमएस-मिन्डेन’ जहाज का मॉडल भेंट-स्वरुप पेश किया जिसपर 19 वी सदी में अमेरिका का राष्ट्रगान लिखा गया था. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इस जहाज का निर्माण मुंबई में हुआ था. यानि अमेरिका के राष्ट्रगान का भारत कनेक्शन भी है. शायद यही वजह है कि इनदिनों भारत और अमेरिका बेहद करीब आ रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बराक ओबामा की दोस्ती तो दुनिया जानती है. लेकिन अब अमेरिका के रक्षा सचिव भी मनोहर पर्रिकर के मुरीद हो गए हैं.

दरअसल, अपनी तीन दिनों के भारत दौरे पर आए अमेरिका के रक्षा सचिव, ऐश्टन कार्टर सीधे गोवा पहुंचे. गोवा यानि भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का गृह-राज्य. खुद मनोहर पर्रिकर ने ऐश्टन कार्टर को पहले गोवा आने का निमंत्रण दिया था. क्योंकि रक्षा मंत्री ऐश्टन कार्टर को अपना शहर गोवा तो दिखाना चाहते ही थे, उन्हे गोवा के करीब कारवार में भारतीय नौसेना के बेस भी ले जाना चाहते थे जो कि सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है. यहीं पर दोनों देशों के रक्षा मंत्री सोमवार को भारतीय नौसेना के एयरक्राफ्ट कैरियर, आईएनएस विक्रमादित्य पर पूरा दिन बिताने वाले हैं.

लेकिन उससे पहले रविवार की रात को गोवा में मनोहर पर्रिकर ने अपने रात्रि-भोज के दौरान ऐश्टन कार्टर को भेंट किया ‘एचएमएस-मिन्डेन’ जहाज का रेप्लिका. ये वही जहाज है जिस पर 1814 में अमेरिका के एक वकील जेम्स स्कॉट-की ने प्रसिद्ध गीत, ‘स्टार स्पेंगल्ड बैनर’  लिखा था. बाद में ये गीत का अमेरिका का राष्ट्रगान बन गया.

पूरी कहानी कुछ यूं हैं. आज से करीब 215 साल पहले यानि 1801 में ‘एचएमएस-मिन्डेन’ युद्धपोत का निर्माण ब्रिटेश नेवी ने मुंबई (उस वक्त 'बांम्बे') डॉकयार्ड में कराया था. मुंबई के इस डॉकयार्ड को अब मझगांव डाकयार्ड के नाम से जाना जाता है. 1812 में जब ब्रिटेन और अमेरिका में युद्ध हुआ तो ब्रिटेश रॉयल नेवी ने अपने इसी जहाज, ‘एचएमएस-मिन्डेन’ को अमेरिका पर हमला करने के लिए कूच किया था. 
एचएमएस मिन्डेन का मॉडल भी मुंबई डॉकयार्ड में हुआ तैयार
इस युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना ने अमेरिका के एक वकील जेम्स स्कॉट-की को युद्ध-बंदी बना लिया और इसी जहाज पर कैद करके रखा गया. बताते हैं कि ‘एचएमएस-मिन्डेन’ ने रात भर तोपों और बंदूकों से अमेरिका के एक किले पर गोलाबारी की. लेकिन जब सुबह हुई तो जेम्स स्कॉट ने देखा कि किले के ऊपर अमेरिका का झंडा (स्टार वाला झंडा) ज्यों का त्यों फहर रहा है. उसे कोई नुकसान नहीं हुआ है. बस इसी स्टार-झंडे को देखकर जेम्स स्कॉट ने ‘एचएमएस-मिन्डेन’ पर ही ‘स्टार स्पेंगैल्ड बैनर’ गीत की रचना की. ये 1814 का साल था. इसी स्टार स्पेंगैल्ड रचना को 1931 में अमेरिका का राष्ट्रगान घोषित कर दिया गया. इसी लिए ये गीत सभी अमेरिकी-वासियों की तरह ऐश्टन कार्टर के भी बेहद करीब है.

