Tuesday, May 7, 2019

अफगानिस्तान में शांति की राह नहीं है आसान


भारत में आम चुनावों की सरगर्मी के बीच सोमवार को विदेश मंत्रालय ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की एक फोटो ट्वीट की. फोटो कतर की राजधानी, दोहा की थी जिसमें विदेश मंत्री के साथ थे अमेरिका के खास राजनयिक, ज़लमे खलीलज़ाद, जो अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए तालिबान से बात करने के लिए नियुक्त किए गए हैं. खास बात ये है कि ये फोटो ऐसे वक्त में आई जब कतर में ही अमेरिका और तालिबान के बीच शांति-वार्ता छठी बार फेल हो गई थी. दुनियाभर की तरह भारत भी इस वार्ता पर नजरें गड़ाए बैठा है कि आखिर क्या वजह है कि जिस देश की दुनिया में सबसे ताकतवर सेना है और पिछले 17 सालों से अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ रहा है, वही अमेरिका आज तालिबान से बातचीत के लिए कैसे तैयार हो गया. 

क्या सुपर-पॉवर ने तालिबान के लड़ाकों के सामने घुटने टेक दिया हैं. लड़ाकें इसलिए क्योंकि अमेरिका भले ही पिछले 17 सालों से तालिबान के खिलाफ लड़ रहा हो, लेकिन वो तालिबान को एक आंतकी संगठन नहीं बल्कि 'मिलिशिया' या फिर एक विद्रोही संगठन मानता है. सवाल ये भी है कि जब आज अमेरिका जैसा देश तालिबान से वार्ता के लिए तैयार है तो क्या भविष्य में सीरिया या फिर ईराक में आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन के साथ एक टेबल साझा कर सकता है. क्या अमेरिका की सेना तालिबान से गुरिल्ला युद्ध करते करते थक गई है और इसलिए अफगानिस्तान को बीच मझधार में छोड़कर जाने के लिए तैयार है.  

लेकिन जब अमेरिका और तालिबान के बीच एक बार फिर शांति-वार्ता विफल हो गई है तो ऐसे में भारत के लिए क्या कोई खास संदेश है. क्योंकि खलीलज़ाद के साथ भारत की विदेश मंत्री के साथ फोटो भी लगभग उसी वक्त आई है जब वार्ता फेल होने की आई. माना जा रहा है कि तालिबान से शांति-वार्ता अमेरिकी सैनिकों की वापसी के समय को लेकर विफल हुई है। 

कम ही लोग जानते हैं कि 1947 से पहले तो अफगानिस्तान की सीमा भारत (वृहत-भारत) से मिलती ही थी, लेकिन पाकिस्तान से बंटवारे के बाद भी भारत और अफगानिस्तान के बीच करीब 65 किलोमीटर का बॉर्डर था. लेकिन 1948 के युद्ध के बाद हुए युद्धविराम उल्लंघन के बाद गिलगिट-बालतिस्तान (पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर यानि पीओके) का ये इलाका पाकिस्तान के हिस्से में चला गया. बाद में पाकिस्तान ने शगज़म घाटी का ये हिस्सा चीन को दे दिया था. इसके बावजूद अगर 90 के दशक के तालिबान के राज को छोड़़ दें तो भारत और अफगानिस्तान का संबंध बेहद करीबी रहा है. मौजूदा लोकतांत्रिक सरकार भी भारत के काफी करीबी है. भारत इस समय अफगानिस्तान में सबसे बड़े निवेशक-देशों में शामिल है जो सड़कों से लेकर, डैम और वहां की संसद की बिल्डिंग से लेकर अफगान सैनिकों को ट्रैनिंग देने तक का काम करता है. 

लेकिन, अगर अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर निकल जाते हैं, जो तालिबान और अमेरिका की शांति-वार्ता का एक अहम हिस्सा है तो क्या भारतीय सैनिक उस जगह को भर सकते हैं. इस पर अभी से कयास लगाना बाकी है. क्योंकि इस सवाल का जवाब बहुत हद तक 23 मई के बाद बनने वाली नए सरकार पर निर्भर करेगा. 