रविवार को जिस ‘एचएमएस-मिन्डेन’ का मॉडल रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने ऐश्टन कार्टर को पेश किया, उसे भी मझगांव डॉकयार्ड में तैयार कराया गया है. यानि मॉडल को भी उसी डॉकयार्ड में तैयार कराया गया जहां ऑरिजनल ‘एचएमएस-मिन्डेन’ ब्रिटिश रॉयल नेवी के लिए तैयार हुआ था.   

अमेरिका के रक्षा सचिव (मंत्री) ऐश्टन कार्टर भारत यात्रा के पहले दिन (10 अप्रैल को) मनोहर पर्रिकर के गृह-राज्य गोवा में मंदिर और चर्च के दर्शन कए . उसके बाद दोनो रक्षा मंत्री गोवा में आए अमेरिका के युद्धपोत 'ब्लू-रिज़' पर पहुंचे. अगले दिन यानि सोमवार को गोवा के करीब कारवार में भारत के एयरक्राफ्ट कैरियर आईएनएस विक्रमादित्य पर पहुंचंगे. कार्टर 10-12 अप्रैल तक भारत की यात्रा पर रहेंगे.
नौसेना के एयरक्राफ्ट कैरियर विक्रमादित्य पर अमेरिका रक्षा मंत्री
अगले दिन यानि 12 अप्रैल को दिल्ली पहुंचने पर साझा प्रेस कांफ्रेंस करेंगे. साझा बयान जारी किया जायेगा. अमेरिका भारत से लाॅजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए) यानि भारत के मिलेट्री-बेस इस्तेमाल करने सहित कई मुख्य सैन्य-समझौते करना चाहता है. लेकिन भारत को एलएसए के मौजूदा स्वरूप पर ऐतराज है. भारत इसे सिर्फ शांति के समय में इस्तेमाल करने देना चाहता है

Wednesday, March 30, 2016

क्या युद्ध से डरता है भारत ?

दिल्ली में एनआईए अधिकारियों के साथ पाकिस्तानी जांच टीम
पठानकोट हमले की जांच के लिए पाकिस्तान की ज्वाइंट इंवेस्टीगेशन टीम (जेआईटी) इनदिनों भारत के दौरे पर आई हुई है. हालांकि पांच सदस्य वाली इस टीम को इंवेस्टीगेशन कम और इंटेलीजेंस-टीम कहना ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि इस टीम में मात्र दो जांच (पुलिस) अधिकारी है जबकि तीन खुफिया अधिकारी हैं. हालांकि ये मुद्दा इतना इतर नहीं है जितना कि ये कि क्या शांति बहाली के लिए भारत इतना बैचेन (या आतुर) हो जायेगा कि अपने सबसे कट्टर दुश्मन की सेना और सबसे खतरनाक खुफिया एजेंसी के अधिकारियों को अपने मिलेट्री बेस में घुसने तक की इजाजत दे सकता है. क्या वाकई भारत आतंक के खिलाफ सीधे लड़ाई लड़ने से डरता है? क्या वाकई हमारा देश युद्ध करने से डरता है? और अगर नहीं तो क्यों दुश्मन देश को अपनी सरजमीं में जांच के लिए आने का न्यौता दिया?

देश के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने साफ मना किया था कि अगर पाकिस्तानी की जांच टीम भारत आती है तो उसे पठानकोट एयरबेस में दाखिल होने की इजाजत नहीं दी जायेगी. लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने अपने रक्षा मंत्री के कथन को ही धत्ता बता दिया. क्या देश के रक्षा मंत्री की बात में कोई दम नहीं है. या पड़ोसी देश से शांति बहाली के लिए हम अपने घुटने तक टेक सकते हैं? ये शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि किसी दुश्मन देश की सेना और खुफिया एजेंसी के अधिकारी हमारे किसी मिलेट्री बेस में दाखिल हुए हों. वो भी ऐसा एयर-बेस जो सरहद के बेहद करीब हो. जहां पर लड़ाकू विमानों की स्कावड्रन हो.

सबसे पहले बात करते हैं की आखिर सरकार ने पाकिस्तानी संयुक्त जांच दल को भारत आने क्यों दिया.  दरअसल 2 जनवरी को आधा-दर्जन आतंकियों ने पाकिस्तान सीमा से सटे पंजाब के पठानकोट एयरबेस पर हमला कर दिया था. तीन दिन तक चली मुठभेड़ में एनएसजी, सेना और एयरफोर्स के कमांडोज़ ने सभी छह के छह आतंकियों को मार गिराया था. क्योंकि मामला आतंकियों से जुड़ा था, सो हमले की जांच नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी यानि एनआईए को सौंप दी गई. जांच में पता चला कि मारे गए आतंकी पाकिस्तान के रहने वाले हैं और पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद से ताल्लुक रखते हैं. उनके पास से बरामद हथियार, दवाई और खाने का सामान तक पाकिस्तान का था. यानि पठानकोट एयरबेस पर हुआ हमला पाकिस्तान से ही संचालित हुआ था.
हमले के बाद पठानकोट एयरबेस पर पीएम मोदी
यहां ये बात भी किसी से छिपी नहीं रही है कि भारत के खिलाफ आतंकी हमले करने के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी, आईएसआई, जैश, लश्कर और हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों को उकसाती है और उनकी फंडिग तक करती है. मुंबई के 26/11 हमले में तो आतंकियों को ट्रैनिंग तक आईएसआई ने दी थी. बस इसी बात का विरोध हो रहा है सरकार का कि वो (खुफिया) एजेंसी जो भारत के खिलाफ हमलों को प्रयोजित करती है उसी आईएसआई के अधिकारी को पठानकोट एयरबेस में जांच करने के लिए क्यों दाखिल होने दिया गया.

एक बार जरा पाकिस्तान की संयुक्त जांच दल के सदस्यों पर नजर डाल लेते हैं. पांच सदस्य इस दल का नेतृत्व कर रहे हैं पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के आंतक-निरोधी विभाग के एडीजी मोहम्मद ताहिर राय़. साथ ही इसी विभाग के गुजरांवाला में तैनात इंस्पेक्टर शाहिद तनवीर. ये दोनों ही पुलिस महकमें से ताल्लुक रखते हैं. या यूं कहें कि जांच अधिकारी हैं. इंस्पेकटर शाहिद तनवीर ही पाकिस्तान में पठानकोट हमले से जुड़े मामले के जांच-अधिकारी हैं. गौरतलब है कि भारत के दवाब के बाद पाकिस्तान ने इस हमले की एफआईआर दर्ज की थी. अब जरा बाकी तीन सदस्यों के प्रोफाइल को देखते हैं. पहले हैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी, आईएसआई के लेफ्टिनेंट कर्नल तनवीर हैदर. साथ ही हैं मिलेट्री इंटेलीजेंस के लेफ्टिनेंट कर्नल इरफान मिर्जा और इंटेलीजेंस ब्यूरो के उप-निदेशक अजीम अरशद. 
एनआईए मुख्यालय के बाहर पाकिस्तानी जांच दल केसदस्य
इंटेलीजेंस ब्यूरो के अधिकारी तो एक बार को समझ में आतें हैं कि उन्हे जांच दल में इसलिए रखा गया होगा क्योंकि जैश ए मोहम्मद पाकिस्तान से ही संचालित होता है. और इसका मुखिया मसूद अजहर पाकिस्तान में ही पनाह लिए हुए है. लेकिन आईएसआई और एमआई के सैन्य अधिकारियों को इस जांच दल में शामिल करने के पीछे क्या मंशा हैं सिर्फ पाकिस्तान ही जानता है. क्या इन दोनों को इसलिए जांच दल में शामिल किया गया है कि अगली बार किसी भारत के सैन्य-ठिकाने पर हमला करवाना हो तो उसकी फुल-प्रूफ प्लानिंग कर सकें. ये देखने के लिए कि पठानकोट एयरबेस में हमले में कहां उनके संचालित आतंकियों से गलती हो गई. क्यों नहीं वे टेक्निकल एरिया में दाखिल हो पाए.