हालांकि अभी तक भारत अपने सैनिकों को अफगानिस्तान भेजने के लिए तैयार नहीं है. इसके दो-तीन मुख्य कारण हैं. पहला तो ये कि भारत अभी तक ब्लू-बेरेत यानि संयुक्त-राष्ट्र शांति-सेना के तत्वाधान में ही किसी दूसरे देश में अपने सैनिकों को भेजता है. भारत अभी भी अमेरिका के नेतृत्व वाले नॉटो या फिर किसी दूसरे अंतर्राष्ट्रीय-सैन्य मंच का हिस्सा नहीं है. दूसरा ये कि शगज़म-वैली के भारत के कट जाने से भारत का अफगानिस्तान से सीधा लैंड-कनेक्शन नहीं है. ऐसे में सैनिकों की मूवमेंट करना काफी मुश्किल हो जायेगा. हवाई-मार्ग से सैनिकों को भेजना काफी महंगा सौदा हो सकता है. तीसरा कारण ये भी हो सकता है कि भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम-जनसंख्या है. ऐसे में अफगानिस्तान में मुस्लिमों के खिलाफ लड़ना राजनैतिक तौर से भारत के मुस्लिमों के खिलाफ जा सकता है. 

साथ ही श्रीलंका में शांति-सेना भेजने का (कड़वा) अनुभव भी भारत झेल चुका है. लेकिन इस सबके बावजूद जिस तरह से पिछले कुछ सालों में भारत का कद वैश्विक स्तर पर बढ़ा है उससे किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. साथ ही भारत ने श्रीलंका में भेजी पीसकिपिंग फोर्स के अनुभव से भी काफी कुछ सीखा है. आज भारत की सेनाएं अमेरिका और रूस जैसे देशों के साथ बड़े युद्धभ्यास करती है. आपको बता दें कि ये युद्धभ्यास भले ही यूएन के चार्टर के तहत टेरेरिज्म के खिलाफ होते हैं लेकिन जिस तरह सुपर-पॉवर (खास तौर से रूस जैसी सेना) आतंकियों के खिलाफ अपने टैंक और हवाई-हमले के जरिए ऑपरेशन्स करती है उससे भारतीय सेनाओं ने काफी कुछ सीखा है और किसी भी तरह के मिशन को अंजाम देने में सक्षम है. 

कुछ समय पहले अमेरिका ने भारत को अफगानिस्तान में 'फुट ऑन सोल्जर्स' के लिए आमंत्रित किया था. क्योंकि अमेरिका का मानना है कि अफगानिस्तान की समस्या एक क्षेत्रीय समस्या है और इससे इस क्षेत्र की जो महाशक्तियां हैं वो निपटें (आपको बता दें कि अमेरिका एशिया-पैसेफिक रिजन में भारत को एक बड़ी शक्ति मानता है). लेकिन भारत ने ये कहकर पेशकश ठुकरा दी थी कि वो सिर्फ संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में ही अपने सैनिकों को वहां भेज सकता है. 

दरअसल, 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर ये कहकर हमला किया था कि वहां कि कट्टरपंथी तालिबान-सरकार अल-कायदा और उसके मुखिया ओसामा बिन लादेन को सरंक्षण देती है. इसके बाद तालिबान सरकार को उखा़ड़ फेंक-कर वहां लोकतांत्रिक सरकार की बहाली तो हुई लेकिन 17 साल बाद भी तालिबान के लड़ाके करीब 50 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा किए हुए हैं और करीब-करीब 75 फीसदी पर उनका प्रभाव है. अमेरिका सेना की मौजूदगी के बावजूद कोई सा दिन ऐसा जाता है जब तालिबान वहां कोई बड़ा हमला ना करता हो. यहां तक की शांति-वार्ता के दौरान भी वहां हमले हो रहे हैं.

अफगानिस्तान का इतिहास उठाकर देंखे तो पता चलेगा कि कोई भी देश और सेना आजतक पठानों के देश पर अपना दबदबा कायम नहीं कर पाई। लेकिन खुद अफगान के कबीलों का इतिहास भी खूनी-संघर्ष 
से भरा रहा है (जो शायद आज भी जारी है).