भले ही रक्षा मंत्री के विरोध के बाद सरकार ने बीच का रास्ता निकाला और पाकिस्तानी जेआईटी को सिर्फ पठानकोट एयरबेस के डोमेस्टिक एयरबेस तक ही सीमित रखा. एयरबेस के टेक्निकल एरिया को पाकिस्तानी जांच दल की जद्द से दूर रखा गया. एयरबेस के टेक्निकल एरिया में ही लड़ाकू विमान खड़े होते हैं, रनवे होता है, लड़ाकू विमानों का ऑपरेशन यहीं पर बने कमांड एंड कंट्रोल सेंटर से होता है. यहां तक की हवाई सुरक्षा के लिए मिसाइल और एंटी-एयरक्राफ्ट गन्स (छोटी तोपें) इसी टेक्निकल एरिया में तैनात होती हैं. इसी लिए किसी भी देश की सेना के लिए अपने एयरबेस को ना केवल सुरक्षित रखना बेहद जरुरी है, दुश्मन की नजर उसपर ना पड़े ये भी बेहद जरुरी है. इसीलिए जांच दल को एयरबेस के डोमेस्टिक एरिया तक ही सीमित कर दिया गया.
पठानकोट एयरबेस पर चाक-चौबंद सुरक्षा
डोमेस्टिक एरिया में जवानों और एयरमैन के बैरक, प्रशासनिक-भवन, अधिकारियों के निवास और स्कूल इत्यादि होता है. 2 जनवरी को आतंकी पठानकोट एयरबेस के इसी डोमेस्टिक एरिया में दाखिल होने में कामयाब हो गए थे. हालांकि आतंकियों ने टेक्निकल एरिया में घुसने का भरसक प्रयास किया था, लेकिन कमांडोज़ ने उन्हे इसी डोमेस्टिक एरिया में ही ढेर कर दिया था. यानि आतंकवादियों और सुरक्षाबलों में मुठभेड़ इसी डोमेस्टिक एरिया में ही हुई थी. इसीलिए एनआईए की जांच का केंद्रबिन्दु भी डोमेस्टिक एरिया ही था. यहीं वजह है कि रक्षा मंत्री ने भी कहा कि ‘क्राइम-सीन’ तक ही पाकिस्तानी टीम को जाने की इजाजत दी जायेगी. और जब मंगलवार को पाकिस्तानी जेआईटी एयरबेस पहुंची, तो उसे मैन-गेट की बजाए चारदीवारी के पिछले हिस्से में एक छोटा गेट बनाकर अंदर दाखिल करवाया गया. इसी दरवाजे के करीब से ही आंतकी एयरबेस में दाखिल हुए थे. पूरे टेक्निकल एरिया को टैंट और शामियाने लगाकर ढक दिया गया था.

दरअसल, बात सैन्य-ठिकाने पर टेक्निकल एरिया में क्या दिखा या नहीं देखा है. बल्कि इस देश की सैन्य-अस्मिता की है. भला कैसे एक देश, जिसके साथ एक-दो नहीं बल्कि चार-पांच युद्ध लड़ चुके हों, जिसकी नीति ही आतंकियों के जरिए भारत में प्रॉक्सी-वॉर की हो, जो भारत को इन आतंकियों के जरिए ‘हजारों घाव देना चाहता हो’, उस देश की सेना और खुफिया एजेंसी को अपने एयरबेस में दाखिल क्यों होने दिया जाए.

क्या इस जेआईटी के जांच के लिए भारत (और पठानकोट एयरबेस) आने के बाद क्या गारंटी है कि आईएसआई और पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रायोजित आतंकी हमले, युद्धविराम उल्लंघन और सीमा पर घुसपैठ बंद हो जायेगी. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के फौरन बाद ही करगिल-युद्ध को क्या कोई आज तक भूला पाया है. और ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं है. जब पाकिस्तान का जांच दल भारत आया हुआ है तो आईएसआई ने बलूचिस्तान में भारतीय नौसेना के एक पूर्व-अधिकारी को (जो नौकरी छोड़ने के बाद बिजनेसमैन बन चुका था) रॉ का जासूस बताकर गिरफ्तार कर लिया है.
नौसेना के पूर्व-अधिकारी को पाकिस्तान ने जासूस बना दिया
मंगलवार को जब पाकिस्तानी जांच दल पठानकोट में था, तब पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता जोर-शोर से प्रेस कांफ्रेंस कर इसी रॉ के कथित जासूस के इकबालिया बयान का वीडियो जारी कर भारत पर पाकिस्तान में आतंक फैलाने का दोष मढ़ रहे थे. यानि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे. भारत एक सिरे से पाकिस्तान के इन आरोपों को नकार चुका है. भारत साफ कर चुका है कि कुलभूषण जाधव नौसेना की नौकरी छोड़ने के बाद कार्गो-कारोबार कर रहा था. उसका रॉ से कोई लेना-देना नहीं है.

साफ है कि आईएसआई और पाकिस्तानी सेना कभी भी भारत से किसी भी हाल में शांति बहाल नहीं करना चाहती है. हां शांति बहाली के लिए भारत और भारत की सरकार किसी भी हद तक अपने घुटने जरुर टेक सकती है. क्या पाकिस्तान के परमाणु हथियारों से भारत को डर लगता है इसलिए. या इसलिए कि कहीं पाकिस्तान से संचालित इन आतंकी संगठनों के हाथों में ये परमाणु हथियार ना पड़ जाएं. जैसा कि हाल ही में रक्षा मंत्रालय की सालाना-रिपोर्ट (2015-16) में लिखा गया है. अगर नहीं तो फिर आंतकियों के खिलाफ सीधे जंग छेड़ने के बजाए भारत ने इन आंतकियों को पनाह देने वाली आईएसआई और पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों को अपने सैन्य-ठिकाने में जांच के नाम पर दाखिल क्यों होने दिया.
पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तान टीम
क्यों नहीं एनआईए को जांच के लिए पाकिस्तान भेजा गया. क्यों नहीं एनआईए को मसूद अजहर और उसके साथियों से पूछताछ करने दी गई. क्योंकि इस बात की इजाजत पाकिस्तानी सरकार भी नहीं दे सकती है. क्योंकि पाकिस्तान में सेना और आईएसआई खुद सरकार की नहीं सुनती हैं. क्योंकि वे अपने-आप में खुद एक सरकार हैं. पाकिस्तानी सेना और आईएसआई एक समांतर-सरकार को संचालित करती हैं. वहां की (राजनैतिक) सरकार भी इनके खिलाफ चूं तक नहीं करती है.

पाकिस्तानी अवाम भी अपनी राजनैतिक सरकार के बजाए सेना और आईएसआई में ज्यादा विश्वास करती है. इसीलिए वहां सेना द्वारा तख्ता-पलट आम बात है. यही वजह है कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच दूरियां कम होती है, आईएसआई और पाकिस्तानी सेना कोई ना कोई ऐसी चाल चलती हैं कि दोनो देश फिर से दूर हो जाते हैं. याद है ना क्रिसमस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा और उसके महज एक हफ्ते के भीतर ही पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला. ऐसे में पाकिस्तानी हूकुमत से शांति की अपेक्षा बेमानी लगता है.

हाल ही में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने संसद में ऐलान किया था कि आतंकी हमलों को देश के खिलाफ युद्ध के तौर पर देखना चाहिए. रक्षा मंत्री के इस बयान से कोई इंकार नहीं कर सकता है. लेकिन सवाल ये है कि अगर युद्ध की तरह देखना चाहिए तो उसके खिलाफ युद्ध करके मुंह तोड़ जवाब भी देना चाहिए. ना कि आतंकियों को पनाह देने वाले देश के नुमाइंदों को अपने मिलेट्री-बेस में जांच के नाम पर घूमाना चाहिए.

Thursday, March 10, 2016

टू-फ्रंट वाॅर के लिए नहीं है तैयार वायुसेना !

वायुसेना की घटती स्कावड्रन से बढ़ी चिंता
अगले हफ्ते पाकिस्तानी सीमा के करीब भारतीय वायुसेना सबसे बड़ा युद्धभ्यास करने जा रही है. लेकिन उससे पहले आज वायुसेना के वाइस चीफ ने ये कहकर सनसनी फैला दी कि अगर पाकिस्तान और चीन एक साथ भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ देते हैं तो मुकाबला करने के लिए वायुसेना के पास पर्याप्त लड़ाकू विमान नहीं हैं.