अमेरिका को शायद अब समझ चुका है कि अफगानिस्तान में शांति कायम करना एक टेढ़ी खीर है. साथ ही 9-11 हमले का गुनहगार, ओसामा भी मारा जा चुका है और अल-कायदा पर बहुत हद तक नकेल भी कसी जा चुकी है. ऐसे में अफगानिस्तान में रूकना अब फायदा का सौदा नहीं है. लेकिन भारत सहित कई देश चाहते हैं कि अमेरिका फौज को अभी कुछ समय और अफगानिस्तान में रूकना चाहिए. तब तक जबतक की अफगान सैनिकों को पूरी तरह से प्रशिक्षण कर तालिबान से लड़ने के काबिल ना बना दिया जाए.   

भारत अफगानिस्तान में शांति इसलिए भी कायम करना चाहता है ताकि जिस चाबहार बंदरगाह को भारत ने तैयार किया है उससे अफगानिस्तान के जरिए मध्य-एशियाई देश और रूस से सीधे लैंड कनेक्शन स्थापित किया जा सके, जो व्यापार और सामरिक तौर से भारत के लिए महत्वपूर्ण है. 

लेकिन इस शांति-वार्ता के बीच में तीन और अहम खिलाड़ी हैं जो किसी ना किसी तरह से अफगानिस्तान के लिए महत्वपूर्ण हैं. पहला है पाकिस्तान. अफगानिस्तान से जुड़ा होने के साथ साथ ये बात भी जग-जाहिर है कि पाकिस्तान के तालिबान से काफी करीबी संबंध हैं. अफगानिस्तान में जब तालिबान की सरकार थी तब पाकिस्तान की उससे दोस्ती किसी से छिपी नहीं थी. जबकि अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार के दौरान पाकिस्तान के संबंधों में खटास आ गई है. आए दिन डूरंड-लाइन (दोनों देशों के बीच बॉर्डर) पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सैनिकों के बीच झड़प की खबर आती रहती है. यही वजह है कि पाकिस्तान अब अफगानिस्तान की सीमा पर तारबंदी कर रहा है (जैसा भारत ने पाकिस्तान की सीमा पर कर रही है). हालांकि तालिबान भी इस डूरंड लाइन को नहीं मानता है और पाकिस्तान के बड़े हिस्से पर अपना दावा करता है. लेकिन इसी तालिबान को अमेरिका से शांति-वार्ता के लिए पाकिस्तान ने एक अहम भूमिका निभाई है. 

पाकिस्तान के अलावा रूस पर भी तालिबान को मदद देने के आरोप लगते रहते हैं. तालिबान का राज कायम होने से पहले शीत युद्ध के समय (80 के दशक) में रूसी सेना भी अफगानिस्तान में तैनात थी और वहां से जाने से पहले नजीबुल्लाह की 'पपेट' सरकार को अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज किया था. रूस भी अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए हाल ही में 'मास्को-फॉरमेट' में भारत ने भी 'नॉन-ऑफिसयल' तरीके से हिस्सा लिया. रूस भी चाहता है कि उसका कट्टर-दुश्मन, अमेरिका अफगानिस्तान से निकल जाए और फिर वहां अपना प्रभुत्व वहां एक बार फिर से कायम कर ले. लेकिन ये इतना आसान नहीं है. क्योंकि तालिबान को मुख्यधारा में लाना और फिर चुनाव के लिए तैयार करना एक बड़ी चुनौती है. क्योंकि तालिबान शरिया और कट्टर इस्लामिक विचारधारा को मानने वाला संगठन है. शांति कायम ना होने के चलते अफगानिस्तान में राष्ट्रपति-चुनाव ही समय पर नहीं हो पा रहे हैं। 

लेकिन इस सब में चीन को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो एशिया हीं नहीं पूरे विश्व में एक महाशक्ति के तौर पर उभर रहा है और एशिया-पैसेफिक से लेकर अफ्रीका तक अपने पांव जमाने की भरपूर कोशिश कर रहा है. अफगानिस्तान की शांति बहाली से चीन वहां पर अपनी दूरगामी योजना, 'बेल्ट एंड रोड इनिशेयेटिव' (बीआरआई) को पसारने की कोशिश में रहेगा.  

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