उप-वायुसेना प्रमुख एयर वाइस मार्शल बी एस धनोआ आज राजधानी दिल्ली में, 18 मार्च से शुरु हो रहे युद्धभ्यास, ‘आयरन-फिस्ट’ (IRON-FIST) के बारे में मीडिया से बातचीत कर रहे थे. इसी दौरान एक सवाल के जवाब में एयर मार्शल बी एस धनोआ ने कहा कि वायुसेना में वर्तमान में 32 स्क्वाड्रन (यानि 'जहाजों के जंगी बेड़े') हैं जबकि जरुरत 42 की है. खास बात ये है कि मौजूदा वायुसेना-प्रमुख के रिटायरमेंट के बाद बी एस धनोआ एयर फोर्स चीफ बनने की दौड़ में सबसे आगे हैं. खुद धनोआ कारगिल युद्ध में हिस्सा ले चुके हैं और उस वक्त लड़ाकू विमान मिग-21 से फ्रंट पर जाकर दुश्मन पर हमला किया था.
उप-वायुसेना प्रमुख एयर मार्शल बी एस धनोआ

 बताते चलें कि इस महीने की 18 मार्च को भारतीय वायुसेना राजस्थान के पोखरन में आयरन-फीस्ट नाम की एक्सरसाइज करने जा रही है. एक्सरसाइज में एयरफोर्स के 181 लड़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर हिस्सा ले रहे हैं और इसे वायुसेना का शक्ति-परीक्षण माना जा रहा है. खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में आयरन-फीस्ट एक्सरसाइज हो रही है. ये युद्धभ्यास दिन और रात दोनों में होगा.  

बी एस धनोआ ने कहा कि कारगिल युद्ध के वक्त भारतीय वायुसेना के पास रात में एयर-ऑपरेशन करने की क्षमता नहीं थी. लेकिन आयरन-फीस्ट में दिखाया जायेगा कि 16 साल बाद वायुसेना नाइट-ऑपरेशन करने का माद्दा ही रखती है. इस युद्धभ्यास का 'मोटो' (आदर्श-वाक्य) है ‘सबक सिखाने की क्षमता का प्रदर्शन—हथियार सही समय, सही निशाने पर.’

इसी दौरान ही मीडिया से बातचीत के दौरान पूछा गया कि क्या इस युद्धभ्यास के बाद हम क्या चीन और पाकिस्तान से एक साथ लड़ने यानि 'टू-फ्रंट वॉर' के लिए तैयार हैं, एयर वाइस चीफ बी एस धनोआ ने कहा कि इसके लिए हमारे पास पर्याप्त स्क्वाड्रन (जंगी जहाजों का बेड़ा) नहीं हैं. उन्होनें कहा कि वायुसेना के पास इस वक्त मात्र 32 स्कावड्रन हैं जबकि हमें 42 की जरुरत है. 

वायुसेना के एक स्कावड्रन में 16-18 लड़ाकू विमान होते हैं. इस वक्त वायुसेना के पास 10 स्कावड्रन सुखोई के हैं और 11 मिग-21 और मिग-27 के हैं. इसके अलावा जगुआर के 06 स्कावड्रन, मिराज के 02 और मिग-29 की 03 हैं. यानि वायुसेना के पास अभी भी करीब 150 लड़ाकू विमान कम हैं. 

वायुसेना काफी समय से सरकार और ससंद की कमेटियों में स्कावड्रन की कमी की शिकायत कर चुकी है. लेकिन ये पहली बार है कि एयरफोर्स के किसी बड़े सैन्य-अधिकारी ने खुले-आम स्कावड्रन की कमी पर चिंता जताई है.

वायुसेना फ्रांस से मिलने वाले 36 रफाल फायटर एयरक्राफ्ट्स बेसब्री से इंतजार कर रही है. लेकिन रफाल सौदे की बढ़ी हुई कीमत के चलते लंबे समय से अधर में अटका हुआ है. बी एस धनोआ ने कहा कि अगर रफाल लड़ाकू विमान वायुसेना को मिलते हैं तो एयरफोर्स की मारक क्षमता काफी बढ़ जायेगी.